Sandip Thakur : हिंदी का पत्रकार तो वैसे भी रोज तिल तिल कर मरता है…. घर का किस्त भरने में, बच्चों के स्कूल की फीस भरने में, बूढ़े मां-बाप के ईलाज में खर्च होने वाली रकम जुटाने में। पढ़ा लिखा होता है इसलिए भीख भी नहीं मांग सकता। किसी हिंदी पत्रकार का घर जाकर देखिए कभी…वह भी छोटे जगहों पर काम करने वाले पत्रकार का। शशि शेखर ने सीवान के पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या पर एक भावुक पीस लिख मारा…और हो गई इतिश्री।
मैं राजदेव रंजन को नहीं जानता था… भगवान उनकी आत्मा को शांति दे और उनके परिवारवालों को दुख सहने का साहस। परंतु, इस हालात के लिए कौन जिम्मेदार हैं… सोचा है कभी पत्रकारों ने। 28 साल से पत्रकारिता में हूं। हिंदी के तमाम बड़े अखबारों में काम कर चुका हूं… नवभारत, हिंदुस्तान, राष्ट्रीय सहारा…आदि। मेरा अनुभव बताता है कि ऐसी घटनाओं के लिए संपादक और अखबार का प्रबंधन जिम्मेदार है। खास तौर से संपादक क्योंकि संपादकीय विभाग से जुड़े लोगों को रखने हटाने का काम वही करता है। राजदेव रंजन का पद जरूर ब्यूरो चीफ का था लेकिन उनकी सैलरी कितनी थी.. क्या वे स्टाफर थे… उन पर सिर्फ खबर लिखने की जिम्मेदारी थी या फिर पैसे जुटाने की भी…?
दरअसल इनदिनों हो क्या रहा है। संपादक मैनेजमेंट से ठेका लेता है ..किस बात का। कम से कम पैसे में अखबार निकालने का। अपनी सैलरी लाखों में और संवाददाताओं की सलरी हजारों में। छोटे शहरों में काम करने वाले मैं कई पत्रकारों को जानता हूं जिन्हें हिंदुस्तान जैसा बड़ा अखबार आठ-दस हजार रुपए महीने पर खटवाता है। शशिशेखर ने अपने कुछ लोगों को छोड़ समाचारपत्र में शायद ही किसी को सम्मानजनक सैलरी दी है। हिंदी में पत्रकार वैसे भी बैगन के भाव उपलब्ध हैं। शशिशेखर जैसे संपादक इसी का लाभ उठाते हैं। चपरासी से भी कम तनख्वाह पर काम करने वाला पत्रकार क्या करे? वह इधर उधर से कमाएगा, प्रापर्टी डीलिंग, दुकान मकान का कारोबार करेगा और फिर बेमौत मारा भी जाएगा।
मरने के बाद जिंदगी भर दूसरों की खबर छापने वाला खुद खबर बन कर रह जाएगा। कुछ दिन शोर शराबा होगा और फिर मृतक परिवार के दरवाजे पर कोई झांकने तक नहीं जाएगा। हाल ही में मेरे अनुज अनूप झा की पत्नी ने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली ..क्यों? क्योंकि एक हिंदी दैनिक में काम करने वाले अनूप की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी। खूब शोर मचा। 20 साल नौकरी करने के बाद भी अनूप इतना नहीं कमा पाए थे कि उनका परिवार दो चार साल तक बैठ कर खा सके। मौत के एक साल के भीतर ही दो बच्चों को छोड़ उसकी पत्नी ने आत्महत्या कर ली। संपादकों के मर्सिया पढ़ने से कुछ नहीं होगा। यदि सही में चाहते हैं कि पत्रकार बेमौत न मारे जाएं तो सबसे पहले सम्मानजनक सैलरी देने दिलवाने की शुरुआत करें… आज मजीठिया वेज बोर्ड के पक्ष में कितने संपादकों ने बोला है….नाम पता हो तो जरूर बताएं….
लेखक संदीप ठाकुर दिल्ली के कई अखबारों चैनलों में वरिष्ठ पदों पर कार्यरत रहे हैं.
Nilesh Kumar
May 17, 2016 at 2:58 pm
माफ कीजिए
लेकिन गलती से ही सही, आपने राजदेव जी पर कीचड़ उछाल कर अच्छा नहीं किया
सभी ब्यूरो चीफ को एक तराजू में रख कर तौलना सही बात नहीं, कुछ लोग ईमानदार भी होते हैं
!
संदर्भ—
राजदेव रंजन का पद जरूर ब्यूरो चीफ का था लेकिन उनकी सैलरी कितनी थी.. क्या वे स्टाफर थे… उन पर सिर्फ खबर लिखने की जिम्मेदारी थी या फिर पैसे जुटाने की भी…?