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सुख-दुख

संतोष भारतीय की किताब पर वरिष्ठ पत्रकार देवप्रिय अवस्थी ने ये क्या लिख दिया!

देवप्रिय अवस्थी-

पिछले दिनों कुछ मित्रों की वाल पर संतोष भारतीय की पुस्तक ‘वीपी सिंह, चंद्रशेखर, सोनिया गांधी और मैं’ पर चर्चा देखऩे को मिली। जिस व्यक्ति का सार्वजनिक और निजी जीवन विवादास्पद रहा हो उस व्यक्ति से भारतीय राजनीति के हाहाकारी काल (मित्र हेमंत शर्मा का दिया विशेषण) की वस्तुनिष्ठ विवेचना की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। संतोष भारतीय ने पुस्तक का नाम भी भ्रम फैलाने वाला रखा है। इस पुस्तक का सही नाम :मैं-मैं और मेरी मैं-मै’ होना चाहिए था।

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मेरी नजर में अग्रज पत्रकार राम बहादुर राय उस हाहाकारी काल और उसके आगे-पीछे की राजनीति का वस्तुनिष्ठ और बहुत बेहतर विवेचन कर सकते हैं। मैं उनका नाम उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि और संघ के प्रति प्रतिबद्धता, जिसे उन्होंने कभी छुपाया नहीं, जानते हुए लिख रहा हूं। कारण, उनका पत्रकारीय लेखन आम तौर पर वस्तुनिष्ठ रहा है। काश, वे अपनी तमाम व्यस्तताओं से समय निकालकर इस महत्वपूर्ण काम को प्राथमिकता देते।

मित्रों को बिना मांगे सलाह – इस पुस्तक को खरीदकर पढ़ने में धन और समय जाया नहीं करें। हां, अगर भेंट में या मुफ्त में मिल जाती है तो पन्ने जरूर पलट सकते हैं।

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अमर उजाला, जनसत्ता समेत कई अख़बारों में वरिष्ठ पदों पर रहे वरिष्ठ पत्रकार देवप्रिय अवस्थी की फ़ेसबुक वॉल से.


हेमंत शर्मा-

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संतोष भारतीय हमारे जमाने के बडे पत्रकारो में शुमार हैं।
राजनीति में अमूमन जैसा दिखता है वैसा होता नहीं है।संतोष जी पत्रकारिता से आगे बढ़ उस दौर की राजनीति में भी ख़ासे सक्रिय रहे है।जिसे मैं राजनीति का सबसे हाहाकारी काल मानता हूँ । राजीव गॉधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चन्द्रशेखर, देवेगौडा और सोनिया गॉंधी के राजनैतिक फ़ैसलों के नेपथ्य में क्या था।इसकी अन्तरकथाए उनकी नई किताब ‘वीपी सिंह, चन्द्रशेखर, सोनिया गॉंधी और मैं’ विस्तार से है। किताब पर मेरी टिप्पणी इसबार के ‘इण्डिया टुडे’ में, इसे पढ़ें, फिर किताब भी।

‘वीपी सिंह, चन्द्रशेखर, सोनिया गॉंधी और मैं’

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मेकियावेली ने कहा था कि राजनीति में नैतिकता की कोई जगह नहीं होती।खुश्चेव मानते थे कि राजनेता दुनिया भर में एक जैसे होते है।वे वहॉं भी पुल बनाने का वायदा कर देते हैं जहॉं नदी न हो।जार्ज आरवेल का मानना था कि राजनीति की भाषा में झूठ सच की तरह और हत्यारा इज़्ज़तदार दिखता है।आज की राजनीति भी झूठ और आभासी चर्चाओं पर आधारित है।इसे आप उत्तर सच्चाई (पोस्ट ट्रुथ) का जमाना भी कह सकते हैं।

राजनीति की इसी उत्तर सच्चाई की परतें खोलती संतोष भारतीय की यह किताब सामने आई है ‘वीपी सिंह,चन्द्रशेखर, सोनिया गॉंधी और मैं’।ये किताब 1989 से 2009 के बीच भारतीय राजनीति के हाहाकारी कालखण्ड का उत्तर सच बताती है।हमें तमाम राजनैतिक षड्यन्त्रों के अंधी सुरंग से निकाल दबी छुपी सूचनाओं के हाईवे पर ले जाती है। ऐसे में यह ‘उत्तर सच’,’उत्तरोत्तर सच’ बनता जाता है।यह उस दौर की राजनैतिक कथाओं का खुलासा है जब संतोष भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान के आस पास या भीतर पाए जाते थे।उससे पहले उनकी गिनती देश के उन चुनिंदा पत्रकारों में होती थी जिसमें अपने समय और समाज को पढ़ने की कूबत थी।कबीर ऑखन की देखी को मानते थे, काग़द की लेखी को नही। संतोष भारतीय की यह किताब उनकी ऑंखन देखी और कानन सुनी है।

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यह किताब भारतीय राजनीति के उस ‘ग्रे एरिया’ पर रोशनी डालती है, 1989 से 2004 के बीच जो सबसे ज्यादा हलचल भरे थे।भारत के राजनैतिक इतिहास की कई ‘बीज प्रवृत्तियां‘ इसी दौर में पड़ी।आजादी के बाद भारतीय राजनीति के तीन प्रस्थान बिंदु, साल 1969 में कांग्रेस की टूट, 1977 का गैर कांग्रेसी प्रयोग और फिर 1989 में बोफोर्स तोप से निकली बवण्डरी राजनीति माने जा सकते है।राजनीति के इस युग में कुछ हैरान करने वाली साजिशें थीं, विरोधियों के बीच की रहस्यमय समझदारियां थी, कुछ अनसुलझे रहस्य थे, कुछ अनिर्मित पुल थे।किताब 1989 से 2004 तक के भारत की राजनीति की इन्हीं अनकही कहानियों का खुलासा करती है।

यह वह दौर था जब‘मण्डल’ का मुकाबला ‘कमण्डल’ कर रहा था।एक से समाज बंट रहा था, दूसरे से संप्रदाय।आर्थिक फिसलन बेकाबू थी।जातीय राजनीति की कटुता में समाज टूट रहा था। कुर्सी के लिए साम्प्रदायिक राजनीति पूरी नंगई पर थी।राजनैतिक समाज घोटालों में उलझा था।यह किताब इन्हीं रहस्यों से पर्दा उठाती है।

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शीर्ष पत्रकार और बाद में सांसद के नाते संतोष भारतीय इस इतिहास का हिस्सा रहे हैं। वे घटते इतिहास के चश्मदीद थे।कहीं-कहीं किरदार थे।सहभागी थे।कुछ अभियान में शामिल थे, तो कुछ के सूत्रधार थे।संतोष की इन भूमिकाओं की विलक्षणता ही इस किताब की प्रमाणिकता है। राजीव गांधी, वी.पी.सिंह, चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी और सोनिया गांधी उस कालखंड की राजनीति के केंद्र में थे ।इनकी राजनीति आपस में कितनी गुथीं थी। कैसे ये पांचों एक दूसरे के आमने सामने खड़े रह कर एक दूसरे से ताकत पाते थे और ज़ाहिर तौर पर एक दूसरे के मुख़ालिफ़ भी थे।इनके अन्तर्सम्बन्ध क्या थे? इस सवाल पर भी किताब में रौशनी डाली गई है।

यह किताब उन घटनाओं को भी बेपर्दा करती है जिसके कारण राजीव गांधी को सत्ता से बाहर जाना पड़ा।जिन वी.पी.सिंह की वजह से राजीव गांधी की सत्ता गयी, उन्ही वी.पी.सिंह ने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए कैसे एडी चोटी एककर घटनाओं का रुख मोड़ दिया। जिन चंद्रशेखर से मिलकर वी.पी.सिंह ने राजीव गांधी की सत्ता उखाड़ने की मुहिम छेड़ी, वही चंद्रशेखर वी.पी.सिंह की जड़ क्यों खोदने लगे? वी.पी.सिंह अटल बिहारी वाजपेयी से उनकी प्रधानमंत्री की पसंद जानने के बाद क्यों हो गए सोनिया गांधी के साथ? इस किताब में इस समूचे घटनाक्रम की पटकथा है जिसमें दृश्य साथ-साथ चलते हैं।

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‘वी.पी.सिंह, सोनिया गांधी और मैं’- में इतिहास की नीरसता नहीं है।कथा की रोचकता है। आप इसे ‘इतिहास कथा’ भी कह सकते हैं।किताब कहीं से पढ़ना शुरू करें,आप फिर लगातार पढ़ने लगेंगे क्योंकि किताब का हर पन्ना एक नई कहानी सुनाता है।

सैंतीस अध्यायों में बंटी किताब भविष्य के दो प्रधानमंत्रियों की अंतरंग मुलाकात से शुरू होकर बोफोर्स, अमिताभ बच्चन, रेखा, इलाहाबाद उपचुनाव, वी.पी.सिंह की बनती गिरती सरकार, चंद्रशेखर का प्रधानमंत्री बनना,
रामजन्मभूमि आंदोलन, आरक्षण की आग से लेकर सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री पद से इनकार की कथाओं को समेटे हुए है।किताब में इससे निकलती दर्जनों अर्न्तकथाएं भी हैं।

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किताब में लेखक का वी.पी.सिंह और चंद्रशेखर के प्रति आग्रह दिखता है।वी.पी.सिंह और चंद्रशेखर को लेकर किताब लगातार नरम है। दोनों की राजनैतिक नाकामियों, विफलताओं और राजनैतिक कमजोरियों नही उकेरा गया है।दोनो के राजनैतिक सिद्धान्त और व्यवहार के बीच की खाई को संतोष भारतीय इंगित नहीं करते।

संतोष जे.पी. आंदोलन की उपज रहे हैं। मैंने उन्हें जे.पी. के जुलूस में “जयप्रकाश का बिगुल बजा तो जाग उठी तरुणाई है” गाते सुना है। पर उन्होंने उस आंदोलन और उसके बाद की राजनीति पर ज्यादा रोशनी नहीं है।

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यह किताब भारतीय राजनीति के सबसे विवादास्पद युग का संपूर्ण विश्लेषण है जो रोचकता,बेबाक़ी और भाषा के प्रवाह से लबालब है।उत्तर मण्डल राजनीति की जटिलताओं को समझने और सर्वाधिक उथल-पुथल वाले उस दौर को जानने के लिए यह ज़रूरी किताब होगी।

टीवी9भारतवर्ष के निदेशक और वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा की फ़ेसबुक वॉल से.

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