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सुख-दुख

एक कार्टूनिस्ट से डरे पीएम को एक पत्रकार का पत्र

संदर्भ-प्रख्यात कार्टूनिस्ट मंजुल को नौकरी से बाहर कराना

प्रधानमंत्री जी को मेरा खत….

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—इतना डर कि आप एक कार्टूनिस्ट से डर गये!

मा० प्रधानमंत्री जी,
नमस्कार!
दिनांक-10/06/2021

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ये खत आप तक पहुंचेगा या नहीं या फिर आप‌ तक पहुंचने दिया जाएगा कि नहीं ..इन दोनों संभावनाओं को दृष्टिगत रखते हुए मैं ये खत आपको लिख रहा हूं। ऐसे लाखों खत आपको मिलते होंगे उनमें से एक यह भी सही। .. लेकिन बिना लिखे मन विचलित है क्योंकि सच लिखना, सच बोलना, सच देखना और गलत की ओर इंगित करना यह हर नागरिक का कर्तव्य होना चाहिए…बतौर एक जर्नलिस्ट और नागरिक, उसी हैसियत से आपको यह खत लिख रहा हूं।

किसी भी देश का मीडिया उस देश की व्यवस्था को पाक-साफ और दुरूस्त रखने का एक सशक्त माध्यम है। मीडिया जब खामोश हो जाता है या धूलधूसरित हो जाता है उस देश की स्थिति कैंसर के फोर्थ स्टेज के मरीज जैसी हो जाती है। इसके बाद भी कुछ कलमकार ऐसे होते हैं जो अपनी कलम-कूची से देश को कीमो थेरैपी देनी की अपनी कोशिश जारी रखते हैं। कीमों थेरैपी हमेशा से कष्टकारी रही है लेकिन इलाज का अंतिम उपाय भी यही है…खैर!

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भूमिका बांधने और खत के विषय को सजाने-संवारने में वक्त खराब करने का कोई मतलब नहीं है। प्रधानमंत्री जी सरकार के इशारे पर देश के एक प्रख्यात कार्टूनिस्ट को नौकरी से निकाल दिया गया। नाम है मंजुल। मंजुल और मैं 1992 के साथी हैं और मंजुल हमेशा से सत्ताओं व व्यवस्था की खामियों को नश्तर चुभोता रहा है।

मंजुल के कार्टून्स ने विश्वस्तर पर अपने पैनेपन को लेकर एक पहचान बनाई है लेकिन कभी भी, किसी भी व्यवस्था ने न केवल म़जुंल, बल्कि किसी भी खरे पत्रकार को नौकरी से नहीं निकलवाया (इक्का-दुक्का घटनाओं को छोड़कर)। मा0 प्रधानमंत्री जी आपको ये पता होगा कि 2014 से लेकर अब तक कितने मीडियाकर्मी केवल इसलिए नौकरियों से चलता करवा दिए गये क्योंकि वो सत्ता की गुलामी नहीं करना चाहते थे।

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मैं नेहरू जी की बात करूंगा ये जानते हुए भी कि आपको अच्छा नहीं लगेगा क्योंकि 2010 से लेकर आज तक बड़ी मशक्कतों के बाद नेहरू को मुल्ला और चरित्रहीन साबित किया गया है।

नेहरू के अनुसार, ‘प्रेस की आजादी इसमें नहीं है कि जो चीज हम चाहें, वही छप जाय। एक अत्याचारी भी इस तरह की आजादी को मंजूर करता है। प्रेस की आजादी इसमें है कि हम उन चीजों को भी छपने दें, जिन्हें हम पसंद नहीं करते। हमारी अपनी भी जो आलोचनाएं हुई हैं उन्हें भी हम बर्दाश्त कर लें और जनता को उन विचारों को जाहिर कर लेने दें जो हमारे पक्ष के लिए नुकसानदेह ही क्यों न हों; क्योंकि बड़े लाभ या अन्तिम ध्येय की कीमत पर क्षणिक लाभ पाने की कोशिश करना हमेशा एक खतरे की बात है।’ (हिंदुस्तान की समस्याएं, पृष्ठ 144)

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‘मैं अखबारों की आजादी का बहुत कायल हूँ। मेरे ख्याल से अखबारों को अपनी राय जाहिर करने और नीति की आलोचना करने की पूरी आजादी मिलनी चाहिए। हाँ, इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि अखबार या इंसान द्वेष-भरे हमले किसी दूसरे पर करे या गंदी तरह की अखबार-नवीसी में पड़े, जैसे कि हमारे आजकल के साम्प्रदायिक पत्रों की विशेषता है। लेकिन मेरा पक्का यकीन है कि सार्वजनिक जीवन का निर्माण आजाद अखबारों की नींव पर होना चाहिए।’ (नेहरु, हिंदुस्तान की समस्याएं, सस्ता साहित्य मंडल, 1988)

आदरणीय प्रधानमंत्री सर्व श्री नरेन्द्र मोदी जी, नेहरू जी ने ही प्रधानमंत्री बनने के बाद एक नई परम्परा को जन्म दिया. वह था प्रधानमंत्री का संवाददाता सम्मलेन. जितने भी संवाददाता भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त थे, उन्हें प्रायः प्रतिमाह एक संवाददाता सम्मलेन में बुलाया जाता था और वह जो चाहे प्रश्न करते थे जिनका श्री नेहरू उत्तर देते थे. नेहरू ने अपने इन पत्रकार सम्मेलनों को इतनी अधिक स्वतंत्रता दे रखी थी कि उस सम्मलेन में खड़े होकर कोई भी संवाददाता कुछ भी पूछने लगता. केवल एक बार नेहरू ने एक संवाददाता को अपने प्रेस सम्मलेन से बाहर किया था और वह थे उस समय ‘ब्लिट्स’ के संवाददाता श्री जे के रेड्डी. यह कार्रवाई करने से पहले नेहरू को पता था कि यह सज्जन कश्मीर पर पाकिस्तान द्वारा आक्रमण करने के बाद कुछ दिनों तक पाकिस्तान में बड़े आराम से रहे थे और जब वे भारत लौटे और उन्होंने सनसनीखेज पत्रकारिता प्रारंभ की तो उन्होंने पाकिस्तान सरकार द्वारा उनके साथ किसी दुर्व्यवहार की शिकायत नहीं की थी जबकि प्रायः प्रत्येक भारतीय जो पाकिस्तानी सेना के कब्जे में आकर पाकिस्तान ले जाया गया था, यह शिकायत करता था. (जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी, ‘पंडित जवाहरलाल नेहरू : कुछ संस्मरण’, आजकल, नवम्बर, 1989)

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एक-दो अन्य संवाददाताओं एवं संपादकों के प्रश्नों पर नेहरू ने टिप्पणियां की थीं कि ‘यदि आप विषय नहीं जानते हैं तो उसमें आप अपनी टांग क्यों अड़ाते हैं?’ पत्रकारों ने उनसे तरह-तरह के टेढ़े सवाल किये परन्तु कभी भी पंडित नेहरू ने डांटना तो दूर भौं तक नहीं सिकोड़ी. वे विरोध को बड़ी ख़ुशी से बर्दाश्त कर लेते थे बशर्ते कि उन्हें यह विश्वास हो कि प्रश्नकर्ता का इरादा नेक है. (जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी, ‘पंडित जवाहरलाल नेहरू : कुछ संस्मरण’, आजकल, नवम्बर, 1989)

आदरणीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी!…आप ने तो संवाददाता सम्मेलनों की परंपरा ही खत्म कर दी। सर! मीडिया के कुछ साथियों से लडने की बजाए सरकार को देश के भीतर की तमाम गंभीर समस्याओं से और सीमा पर चुनौती देते चीन से लड़ने की जरूरत है। हम सब तो आपके अपने हैं और अपने हैं इसलिए सरकार से नाराजगी जाहिर करने का हक भी रखते हैं।

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आदरणीय प्रधानमंत्री जी!… मुझे लगता है कि लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाने के लिए मीडिया के हर एक साथी को मुखर होने की जरूरत है और इस दिशा में आप जरूर सोचेंगे कि मीडिया का इकबाल कैसे बुलंद हो कि वह आपसे व सत्ता से चुभने वाले सवाल कर सके।

सादर
पवन सिंह
वरिष्ठ पत्रकार व लेखक
पता…..
लखनऊ
उत्तर प्रदेश।

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