Priyanka Jain-
हे भास्कर के महान मालिकान… मेरा मन हुआ कि आपके श्री चरणों में नमन करूं, क्यों करूं ये मैं आपको विस्तार से बताउंगी..
दरअसल मैंने मेरे पति को आपकी चाकरी में तिल तिल करते जीते मरते देखा है.. आप लोगों के बर्ताव की वजह से अन्दर ही अन्दर घुटते देखा है.. इसलिए मेरे चन्द सवाल हैं आपसे….
वो तो पूछ नहीं पायेंगे.. आपने इतना तोड जो दिया उन्हें…. तो मालिक, आप एक बात का जवाब दीजिए…
हर अखबार में तीन विभाग होते हैं, संपादकीय, विज्ञापन/मार्केटिंग और सर्कुलेशन/एसएमडी.. आपके यहां भी हैं ही.. जाहिर है जब विभाग अलग अलग हैं, तो सबकी काम की अपनी जिम्मेदारियां भी होंगी ही।
फिर क्यों बार बार साल में ही दूसरे महीने आपके विज्ञापन/सर्कुलेशन के सारे टारगेट पूरे करवाने का ठेका संपादकीय टीम के माथे मढ दिया जाता है? वो भी प्रताड़ित करने के स्तर तक..
ना करो तो बाहर निकाल देने की धमकी तक…
अग्रवाल साहब! हालांकि आपने तो पॉलिसी बना रखी है कि संपादकीय में काम करने वाले अपने नाम से एड एजेन्सी नहीं ले सकते, मतलब आपके हिसाब से वो विज्ञापन का काम नहीं कर सकते। पर पता नहीं आपको इसकी जानकारी है या नहीं, कि आपके ये मार्केटिंग एक्सीक्यूटिव और मैनेजर, जो आपसे मोटी पगार उठाते हैं, अपना सारा टारगेट बेचारे संपादकीय टीम के सबसे निचले प्राणी स्ट्रिंगर से उगाहते हैं। इन्होंने बाजार में उनको ब्लैकमेलर बना के रख दिया है। होली दिवाली हो या राष्ट्रीय पर्व या कोई और अलाना फलाना दिवस, इनकी टारगेट की पर्ची सबसे पहले पहुंच जाती है।
मालिक, बड़े शहरों को छोड़ दें तो सारे के सारे जिले, सैटेलाईट पुलआउट पर यही गणित है। पगार ये मैनेजर उठाते हैं और बाजार में आपके नाम की दलाली ये संपादकीय टीम के लोग करते हैं। मानती हूं दलाली शब्द चुभेगा थोड़ा, पर हकीकत में यही बना दिया है आपने अपने संपादकीय टीम के लोगों को।
मेरे पति आपके पिता के टाईम से आपकी चाकरी में हैं… बहुत मानते हैं आपके पिता को… आज भी उनकी तारीफें करते रहते हैं… अगर वो वाकई सच है, तो माफ करिए आप अपने पिता जैसे बिलकुल नहीं हैं.. जानती हूं, आपकी नजरों में हम जैसे लोगों की तकलीफ का कोई मोल नहीं.. लेकिन ये जरूर याद रखिए कि हम जैसों की हाय में बहुत ताकत होती है…
मालिक! हम लोगो की दुआएं लीजिए, हाय नहीं.. थोड़ा ध्यान दीजिए.. अपनी दमदार संपादकीय टीम को दलाल बनने से बचा लीजिए…