अरुण श्रीवास्तव–
देहरादून। भारतीय संस्कृति में 16 साल का बहुत महत्व होता है शायद इसीलिए इसे सोलवां सावन भी कहते हैं। अभी कुछ ही दिन हुए सहारा इंडिया परिवार के नियंत्रण वाले राष्ट्रीय सहारा देहरादून ने अपने प्रकाशन का 16वां वर्ष मनाया। ऐसे मौकों पर हर प्रबंधन अपनी उपलब्धियों के पुल बांधता है तो प्रबंधन के करीबी अपनी-अपनी। कुछ अपनी खबरों के तो कुछ अपनी खबरों पर हुए असर का। वैसे खबर पर हुई असर की याद अखबार अपने पाठकों को कुछ ही दिन बाद खबर से कहीं ज्यादा बड़ी जगह देकर बता देता है। इस परंपरा से राष्ट्रीय सहारा भी अछूता नहीं रहा।
बहरहाल बात 16 साल की उपलब्धियों पर। आज से 16 साल पहले शुरू हुआ यह अख़बार तीसरे नंबर पर था। इसके पहले दैनिक जागरण और अमर उजाला पहले से विराजमान थे। आज यह अख़बार चौथे स्थान पर है। यदि एक और अखबार का प्रकाशन शुरू हो जाए तो पांचवें स्थान पर आ जाएगा यह तय है।
लखनऊ से आये लोगों को याद हो वहां की सड़कों पर लगे बोर्ड और उनपर लिखे हर्फ (शब्द)। ” ये एक और अखबार नहीं , रचनात्मक आंदोलन है। “रचनात्मक आंदोलन” जिसको लाने के दावे के साथ इसने अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए 1992 में इसी तरह के विज्ञापन से लखनऊ को पाट दिया था। 1991 से शुरू हुआ राष्ट्रीय सहारा के आज छह यानी आधा दर्जन संस्करण हैं जबकि इसके समकालीन के डेढ़-दो दर्जन होंगे। इन छहों संस्करणों में यह नीचे से नंबर वन रहा।
किसी खास अवसर पर अपनी उपलब्धियों का बखान करना हमारी परम्परा रही है। चूंकि अखबार पर हक सिर्फ मालिकों का ही नहीं कर्मचारियों और पाठकों का भी होता है। इसलिए हरएक को यह जानने का हक है इसने क्या पाया, क्या खोया ? 16 साल का राष्ट्रीय सहारा देहरादून संस्करण राजेश श्रीनेत से शुरू हुआ जितेंद्र नेगी जो फोटोग्राफर हुआ करते थे से होता हुआ महीनों से स्थानीय संपादक विहीन है। श्रीनेत लंबा अखबारी अनुभव रहा है। इलाहाबाद में वे अमर उजाला के स्थानीय संपादक थे तो हिंदुस्तान के वाराणसी संस्करण की शुरुआत उन्हीं के नेतृत्व में हुई थी।
आज उत्तराखंड की राजधानी से छपने वाले इस अखबार के पास न तो स्थानीय संपादक हैं न समाचार संपादक न उप समाचार संपादक और तो और एक अदद मैनेजर (यूनिट हेड) भी नहीं है। जो हैं भी उसने भी “घर-वापसी” की। राष्ट्रीय सहारा देहरादून संस्करण छोड़ने के पहले वे विज्ञापन मैनेजर थे। 16 सालों में राष्ट्रीय सहारा देहरादून का कुनबा बढ़ने के बजाए घंटा है। आज इस संस्करण में लेखा प्रबंधक, प्रसार प्रबंधक विज्ञापन प्रबंधक व एच.आर. प्रबंधक नहीं है। कैसे काउंटर तो है पर कैशियर ही नहीं है। एच. आर. की जिम्मेदारी कम्प्यूटर की देखभाल करने वाले एक कर्मचारी के कंधों पर डाल दी गई। अब कम्प्यूटर की देखभाल एक अस्थाई कर्मचारी कर रहा है। 75 हजार की सीमा लांघ कर एक लाख प्रतियों की ओर बढ़ने वाला देहरादून संस्करण आज 10 हजार के आसपास भी नहीं होगा।
अब एक नज़र कर्मचारियों के हालात पर। कर्मचारियों को सालों हो गए पूरी पगार मिले हुए। जबसे सहारा के मुखिया जेल क्या गए कर्मचारियों पर “दुखों का पहाड़ टूट पड़ा”। आधा-अधूरा वेतन वो भी समय पर नहीं। एक समय था जब महीने की अंतिम तारीख तक वेतन खाते में आ ही जाता था। सभी को फेस्टिवल एडवांस मिलता था जो दस किश्तों में कटता था। सैलरी एडवांस कभी भी ले सकते थे। जब बहुत से अखबार के लोग नहीं जानते थे कि एलटीसी किस चिड़िया का नाम है तब राष्ट्रीय सहारा में एलटीसी थी। अब यह अलग बात है कि, संपादकीय को छोड़कर सभी विभागों के कर्मचारी इसका लाभ उठाते थे। देहरादून संस्करण में सिर्फ और सिर्फ अनूप गैरोला को मिली थी। चूंकि अब वे इस दुनिया में नहीं हैं इसलिए इसपर चर्चा नहीं।
जो राष्ट्रीय सहारा देहरादून संस्करण अपनी स्थापना के 16वां साल मना रहा है उसके कर्मचारियों को फेस्टिवल एडवांस, सैलरी एडवांस, बोनस व तमाम भत्ते क्या आज सैलरी स्लिप तक नहीं दी जा रही है। क्या यह भी एक उपलब्धि है? कर्मचारियों का पीएफ तो काटा जा रहा है पर 2015 से जमा नहीं हो रहा है। सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार भविष्य निधि संगठन की उत्तर प्रदेश इकाई ने एक करोड़ का जुर्माना ठोंका है।
लगे हाथ आतंरिक व्यवस्था पर। 16 साल पहले राष्ट्रीय सहारा देहरादून संस्करण में जिस डेस्क पर एक दर्जन से अधिक कर्मचारी हुआ करते थे आज आधा दर्जन भी नहीं हैं। महिला आरक्षण बिल अभी कुछ दिनों ही हुए संसद में पारित हुए हुआ पर राष्ट्रीय सहारा देहरादून संस्करण 33% के आसपास महिला कर्मचारी थीं। नाइट शिफ्ट में गाड़ी घर छोड़ने जाती थी। यह सुविधा यहीं से छपने वाले दैनिक जागरण और अमर उजाला के महिला कर्मचारियों को नहीं मिलती थीं। इन अखबारों में महिला कर्मचारी न के बराबर होंगी। महिला कर्मचारियों को मातृत्व अवकाश मिलता था। कर्मचारियों को खुद के विवाह पर स्पेशल लीव भी दी गई।
हां एक बात और, उत्तर प्रदेश का यह एकमात्र हिंदी अखबार होगा जहां कैंटीन की सुविधा थी वो भी सब्सिडाइज्ड। आधा भुगतान कर्मचारी करता था और आधा कंपनी। लखनऊ में जब राष्ट्रीय सहारा शुरू हुआ था तो संवाददाताओं के लिए सहारा इंडिया ने दोपहिया वाहन उपलब्ध कराये थे। अधिकारियों को तय मात्रा में पेट्रोल भी दिया जाता था गाड़ी की सर्विसिंग के लिए कंपनी का वर्कशॉप भी हुआ करता था। जब अन्य अखबारों के संपादक एसी थ्री टियर में सफर करते थे तब राष्ट्रीय सहारा के संपादक एयर सहारा से उड़ कर मुख्यालय आते-जाते थे। मतलब यह कि राष्ट्रीय सहारा में सब कुछ बुरा ही नहीं था।
लेखक अरुण श्रीवास्तव देहरादून के वरिष्ठ पत्रकार हैं और 24 साल की सेवा के बाद भड़ास पर खबर लिखने के आरोप में सहारा समूह की नौकरी से निकाल दिया गया था.