रवि प्रकाश-
आज सुबह साढ़े आठ बजे उनका मैसेज आया, तो नहीं पता था यह उनका आख़िरी संदेश है। दोपहर बाद पता चला कि हमारे ‘संपादक जी’ श्री शैलेंद्र दीक्षित अब इस दुनिया में नहीं रहे।

वे सुबह एकदम ठीक थे। फिर अचानक उन्हें दिल का दौरा पड़ा। डॉक्टर कुछ कर पाते, इससे पहले ही वे परलोक सिधार गए। हमसब दुःखी हैं भैया। ईश्वर आपको अपने चरणों में स्थान दें। मेरी अश्रुपूरित श्रद्धांजलि। अंतिम चरण स्पर्श।
ज्ञानवर्द्धन मिश्र-
शैलेन्द्र दीक्षित का जाना एक पत्रकार भर का जाना नहीं है। संपादकों की खत्म होती पीढ़ी के मजबूत स्तम्भ थे। वे कानपुर के रहने वाले थे। 2000 में जब पटना से जागरण का प्रकाशन शुरू हुआ तो संपादक के रूप में आये। फिर इस कदर रमे कि किसी पटनिया या किसी बिहारी से कम नहीं थे।
जो काम करते तो डूबकर करते। छठ के कवरेज में टीम से साथ निकले तो लोगों की आस्था देख खुद इतना डूब गए कि स्वयं छठ करने लगे, बिना औपचारिक प्रपंच के। फिर कोई डेढ़ दशक तक यहां की पत्रकारिता के आसमान में छाए रहे।
मेरी कप्तानी में हिंदुस्तान का धनबाद प्रकाशन जब शुरू हुआ तो एक मोर्चा उनकी जागरण की टीम का भी था। लेकिन हिंदुस्तान की टीम भारी पड़ी। एक मुलाकात में उन्होंने बस इतना ही कहा था -मान गये आपको।
कम संसाधन में बेहतर अखबार निकाल लेने और खबरों को सूंघने की उनमें गजब की क्षमता थी। अमूमन अपनी टीम के हर सदस्य की नब्ज पढ़ते और जिसमें जो क्षमता होती अखबार के हित में उसका बेहतर इस्तेमाल करते।
टीम लीडर की गजब की क्षमता थी। अखबार में काम करने वालों को एक परिवार के रूप में देखे, किसी की शादी हो या निधन अभिभावक की भूमिका में दिखते। बिहार, झारखंड से लेकर बंगाल तक प्रभाव फैलाया। हमेशा नई पीढ़ी केलिए अवसर देते रास्ता निकालते।
पटना आने के बाद ही उन्होंने दर्जनों लोगों को संपादक बनाया। उनका जाना पत्रकारिता के एक अभिभावक का चला जाना है।
ज्ञानेश्वर वात्स्यायन-
यह लिख पाना भी मेरे लिए कठिन हो रहा है। क्या लिखें, समझ नहीं पा रहा। रिपोर्टर से मुझे मीडिया मैनेजमेंट गुरु बनाने वाले शैलेंद्र दीक्षित जी चले गए।
पटना से बाहर आया हूं। जैसे ही दूसरे शहर में लैंड किया और मोबाइल खोला, यह मनहूस खबर आ गई।
आगे कुछ भी लिख पाना अभी मेरे लिए संभव नहीं। प्रभु, उन्हें बड़े प्यार से अपने पास रखना, धरती पर आपके दूत के रुप में उन्होंने जितनों की जिंदगी संवारी है, वह सूचीबद्ध करना भी बड़ा मुश्किल है। ओम शांति।
एक प्रसंग याद करते शून्य हो जाता हूं . सर का पटना में फिर से पासपोर्ट बन रहा था . मालिक सुनील गुप्ता जी शैलेंद्र सर के साथ हमें और आनंद त्रिपाठी जी व रामाज्ञा तिवारी जी को कुछ दिनों की छुट्टियां मनाने विदेश भेज रहे थे . दैनिक जागरण की ओर से दो वर्षों के भीतर यह मेरी दूसरी विदेश यात्रा थी . सो, मेरे पास पासपोर्ट पहले से था . सर भी कभी पहले प्रधान मंत्री राजीव गांधी के साथ रुस गए थे. लेकिन वो पासपोर्ट बाद में रिन्यूअल नहीं हुआ था .
खैर, नए पासपोर्ट बनाने को दीक्षित सर पटना में पासपोर्ट कार्यालय के भीतर गए . किसी कॉलम में उस एक व्यक्ति का कॉन्टैक्ट डिटेल्स भरना था, जिसे किसी इमरजेंसी के वक़्त सबसे पहले इन्फॉर्म किया जाना होता है . सर ने क्या सोचा, पता नहीं, लेकिन वे मेरा नाम लिख कर आ गए थे . और क्या लिखें, सर चले गए, बचा ही क्या रहा बताने को .