कबीर संजय-
महाविनाश… अपने पैदा होने के बाद से पृथ्वी महाविनाश के छठवें दौर से गुजर रही है। इससे पहले पांच महाविनाश आ चुके हैं। अफसोस की बात यह है कि महाविनाश के इस छठवें दौर का सबसे बड़ा कारण मानव जाति और उसकी कारगुजारियां हैं।
माना जाता है कि पृथ्वी का जन्म लगभग साढ़े चार अरब साल पहले हुआ था।
हजारों सालों तक पृथ्वी रहने लायक नहीं थी। फिर धीरे-धीरे वातावरण सुधरा तो जीवों की उत्पत्ति हुई। लेकिन, पृथ्वी के इतिहास में ऐसे पांच दौर आ चुके हैं जब जीवों का महाविनाश हुआ है। इसे मॉस एक्सटिंक्शन कहा जाता है। जब ये महाविनाश आए तो बड़े पैमाने पर जीवों का खात्मा हो गया। जीवों की हजारों-लाखों प्रजातियां नष्ट हो गईं। पूरी तरह से समाप्त हो गईं।
कभी पृथ्वी पर राज करने वाले डायनासोर भी इन्हीं में शामिल हैं। महाविनाश के चलते पूरी की पूरी डायनासोर फैमिली ही नष्ट हो गई। उस समय के अन्य जीवों के फासिल भी आज पाए जाते हैं और उनके बारे में जानकर हमें आश्चर्य भी होता है कि अरे ऐसे भी जीव कभी पृथ्वी पर हुआ करते थे।
पृथ्वी पर पहले आए पांचों महाविनाश के कारण आमतौर प्राकृतिक घटनाएं रही हैं। किसी उल्का का टकरा जाना या मौसम में हुआ परिवर्तन, हिमयुग के आ जाने से जैसे कारकों से तमाम प्रजातियां नष्ट हो गईं। लेकिन, छठवें महाविनाश के लिए इंसानों की कारगुजारियों को सबसे ज्यादा जिम्मेदार माना जाता है।
और इस महाविनाश में इंसानों को छोड़कर स्तनपायी या मैमेल जानवरों की कई प्रजातियां, सरीसृप या रेप्टाइल, पक्षी, एंफीबियन, आर्थोपोडा सभी शिकार हो रहे हैं। पृथ्वी पर मौजूद स्तनपायियों का 96 फीसदी हिस्सा इंसान और इंसानों द्वारा पाले जाने वाले जानवर हैं। केवल चार फीसदी में बाकी सारे स्तनपायी जीव हैं। इनमें बाघ से लेकर जिराफ और हाथी तक शामिल हैं। जबकि, पृथ्वी पर मौजूद पक्षियों का 70 फीसदी हिस्सा इंसानों का पालतू बनाया हुआ है और उसमें भी मुख्यतः चिकन है। यानी जंगलों और मुक्त विचरण करने वाले पक्षियों की तादाद केवल तीस फीसदी ही रह गई है।
पृथ्वी को आज हम जिस रूप में देखते हैं, उसे बनने में करोड़ों साल लगे हैं। इस जीव जगत में एक चीता जिंदा रहने के लिए तितलियों तक पर निर्भर है। जीवों के बीच इन अंतरसंबंधों को अभी बहुत ज्यादा समझा भी नहीं गया है। जाहिर है कि ईकोसिस्टम के नष्ट होने का खामियाजा सभी को भुगतना पड़ेगा।
हम छठवें महाविनाश के बीच में हैं। यानी महाविनाश पहले ही शुरू हो चुका है और महाविनाश का बड़ा हिस्सा हो भी चुका है। फिलहाल जो स्थिति दिख रही है, उसमें इसकी भी संभावना बहुत कम दिखती है कि इस महाविनाश को समय से रोकने के उपाय किए जा सकेंगे।
इस महाविनाश के बाद भी पृथ्वी बची रहेगी। जैसे पहले के पांच महाविनाशों के बाद भी पृथ्वी बची रही थी। लेकिन, उसे दोबारा से हरी-भरी होने में हो सकता है कि फिर से लाखों साल लग जाएं। फिर से जीवन पनपने में हो सकता है कि लाखों साल लग जाएं।
लेकिन, तब पनपने वाले जीव आज जैसे नहीं होंगे। कुछ अलग होंगे। इस महाविनाश को समझना जरूरी है। यह खतरा वास्तविक है।
Dr Ashok Kumar Sharma
April 8, 2022 at 12:39 pm
बहुत बढ़िया और रोचक आलेख है मगर अधूरा और पूर्ण रूप से अनुसंधान पर आधारित नहीं है। पृथ्वी पर तबाही और महातबाही के बारे में सबसे पहले असीरियन सभ्यता में ईसा पूर्व 2600 वर्ष पहले आकलन किया गया था और तब पहली बार महाप्रलय में इंसानों के समाप्त हो जाने की बात कही गई थी। तब से तकरीबन पिछले 2000 सालों में 1100 बार पृथ्वी पर मानव सभ्यता के विनाश के आकलन किए गए हैं और पिछले 100 साल में तो यह हद हो गई है कि हर साल 3 बार इस प्रकार के आकलन प्रकाश में आते हैं। टीआरपी की घुड़दौड़ में यह काम सबसे ज्यादा टेलीविजन चैनल कर रहे हैं। लेकिन अब उस अंधी दौड़ में सोशल मीडिया के अनेक दिग्गज भी शामिल हो गए हैं। वर्तमान शताब्दी आरंभ होने से पहले सबसे पहली बार यह आकलन किया गया कि संसार में पेट्रोकेमिकल भंडारण सन 2000 तक समाप्त हो जाएंगे। इसके बाद कार्बनिक गैसों के उत्सर्जन को लेकर और इकोसिस्टम के खतरो को लेकर वैज्ञानिकों पहली बार बोलना शुरू किया और दुखद बात यह है कि इसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। ग्रीन हाउस इफेक्ट, ओजोन का क्षरण और इकोसिस्टम की तबाही को शायद मानव जाति अभी तक ढंग से समझ ही नहीं पाई है। हम इंसानों का सारा जीवन राजनीति और अपराध हानि और लाभ के ऊपर इतना केंद्रित हो गया है की अस्तित्व को बचाने के लिए और बचाए रखने के लिए कोई भी देश गंभीर दिखाई नहीं दे रहा है। इस आलेख में जिस खतरे को मानव जाति के ऊपर मंडराता बताया जा रहा है वह एक ऐसी हकीकत है जो अगले 30 वर्षों में पृथ्वी के अधिकांश जल स्रोतों को हमेशा के लिए समाप्त कर देगी और इसके बाद वायुमंडल का नंबर आएगा ऑक्सीजन और पानी की तंगी के बारे में ना तो कोई सोच रहा है और ना उससे बचने की किसी की कोई कल्पना नजर आती है। पृथ्वी के एक बड़े हिस्से पर भौगोलिक परिवर्तनों से बने पहाड़ों की चोटियों पर जमी बर्फ से ताजे और पीने योग्य पानी का बहाव प्रभावित होता है। बर्फ के जमे हुए तालाबों और विशाल नदियों को हम लोग हिम्मत या ग्लेशियर के नाम से जानते हैं। गैलेक्सी ही नदियों तालाबों और वर्षा के स्रोत हैं। 4 किलोमीटर से बड़े आकार के हिंदुओं का अस्तित्व पूरे संसार में कम होता जा रहा है। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव पर जमी बर्फ पिघल रही है और समुद्र का स्तर ऊंचा होता जा रहा है। हाल ही में 4 साल पहले मां मारियो का जो नया दौर शुरू हुआ है उससे पैदा हुए विषाणु यानी वायरस नए-नए आकारों में ढलते जा रहे हैं और नए वायरस अस्तित्व में आ रहे हैं। यह भी एक जैव वैज्ञानिक कयामत का हिस्सा है। वायरस विशेषज्ञ मानते हैं कि अगले कुछ वर्षों में सुपर भजन का विकास भी हो चुका होगा जिसे एंटीबायोटिक्स और रेडिएशन से मारना असंभव हो जाएगा। सोचने वाली बात है कि इन वायरस का विकास इंसान ने लैब में किया है और अब हालात उसके काबू से बाहर निकल चुके हैं। इस दुनिया को किसी एक मजहब किसी एक रिलीजन और किसी एक धर्म की बपौती और जायदाद बनाने के लिए हमारे देश के ही नहीं संसार के हर मुल्क के धार्मिक नेता उन्माद की अंतिम सीमा तक कोशिश कर रहे हैं। उन सालों से कोई पूछता नहीं कि जब इंसान ही नहीं बचेगा तो तुम हरामखोर ओ का कौन सा धर्म कौन सा मजहब और कौन सा रिलिजन सलामत रह पाएगा। पृथ्वी पर भौगोलिक विविधता, जैव विविधता, पेड़ पौधों के अस्तित्व की रक्षा, संसाधनों की रक्षा और अमन चैन को लेकर कोई बड़ा आंदोलन किसी भी देश में नहीं चलाया जा रहा है। नतीजे साफ है। झेलना सबको है और तैयार कोई भी नहीं।