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वेब-सिनेमा

काम करते करते थक गया हूँ, बर्नआउट की सीमा तक पहुँच गया हूँ : पंकज त्रिपाठी

सुशोभित-

पिछले महीने दिए एक इंटरव्यू में पंकज त्रिपाठी ने कहा कि वो अभिनय करते-करते थक गए हैं और बर्नआउट की सीमा तक पहुँच चुके हैं। उन्होंने कहा कि मुझे कुछ महीनों के लिए काम से ब्रेक लेने की ज़रूरत है, लेकिन इंडस्ट्री मुझे छुट्‌टी नहीं लेने देगी। आज पंकज का चेहरा बड़े और छोटे परदे पर हर जगह है। वे देश के सबसे ज़्यादा पहचाने जाने वाले अभिनेताओं में से एक बन चुके हैं। अलबत्ता उन्हें जितनी प्रसिद्धि मिली है, उससे कहीं ज़्यादा इससे पहले सुपर सितारों को मिल चुकी है, लेकिन उनमें से सभी को वैसी वितृष्णा महसूस नहीं हुई है। उसी इंटरव्यू में पंकज ने यह भी कहा कि मैं अपनी जीवन-यात्रा के बारे में सोचना चाहता हूँ, ख़ुद को खोजना चाहता हूँ, यह आकलन करना चाहता हूँ कि कहीं मैं ज़रूरत से ज़्यादा काम तो नहीं कर रहा।

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यह कुरुक्षेत्र में अर्जुन जैसी जो दुविधा और आत्मसंशय आज पंकज में उभर आया है, उसके मूल में अनेक कारण हैं। गोपालगंज के जिस गाँव से पंकज आते हैं, वहाँ उनके बचपन में बिजली भी नहीं थी। आज भी उनके गाँव वाले घर में टीवी नहीं है। उनके माता-पिता ने उनकी फ़िल्में नहीं देखी हैं, ना ही वो देखने के इच्छुक हैं। अपने घर जाकर पंकज को अहसास होता है कि कदाचित् उनकी प्रसिद्धि एक छलावा है, मरीचिका है। उनके गाँव में किसी का कला, संस्कृति, अभिनय से वास्ता नहीं रहा। पंकज आँचलिक-भारत के उस सुदूर कोने से निकलकर इतनी दूर चले आए हैं कि अकसर उनके भीतर एक अन्यताबोध उभर आता है।

बचपन में पंकज ने ना के बराबर फ़िल्में देखी थीं और पश्चिम का सिनेमा तो उन्होंने आज भी नहीं देखा है। कह लीजिये कि वो एफ़टीआईआई के बरक़्स एनएसडी-स्कूल के अभिनेता हैं। बम्बई पहुँचने वाले बहुतेरे अभिनेता दिल्ली और पुणे के इन दो संस्थानों से ही निकलकर आते हैं- एनएसडी रंगमंच का स्कूल है तो एफ़टीआईआई फ़िल्म और टेलीविज़न का। पंकज त्रिपाठी बम्बई फ़िल्म उद्योग में लोकनाट्य-शैली का प्रकृतिस्थ-अभिनय लेकर आए, लेकिन आरम्भ के अनेक वर्षों में वो काम ही तलाशते रह गए थे। तब उनकी सुदूर महत्वाकांक्षा अभिनय से रोज़ी-रोटी कमा लेने और कुछ अच्छा काम कर लेने भर की थी। यह उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन उन्हें इतना काम मिलने लगेगा और इतने दर्शक उनके काम को देखेंगे-सराहेंगे। भीतर ही भीतर वो सोचते होंगे कि अच्छा काम तो पहले भी करता था, फिर तब और आज में इतना अंतर क्यों?

एक बार पंकज से पूछा गया कि वे इतना स्वाभाविक अभिनय कैसे कर लेते हैं? जवाब में उन्होंने कहा- ‘पाँच साल की उम्र में नीम का पेड़ जिसका दोस्त और घर में बंधी गैया जिसकी सहेली हो – उसके अभिनय और जीवन में स्वाभाविकता नहीं आएगी तो और किसके आएगी?’

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वास्तव में दो तरह के अभिनेता होते हैं। एक वे, जो बहुरुपिये होते हैं और उनकी फ़िल्में देखकर आप यह अंदाज़ा नहीं लगा सकते कि वे स्वयं अपने जीवन में कैसे होंगे। फिर दूसरे क़िस्म के अभिनेता वो होते हैं, जिनके निजी जीवन और उनकी फ़िल्म-छवि में ज़्यादा भेद नहीं होता। वो अपनी पर्यवेक्षण-क्षमता से अर्जित जीवन-अनुभवों की सम्पदा को ही अभिनय में रूपांतरित करते हैं।

पंकज के बोलने का तरीक़ा, हाव-भाव, डील-डौल जैसा परदे पर दिखलाई देता है, वास्तव में भी ना केवल वे लगभग वैसे ही हैं, बल्कि वो यह भी कहते हैं कि जिस दिन उनके जीवन और उनकी कला में भेद आ गया, उस दिन उनकी कला उनसे छूट जाएगी। लेकिन बम्बई जैसी मायानगरी में इतनी सफलता के बीच स्वयं को निर्लिप्त कैसे रखें? सहज कैसे बने रहें? सर्वसुलभ होना तो ख़ैर अब असम्भव ही है, किन्तु अपने स्पेस को बचाने की चेष्टा से निर्मित होने वाले विशिष्टताबोध को कैसे परिभाषित करें? ये वो तमाम दुविधाएँ हैं, जो पंकज में मन में जब-तब उठती रहती हैं और वो इससे जूझते हैं। वैसा इसलिए है कि उन्होंने अपनी महत्वाकांक्षा के घोड़े को कभी इतनी छूट नहीं दी थी कि वो इतनी दूर तक चला जाए, जितनी दूर उनकी सफलताएँ आज उन्हें ले आई हैं।

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जिस चीज़ ने आज पंकज को इतना लोकप्रिय बना दिया है, वह उनका वही स्वाभाविक अभिनय है, जिसके बारे में वो श्रेय लेने से इनकार करते मालूम होते हैं। अभिनय में टाइमिंग का बड़ा महत्व होता है। सही समय पर, सही अंदाज़ में की गई चेष्टा दर्शकों की दाद दिलाती है। संवाद-अदायगी को अंग्रेज़ी में डायलॉग-डिलीवरी कहते हैं, यानी संवाद एक ऐसी चीज़ है, जिसे यों ही मुँह उठाकर बक नहीं दिया जाता, उसे बाक़ायदा डिलीवर किया जाता है। ये एक हुनर है, जो बड़े अभ्यास से मिलता है, और उससे भी बढ़कर बड़ी स्थितप्रज्ञता से। कैमरे की आँख- जो वास्तव में करोड़ों खिड़कियों की तरफ़ खुलने वाला एक प्रवर्तन है- के साथ सहज हो जाना इसके मूल में है।

किसी ऐसी लीला-मण्डली या बिदापत-टोली की कल्पना कीजिये, जिसका मुख्य अभिनेता बीच मंच पर संवाद भूल गया है, फिर भी अपनी बुद्धि और विवेक से प्रयत्न कर रहा है कि खेल बिगड़े ना। अब उस अभिनेता की जगह पंकज त्रिपाठी को रख दीजिये। आप निश्चिंत हो सकते हैं कि पंकज वहाँ पर बात को सम्भाल लेंगे। फ़िल्मों में वो मुख्यतया चरित्र भूमिकाएँ करते हैं। इसमें अकसर ऐसी भी स्थितियाँ बन जाती हैं कि दो मुख्य अभिनेता बात कर रहे हैं और पंकज भी दृश्य में मौजूद हैं, उनके पास संवाद नहीं हैं, लेकिन वो अपने इम्प्रूवाइज़ेशन से प्रासंगिक बने रहते हैं। अंतरालों को भरने का हुनर उन्होंने जान लिया है। अभिनय करते समय वो कभी असहज नहीं होते और निर्देशक उनके साथ काम करते समय मुतमईन रहता है कि अगर सीन बेपटरी होने लगा तो वो उसको सम्भाल लेंगे।

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उम्र के जिस दौर में आज पंकज हैं और जैसी क़दकाठी, चेहरा-मोहरा उन्हें नैसर्गिक रूप से मिला है, उसने उनकी सीमाएँ बाँध दी हैं। यह बिलकुल सम्भव है कि एक बिंदु के बाद उन्हें- या उनके दर्शकों को- यह लगने लगे कि अब वो स्वयं को दोहरा रहे हैं, क्योंकि उनकी अभिनय-शैली किफ़ायती या मिनिमलिस्टिक है, नाटकीय नहीं है। वो गर्दन के हलके-से झटके, त्योरियों के उतार-चढ़ाव, आवाज़ में मामूली-से आरोह-अवरोह से अभिनय करते हैं, किंतु शरीर में लंगर डाले जहाज़ जैसा ठहराव बना रहता है।

उन्होंने स्वीकार किया है कि वे भावनात्मक दृश्यों में भी अंडरप्ले करने की कोशिश करते हैं। पंकज ने नेक अधेड़ की भूमिकाएँ भी की हैं और दुर्दान्त अपराधी की भी। हास्य-भूमिकाओं में भी रंग जमाया है। दुर्भाग्य से गैंगवारी-शैली के गलीज़ सिनेमा ने उन्हें अधिक लोकप्रिय बनाया। पंकज सहित वर्तमान के अनेक चर्चित कलाकारों को वासेपुर से पहचान मिली थी और वह फ़िल्म आज बनाई जा रही अनेक वेब-सीरिज़ों का उद्‌गम कही जा सकती है। आज से दस साल पहले इंटरनेट की बैंडविड्थ उतनी सहज-सुलभ नहीं थी और ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म का अस्तित्व नहीं था, किंतु अपने बुनियादी स्वरूप में वासेपुर आठ या दस एपिसोड वाली किसी सीरिज़ जैसी ही थी।

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बाद उसके पंकज ने अनेक भूमिकाएँ की हैं। फ़िल्म न्यूटन के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया था। इस फ़िल्म में उनके द्वारा निभाए गए चरित्र की इतनी चर्चा नहीं होती, जितनी होनी चाहिए। इसमें उन्होंने सीआरपीएफ़ के असिस्टेंट कमांडेंट का रोल किया था और मिलिट्री-अफ़सर के हावभावों को हूबहू चित्रित करने में सफल रहे थे। उस फ़िल्म में वो तनिक तनकर खड़े हुए थे और उनकी बॉडी-लैंग्वेज दूसरी फ़िल्मों की तुलना में फ़र्क़ थी। उनके सामने राजकुमार राव थे, जिनका अभिनय नर्वस-एनर्जी से भरा रहता है। राजकुमार की हकबकाहट के समक्ष पंकज का धरतीपकड़-ठहराव उभरकर सामने आया था। मिर्ज़ापुर के पंकज बरेली के पंकज से भिन्न हैं, वहीं स्त्री और सेक्रेड गेम्स में उनके दो मुख़्तलिफ़ रूप दिखलाई दिए हैं। वर्ष 2020-21 में जब पूरी दुनिया थम गई थी, तब भी ओटीटी-प्लेटफ़ॉर्म्स पर पंकज की फ़िल्में आती रहीं- लूडो, गुंजन, मिमी। वास्तव में पंकज आज यत्र-तत्र-सर्वत्र हैं।

कदाचित्, पंकज इरफ़ान या मनोज बाजपेयी की तुलना में रघुवीर यादव या संजय मिश्रा की शैली के अधिक निकट ठहरते हैं। क्या वो कभी अपनी देशी-खाँटी छवि को तोड़कर अपना वैसा डी-क्लासिफ़िकेशन कर सकेंगे, जैसा नसीर, इरफ़ान, मनोज समय-समय पर करते रहे हैं। क्या कालान्तर में वो अपने अभिनेता-स्वरूप को और विराट बनावेंगे? या अपनी क्षमताओं का भरपूर दोहन कर लेने के बाद वैसे रिक्तता-बोध से भर जावेंगे, जो आज जब-तब उन्हें घेर लेता है? यह तथ्य कि पंकज इस वस्तुस्थिति के बारे में सचेत हैं, एक शुभ संकेत है। एक नैसर्गिक अभिनेता के लिए केवल यह करना भर काफ़ी नहीं होता कि उसे दिए पार्ट को वह कुशलता से निबाह ले, उसे अपने लिए नए और केंद्रीय चरित्र रचने के लिए पटकथाकारों को प्रेरित भी करना होता है। कौन जाने जब पंकज अभिनय से कुछ समय के लिए ब्रेक लेने की बात करते हैं तो शायद अपनी और वृहत्तर सम्भावनाओं को टटोलने के लिए ही वैसा कहते हों।

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चर्चित युवा लेखक सुशोभित की Fb वॉल से.

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