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सुख-दुख

पत्रकारिता की राह पर शंभूनाथ शुक्ला का सफर… कुछ यादें, कुछ बातें

धक्का देने पर राजीव शुक्ला ने तब जवाब दिया- ‘प्रभाष जोशी से पूछो’

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वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ल

28 मई सन् 1983, दिन के 11 बज रहे थे। दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग स्थित एक्सप्रेस बिल्डिंग की बेसमेंट में कई लोग एक कड़ी परीक्षा से रूबरू थे। कोई 50 से ऊपर सवालों वाला परचा सामने था। इसी में एक सवाल था कि इस पैरे की सबिंग करिए। पैरे में लिखा था- ‘जयपुर के पास एक ढाणी में ……….।’ अब हमने कस्बा सुना था, गांव सुना था, हम पुरवा, खेड़ा, मजरा और पिंड भी जानते थे पर ढाणी पहली बार सुन रहे थे। अपने आगे बैठे राजीव शुक्ला की कुर्सी को मैंने पीछे से धक्का दिया और कहा ‘राजीव ये ढाणी क्या है?’ राजीव ने जवाब दिया कि ‘प्रभाष जोशी से पूछो।’

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तभी अकस्मात एक सौम्य से सज्जन आँखों पर मोटा चश्मा लगाए प्रकट हुए और पास आकर बोले- ‘मैं प्रभाष जोशी हूं।’ मैं हड़बड़ा कर अपनी सीट से खड़ा हो गया और कहा- ‘भाई साहब मैं शंभूनाथ कानपुर से आया हूं।’ वे बोले- ‘पता है।’ और फिर ढाणी के मायने बताए लेकिन मैं इंडियन एक्सप्रेस के दिल्ली संस्करण के तत्कालीन रेजीडेंट एडिटर प्रभाष जोशी की सादगी को चकित सा देखता रहा। वे चले भी गए लेकिन मैं ढाणी का अर्थ समझ नहीं सका। और जस का तस ढाणी ही लिख के वापस कानपुर आ गया।

15 दिन भी नहीं बीते होंगे कि इंटरव्यू का तार आ गया। अबकी कुछ लोग पिछले वाले दिखे और सब के सब घबराए से थे क्योंकि जो लोग इंटरव्यू लेने आए थे वे सब अंग्रेजी के महारथी पत्रकार थे। जार्ज वर्गीज, लक्ष्मीकांत जैन, राजगोपाल और कोई देसाई तथा खुद प्रभाष जोशी। सब डर रहे थे कि कैसे इनके सामने अपनी बात कह पाएंगे। राजीव का कहना था कि ‘चला जाए, कोई फायदा नहीं हम इस इंटरव्यू को पास नहीं कर पाएंगे।’ लेकिन प्रभाष जोशी के पीए रामबाबू ने कहा कि ‘आने-जाने का किराया लेना है तो इंटरव्यू तो फेस करना ही पड़ेगा।’

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अपना नंबर आया। भीतर घुसा तो वहां का माहौल तनिक भी बोझिल या अंग्रेजीदां नहीं लगा। मध्य उत्तर प्रदेश के मेरे शोध पर ही सवाल पूछे गए और सबने हिंदी में ही पूछे। मैने राहत की सांस ली और लौट आया। एक दिन प्रभाष जी का पत्र आया कि आपका चयन हो गया है और 20 जुलाई तक इंडियन एक्सप्रेस के शीघ्र निकलने वाले हिंदी अखबार जनसत्ता में उप संपादक के पद पर आकर ज्वाइन कर लें। प्रभाष जी का यह पत्र अविस्मरणीय था और आज भी मेरे पास सुरक्षित है। पत्र की भाषा में इतनी रवानगी और ताजगी थी कि बस उड़कर दिल्ली चला जाऊँ।

19 जुलाई को दैनिक जागरण के प्रबंध संपादक दिवंगत पूर्णचंद्र गुप्त को त्यागपत्र लिखा और रजिस्टर्ड डाक से भेज दिया। तथा 20 की सुबह मैं गोमती एक्सप्रेस पकड़कर दिल्ली आ गया। नई दिल्ली स्टेशन पर ही राजीव शुक्ला मिल गए। वे भी उसी ट्रेन से आए थे। हम वहां से आटो पकड़कर पहुंच गए एक्सप्रेस बिल्डंग। वहां पर प्रभाष जी ने बताया कि अभी आफिस बन नहीं पाया है इसलिए अब एक अगस्त को आना। हम सन्न रह गए। मैं तो बाकायदा इस्तीफा देकर आया था। अजीब संकट था अगर अखबार नहीं निकाला गया तो पुरानी नौकरी भी गई। राजीव शुक्ला ने कहा कि इस्तीफा देना ही नहीं था। मैं तो निगम साहब को बताकर आया हूं कि अगर नहीं आया तो इस्तीफा बाद में भेज दूंगा। तुम तो इस्तीफा दे आए हो और अब 19 दिन के काम का पैसा भी नहीं मिलेगा। अब पछतावा होने लगा लेकिन हो भी क्या सकता था। हम उस रोज सरदार पटेल रोड स्थित यूपी भवन में रुके। वह राजीव ने ही अपने किसी परिचित विधायक के ज़रिये बुक कराया था। तब यूपी भवन नया-नया बना था। गजब की बिल्डिंग थी। शाम को अपना-अपना सामान संतोष तिवारी के यहां रखा और अगले रोज पुरी एक्सप्रेस पकड़कर कानपुर पहुंच गए। पिता जी ने कह दिया कि अब भुगतो तुम दरअसल कुछ कर ही नहीं सकते। घर में किसी ने भी मेरे पछतावे को नहीं महसूस किया और सब ने मुझसे मुंह फुला लिया।

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ये दस दिन किस तरह कटे मुझे ही मालूम है। पहली बार पता चला कि वाकई दस दिन में दुनिया उलट-पुलट हो जाती है। लेकिन इस बार एक अगस्त को नहीं दो अगस्त को मैं आया। इस बार दफ्तर सुसज्जित था। हमारे बैठने की व्यवस्था हो गई थी। पर बैठना निठल्ला ही था क्योंकि अखबार कब निकलेगा, यह किसी को नहीं पता था।

दिल्ली में ठहरना और भी कठिन था। एकाध दिन तो संतोष तिवारी के यहां रुक सकते थे लेकिन फिर राजीव ने ही मद्रास होटल में रहने की व्यवस्था की और हम पूरा हफ्ता वहीं रुके। पर कनाट प्लेस के इस होटल में तो दूर आसपास भी कहीं अरहर की दाल की व्यवस्था नहीं थी ऊपर से आफिस में दिन भर प्रभाष जी का भाषण सुनना पड़ता था और उनकी अटपटी हिंदी भी। जनसत्ता में जिन लोगों ने ज्वाइन किया था उनमें हम यानी मैं और राजीव ही सबसे बडे और सर्वाधिक प्रसार वाले अखबार से आए थे। ऐसे में प्रभाष जी की चोखी हिंदी सुनना बहुत कष्टकर लगता था। वे हम को अपन बोलते और तमाम ऐसे शब्द भी बोलते जो हमारे लिए असहनीय थे। मसलन वे चौधरी को चोधरी बोलते और ऊपर से तुर्रा यह कि वह यह भी कहते- ‘जिस तरह मैं बोलता हूं उस तरह तू लिख।’ वे हर बार मालवा की बोली को ही हिंदी का उत्तम नमूना बताते। अब प्रभाष जी की यह अहमन्यता हमें बहुत अखरती। हम जिस बोली वाले इलाके से आए थे वहां हिंदी सबसे अच्छी बोली जाने का हमें गुरूर था और इस बात पर भी कि हमारी बोली साहित्यिक रूप से सबसे समृद्ध है। भले उत्तर प्रदेश में भोजपुरी, बुंदेली और बृज भी बोली जाती हो लेकिन रामचरित मानस और पद्मावत जैसे साहित्यिक ग्रंथ हमारी अवधी बोली में ही लिखे गए। इसलिए हमने तय कर लिया कि हम प्रभाष जी की इस मालवी बोली के अर्दब में नहीं आने वाले अत: अब हम बस शनिवार को कानपुर चले जाएंगे और लौटेंगे नहीं।

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हम शाम को वहां से निकल लिए और फिर सोमवार को लौटे ही नहीं। एक हफ्ते बाद प्रभाष जी ने अपने किसी परिचित के माध्यम से हम तक सूचना पहुंचाई कि हम क्यों नहीं आ रहे हैं? तब पता चला कि कानपुर में प्रभाष जी की ससुराल है। हम फिर वापस दिल्ली आए और प्रभाष जी से मिले। उन्होंने पूछा कि क्या परेशानी है? हमने कहा कि यहां अरहर की दाल नहीं मिलती। बोले ठीक है मैं इंतजाम करवा दूंगा और कुछ? अब क्या कहते कि भाई साहब हमें आपकी बोली नहीं अच्छी लगती! सो चुप साध गए। शाम को प्रभाष जी ने बुलाया और कहा कि राजघाट के गेस्ट हाउस में चले जाओ। वहीं कमरा मिल जाएगा और खाने में अरहर की दाल भी मिलेगी। यह तो लाजवाब व्यवस्था थी। कमरे के लिए हमें पांच रुपये फी बेड देना पड़ता और साढ़े तीन रुपये में जो भोजन मिलता उसमें अरहर की दाल, रोटी, चावल, सब्जी और एक मीठा भी होता। हम करीब महीने भर वहीं रहे। बल्कि हमारी इच्छा तो वहीं रहने की थी। क्योंकि जो भी नई भरती आती हम उसे वहीं रुकवा लेते। पहले तो सत्यप्रकाश त्रिपाठी आए फिर परमानंद पांडेय। यहां से दफ्तर भी इतना करीब था कि हम टहलते हुए चले जाते। लेकिन एक दिन हमें कह दिया गया कि अब खाली करना पड़ेगा। सत्यप्रकाश और परमानंद चले गए माडल टाउन और मैं व राजीव आ गए लोदी कालोनी। जहां हमारे एक सहभागी कुमार आनंद टिकमाणी भी थे। लेकिन तीन बेड रूम का वह आलीशान फ्लैट धीरे-धीरे धर्मशाला बन गया। उसमें कभी फक्कड़ की तरह आलोक तोमर तो कभी उमेश जोशी आ धमकते। एक दिन हमने इस धर्मशाला को छोड़ लेने का मन बना लिया।

आगे है…

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‘हिंदुस्तान’ अखबार में संपादक महज एक दिखाऊ पोस्ट थी

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