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सुख-दुख

प्रतीक्षा पांडेय ने सौरभ द्विवेदी को जन्मदिन पर कुछ यूँ दी बधाई

Pratiksha Pandey-

“इस नए प्रोजेक्ट के जो हेड होने वाले हैं, वो कूल हैं, ट्रेडिशनल नहीं. आपको उनके साथ काम करने में मज़ा आएगा, ऐसा मेरा मानना है.”

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आज से 7 साल पहले कुलदीप और मेरे बीच फेसबुक चैट पर चल रहे संवाद की हाईलाइट यही बात थी. कुलदीप को मैं सिर्फ नाम से जानती थी और सौरभ द्विवेदी के होने का अता-पता भी नहीं था. लल्लनटॉप कोई नाम नहीं था, इस कथित कूल आदमी के दिमाग में चल रहा एक विचार था.

कालांतर में जाना गया कि कूल होने के नाम पर मुझे छला गया. गाड़ी रोककर सड़क के किनारे से गन्ने का जूस पीने और पिलाने वाला आदमी, सब्जी मंडी के सामने स्विफ्ट डिजायर रोककर हफ्ते भर की सब्जियां लेने वाला आदमी और उसी गाड़ी में लूप पर लता मंगेशकर के उस दौर का गाना लूप पर सुनते हुए जिस दौर में वो सुरीली से कर्कश हो गई थीं- ‘साजन मेरा उस पार है, मिलने को दिल बेकरार है’, वाला आदमी कूल तो नहीं ही हो सकता. घरेलू ही हो सकता है. वो भी मैक्स प्रो.

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जब आपको कोई नौकरी खुद ऑफर करता है, आप कुछ चौड़े से हो जाते हैं. लेकिन जब आपकी पहली कॉपी एडिट होती है, ईगो के गुब्बारे की हवा निकलती जाती है. “कानपुर वाले ‘घास’ को ‘घांस’ कहते तो हैं, लिखते भी हैं क्या?” जॉइनिंग के अगले दिन मेरा लिखा एडिट टेबल पर जा चुका था और सौरभ द्विवेदी की सरपट दौड़ती उंगलियो का उत्साह उनके चहरे पर नहीं दिखता था. मुझे लगा था कि इस आदमी के साथ नहीं कट पाएगा, नेट का अगला अटेम्प्ट भर देती हूं.

मगर मैंने नेट का कोई अटेम्प्ट नहीं भरा. बार बार सोचा, कल तक सोचा, लेकिन भरा नहीं. हालांकि वो मेरे इशू हैं और बात मेरी नहीं है.

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हमारे फील्ड में हमारी चौंकने की आदत ख़त्म सी हो जाती है. कोविड से हुई त्रासद मौतों के दुख और जिससे प्रेम किया उससे विवाह करने के सुख के बीच रेंज ऑफ़ इमोशन्स महसूस करने की शक्ति जब भी ख़त्म सी होने लगी, मैंने सौरभ द्विवेदी को पढ़ा. जिस व्यक्ति की पहचान आज उसकी पत्रकारिता, गमछे और कैमरा प्रेजेंस है, उसकी संगत में रहकर आप जान पाते हैं कि लिखा हुआ शब्द कितना अभिभूत करने वाला हो सकता है.

आप लेखक सौरभ द्विवेदी से सीखते हैं कि कुछ भी लिखा जा सकता है. और संपादक सौरभ द्विवेदी से सीखते हैं कि लिखा हुआ कुछ भी मिटाया जा सकता है. अत्यधिक प्रेम में लिखना और अपने लिखे से अत्यधिक प्रेम न करना हमें ज़मीन से जुड़ा रखता है. हम खुद को कितना भी काबिल मानें, संपादक के सामने हमारा लिखा हुआ हमें वैसे ही समर्पित कर देना चाहिए जैसे आप ऑपरेशन टेबल पर सर्जन को करते हैं. इन्फेक्टेड अंगों को काटना आपको ‘अपाहिज’ नहीं, स्वस्थ बनाता है. सौरभ सर एक ऐसे ही सर्जन हैं.

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मैंने जो कुछ पाया, कमाया, सब उनकी ही बदौलत हुआ, ये बात कहने की कोई ज़रुरत नहीं है. लेकिन उससे भी बड़ी बात कि जो कुछ सीखा वो भी उनसे ही सीखा– लिखना, पढ़ना, समझना, उसे आइडियाज में तब्दील करना. मैंने ही क्या, हम सबने सीखा कि किस तरह सिर्फ लिख लेना काफ़ी नहीं है. उसे दुनिया तक पहुंचना ज़रूरी है, इसलिए नहीं कि आप देश में नंबर एक बन सकें, बल्कि इसलिए जो जानना लोग डिजर्व करते हैं, वो वे जान सकें.

कई बार मैंने उन्हें औसत जी चीजों की तारीफ़ करते देखा. जैसे कोई स्लैम पोएट्री का वीडियो या फिर किसी गीतकार का कोई औसत सा गाना जिससे बेहतर बहुत कुछ लिखा जा सकता है. हम सबके अंदर नया सीखने की इतनी ही इच्छा होनी चाहिए. और अभिभूत होने के लिए आत्मा में इतनी ही जगह रखनी चाहिए. कि हमें प्रसन्न करने लिए छोटे सुख ही काफी हों. जैसे गिटार पर गया एक आसान सा गीत या CR पार्क से मंगवाकर खाई गईं बंगाली मिठाइयां.

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ऑफिस परिसर की परिधि पर बार-बार साथ चक्कर काटते हुए मैंने जाना कि सौरभ द्विवेदी अपनी सुनाई गई कहानियों के तमाम किरदार हैं. कभी प्रेम में पड़ी महिला, कभी टीनेज लड़का, कभी एक अपराधी गैंग का सरगना, कभी एक वृद्ध पुरुष.

ये वृद्ध पुरुष कहानियां सुनाते हुए एक बरगद बन जाए और इसकी जड़ों से धरती से जितना लिया, उससे ज्यादा उसे लौटा सकें, ऐसा होना चाहिए. और ऐसा ही होगा. जन्मदिन की शुभकामनाएं, Saurabh Dwivedi.

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