पत्रकारिता की राह पर शंभूनाथ शुक्ला का सफर… कुछ यादें, कुछ बातें

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विहिप के साथ-साथ अखबार भी अयोध्या प्रकरण में एक पक्षकार जैसा ही अभिनय कर रहे थे

वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ल

धार्मिक आधार पर कोई राष्ट्र नहीं बना करते और बनेंगे तो स्थायी नहीं रह सकते। इसीलिए पाकिस्तान के विपरीत भारत को हमारे नेताओं ने एक सेकुलर, उदार और हर गरीब-अमीर को साथ लेकर चलने वाला लोकतांत्रिक राष्ट्र बनाया। इसके संविधान में धार्मिक आधार पर कोई भेदभाव नहीं करने तथा कमजोर वर्गों को आगे लाने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई थी।

इसीलिए जब भी कभी धार्मिक आधार पर अलग राष्ट्र बनने की मांग उठी भारत के बहुसंख्य लोगों ने नकार दिया। अगर इस्लाम एक राष्ट्र होता तो पूर्वी पाकिस्तान बांग्ला देश नहीं बनता और न ही पाकिस्तान के अंदर पख्तूनों को अलग-थलग होना पड़ता। पैन इस्लाम का नारा कभी सफल नहीं हो सका। इंडोनेशिया और मलयेशिया का सांस्कृतिक धरातल वह नहीं है जो पाकिस्तान का है अथवा खाड़ी के मुल्कों का। और न ही इनमें परस्पर कोई एकता है। जातीय अस्मिता ही असल अस्मिता है। हम हिंदी भाषी पाकिस्तान को अपना मान लेंगे और पश्चिम बंगाल के लोग बांग्लादेसी लोगों से अपनापा महसूस करते हैं। खुद पाकिस्तान के अंदर सिंध एक अलग अस्मिता है और पख्तून अलग। हालांकि दक्षिणपंथी लोग धार्मिक अस्मिता और धार्मिक पहचान की बात करते हैं लेकिन सिवाय धर्मस्थल समान होने के उनमें परस्पर कोई एकता नहीं होती।

इसीलिए अलग सिख राष्ट्र की मांग करने वाले बुरी तरह फेल हुए। कुछ दिन जरूर यह नारा चला लेकिन पूरा देश क्या खुद पंजाब में ही इस नारे को कोई खास सपोर्ट नहीं मिला। सिख खाड़कुओं ने 1984 के बाद आतंकवाद के नाम पर खूब उत्पात मचाया। लेकिन जन समर्थन नहीं मिलने के कारण वे अलग-थलग पड़ गए। सिखों ने भारतीय मुख्य धारा में ही रहना पसंद किया। किसी कौम के साथ दोयम दरजे का व्यवहार हो तो वह कुछ दिनों के लिए ‘भकुर’ सकता है लेकिन अपने मुख्य समाज से अलग नहीं होगा। यही हुआ। पंजाब में पंजाबी एक पहचान है लेकिन उसे सिख और हिंदू में बाटना सभी को नागवार लगा और जल्द ही यह लड़ाई दम तोड़ गई।

लेकिन दक्षिणपंथी ताकतें धर्म को ही अपनी अस्मिता का आधार बनाकर परस्पर लड़ाया करती हैं। और शासक जब-जब अपनी जनप्रियता खोता है वह कट्टर और धर्म का पाबंद बन जाता है। हम इतिहास में ऐसे नमूने देख सकते हैं। अकबर और औरंगजेब में यही फर्क था। वर्ना दोनों ही मुगल थे और बाबरवंशी थे। मगर एक ने उदारता की परंपरा रखी और दूसरा गद्दी पाने के लिए आक्रामक हो उठा। नतीजा यह हुआ कि कट्टर मुसलमानों की निगाह में वो आलमगीर औरंगजेब हो गया और हिंदुओं की निगाह में वह क्रूर शासक। भरतपुर के गोकुल जाट ने औरंगजेब की कट्टर धार्मिक नीतियों को ही अपने विद्रोह का आधार बनाया था। एक तरीके से दोनों ही धर्म का इस्तेमाल कर रहे थे पर जनता बागी के साथ होती है और गोकुल जाट पूरे बृज क्षेत्र की जनता का हीरो बन गया।

राजीव गांधी के शासनकाल में भी धार्मिक कट्टरपंथी सिर उठा रहे थे। चूंकि राजीव गांधी पेशेवर राजनेता नहीं थे और न वे राजनय समझते थे न कूटनीति इसलिए उन सारे लोगों ने उन्हें घेर लिया जो येन केन प्रकारेण अपना एजंडा पूरा करना चाहते थे। इसमें कट्टर हिंदू भी थे, मुस्लिम और सिख भी। यहां तक कि खुद उनके ही दल में ऐसे लोग भरे हुए थे और राजीव गांधी उन्हें छांट नहीं पा रहे थे। यहां कहा जा सकता है कि राजीव गांधी को अपनी मां या नाना के राजनीतिक गुण परंपरा से नहीं मिले। उनके लिए बेहतर यही होता कि वे जहाज ही उड़ाते। नतीजा जल्द ही आया। शाहबानो के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला रोकने संबंधी कानून बनाने तथा अयोध्या में राम जन्म भूमि का ताला खोले जाने के रूप में।

1984 की सरदी भी खूब ठिठुरन लेकर आई। लेकिन शीतलहर के बावजूद दिल्ली समेत समूचे उत्तर भारत का मौसम बहुत गरम गर्म था। विश्व हिंदू परिषद के नारों से दीवालें पटी पड़ी थीं। ‘जहां हिंदू घटा, वहां देश कटा।’ जाहिर है यह नारा कश्मीर की घटनाओं को लेकर था। कश्मीर घाटी से पंडित भगाए जा रहे थे। दूसरा नारा था ‘आओ हिंदुओं बढ़कर बोलो, राम जन्मभूमि का ताला खोलो।’ इन दोनों ही नारों में एक आतंक था। एक में घटत का आतंक और दूसरे में बढ़त का। मजा यह था कि एक ही संगठन इन दोनों ही नारों को अपने पक्ष में कर रहा था। यह वह दौर था जब एक तरफ सिख अपनी पहचान की बात कर रहे थे और मुसलमान अपनी तथा हिंदू भी विहिप के कारण अपनी। बाकी तो ठीक पर हिंदुओं की अपनी पहचान क्या है, यह किसी को नहीं पता था। राम जन्मभूमि को लेकर न तो सारे हिंदू एक थे न बाबरी मस्जिद के वजूद को लेकर सारे मुसलमान। इस बीच सिख पीछे हो गए थे।

शायद १९८५ के पहले अधिकतर लोगों को यह नहीं पता था कि रामजन्म भूमि किसी ताले में बंद है क्योंकि सबै भूमि गोपाल की तर्ज पर औसत हिंदू यह मानकर चलता था कि रामजी की मर्जी कहां पैदा होंगे यह कोई विहिप थोड़े ही तय करेगा। लेकिन कुछ लोग कटुता भर रहे थे। इनमें से कुछ वे थे जो किसी कारण से राजीव गांधी से नाराज थे और कुछ वे थे जो उन्हीं कारणों से राजीव गांधी से अथाह खुश थे और वे चाहते थे कि इस समय जो चाहो वह करवा लो। यह वही दौर था जब शिव सेना और विहिप का मकसद बस किसी तरह अयोध्या में राम जन्म भूमि का ताला खुलवाना था। अयोध्या एक नया पर्यटन स्थल विकसित हो रहा था। सरयू के घाट, आलीशान धर्मशालाएं और फैजाबाद में होटल तथा उसी लिहाज से प्रशासन अपने वास्ते सरकिट हाउस का नवीकरण भी करवा रहा था।

सब का टारगेट अयोध्या की वह इमारत थी जो अपनी बुलंदी व स्थापत्य शैली का बेजोड़ नमूना थी। उसका नाम था बाबरी मस्जिद जिसे कुछ दिनों पहले तक मस्जिदे जन्म स्थान कहा जाता था और 1853 तक जिसके निर्माण और जिस पर अधिपत्य को लेकर कभी कोई विवाद नहीं हुआ। इस मस्जिद पर हिंदू दावेदारी अवध के शासक वाजिदअली शाह के वक्त में शुरू हुई जब निर्मोही अखाड़े ने इस मस्जिद में पूजा अर्चना करने तथा मंदिर बनाने की अनुमति मांगी। करीब दो साल तक यहां इसे लेकर झगड़े चलते रहे बाद में प्रशासन ने मंदिर बनाने या पूजा अर्चना करने की अनुमति देने से मना कर दिया। लेकिन फैजाबाद के गजेटियर में लिखा है कि गदर के बाद 1859 में ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों ने मस्जिद के बाहरी प्रांगण को मुसलमानों के लिए प्रतिबंधित कर दिया तथा हिंदुओं को यहां चबूतरा बनाकर पूजा करने की अनुमति दे दी। अलबत्ता मस्जिद का भीतरी प्रांगण मुसलमानों के लिए खुला रहा और कह दिया गया कि वे अंदर नमाज अता कर सकते हैं।

हिंदुओं ने मस्जिद के बाहरी प्रांगण में 17 बाई 21 फिट का एक चबूतरा बनवा लिया। इसके बाद 1879 में निर्मोही अखाड़े के बाबा राघोदास ने फैजाबाद के सब जज पंडित हरीकिशन के यहां एक सूट दाखिल कर कहा कि उन्हें इस चबूतरे में मंदिर बनाने की अनुमति दी जाए। पर यह सूट खारिज हो गया। फैजाबाद के डिस्ट्रिक्ट जज कर्नल जेईए चेंबर के यहां एक दूसरी अपील दायर हुई लेकिन चेंबर ने 17 मार्च 1886 को इस स्थान का दौरा किया और अपील यह कहते हुए खारिज कर दी कि मस्जिद निर्माण को अब 358 साल हो चुके हैं इसलिए अब इस मुकदमे का कोई मतलब नहीं है। 25 मई 1886को फिर एक अपील अवध के न्यायिक आयुक्त डब्लू यंग के यहां दाखिल हुई लेकिन वह भी रद्द हो गई। बैरागियों की पहली कोशिश का इस तरह पटाक्षेप हो गया।

1934 के दंगों के दौरान मस्जिद के परकोटे और एक गुंबद को दंगाइयों ने तोड़ डाला जिसे बाद में ब्रिटिश सरकार ने बनवा दिया। 22 दिसंबर 1949 को आधी रात के वक्त जब मस्जिद में तैनात गार्ड सो रहे थे तभी उसके भीतर राम सीता की मूर्तियां रखवा दी गईं। सिपाही माता प्रसाद ने मस्जिद में अचानक मूर्तियां प्रकट होने की सूचना थाने भिजवाई। 23 दिसंबर को अयोध्या थाने के एक सब इंस्पेक्टर राम दुबे ने एफआईआर लिखवाई कि 50-60 लोग मस्जिद के गेट पर लगे ताले को तोड़कर अंदर दाखिल हुए और वहां श्री भगवान को स्थापित कर दिया तथा अंदर व बाहर गेरुए रंग से सीताराम सीताराम लिख दिया। इसके बाद 5-6000 लोगों की भीड़ भजन-कीर्तन करते हुए मस्जिद के भीतर घुसने की कोशिश कर रही थी पर उन्हें भगा दिया गया लेकिन अगले दिन फिर हिंदुओं की भारी भीड़ ने मस्जिद के भीतर घुसने की कोशिश की।

फैजाबाद के डीएम केके नैयर ने शासन को लिखा कि हिंदुओं की भारी भीड़ ने पुलिस वालों को खदेड़ दिया और मस्जिद का ताला तोड़कर अंदर घुस गए। हम सब अफसरों और पुलिस वालों ने किसी तरह उन्हें बाहर निकाला। पर अंदर घुसे हथियारबंद साधुओं से निपटने में हमें भारी मुश्किल आ रही है। अलबत्ता गेट महफूज है और हमने उसमें बाहर से ताला लगा दिया है तथा वहां फोर्स भी बढ़ा दी है। प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के पास जैसे ही यह सूचना पहुंची उन्होंने यूपी के मुख्यमंत्री गोबिंदवल्लभ पंत को अयोध्या में फौरन कार्रवाई करने तथा साधुओं को मस्जिद परिसर से बाहर करने का निर्देश दिया। पंत जी के आदेश पर मुख्य सचिव भगवान सहाय और पुलिस महानिरीक्षक वीएन लाहिड़ी मस्जिद से साधुओं को बाहर करने के लिए तत्काल अयोध्या गए। लेकिन डीएम नैयर इस आदेश को मानने के लिए राजी नहीं हुए उन्होंने आशंका जताई कि अगर ऐसा किया गया तो हिंदू उत्तेजित हो जाएंगे।

इसके बाद का किस्सा विश्व हिंदू परिषद का है। हालांकि 1949 तक अयोध्या के इस विवाद में राजनीतिक दलों की दखलंदाजी नहीं थी और न ही इस प्रकरण में अयोध्या के बाहर के लोगों की कोई रुचि थी। अब विहिप के साथ-साथ अखबार भी इस प्रकरण में एक पक्षकार जैसा ही अभिनय कर रहे थे। बाद में प्रेस कौंसिल की जांच में यह साबित भी हुआ। लेकिन यह अभिनय ज्यादातर क्षेत्रीय अखबारों और इतिहास ज्ञान से अनभिज्ञ उनके तथाकथित संपादकों ने किया।

लेखक शंभूनाथ शुक्ला वरिष्ठ पत्रकार हैं. जनसत्ता, अमर उजाला, दैनिक जागरण समेत कई अखबारों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं. पत्रकारीय जीवन का अपना यह संस्मरण उन्होंने अपने फेसबुक वॉल पर प्रकाशित किया है.



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