देश के पहले आर्थिक समाचार पत्र ‘व्यापार’ के संपादक शशिकांत वसानी हमारे बीच नहीं रहे। यह समाचार आज मुझे एक गुजराती अखबार कमोडिटी वर्ल्ड में छपी न्यूज से पता चला। मुंबई में रहते हुए 22 अक्टूबर 2017 को उन्होंने अंतिम सांस ली और उनकी बेटी अल्पा ने उन्हें मुखाग्नि दी। आर्थिक पत्रकार बनने में मैंने उनसे ही अपने जीवन में बहुत कुछ नहीं सब कुछ सीखा। एक कर्मचारी से ज्यादा उन्होने बेटे सरीखा रखते हुए एक-एक शब्द के बारे में समझाया, बनाया और गढ़ा।
मुझे भरोसा ही नहीं हुआ कि वसानी भाई चले गए इतनी जल्दी। 88 साल की उम्र में भी वे युवाओं को कार्य करने में पीछे छोड़ देते थे, रात दिन लिखना और पढ़ना और जो पूछने जाए उसे बडे प्यार से सीखाना एवं आवभगत करने में भी खूब आगे। उनकी याद खूब आ रही है। मैं महान आर्थिक पत्रकार शशिकांत वसानी जी को हार्दिक श्रद्धांजलि देता हूं और नमन करता हूं। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें और हम सब पर उनका आशीर्वाद कायम रहे। वसानी जी का एक इंटरव्यू मुझे लेने का मौका मिला था जब भोपाल से प्रकाशित मीडिया विमर्श का अंक आया था गुजराती पत्रकारिता का भविष्य और मैं उस अंक का अतिथि संपादक था। मैने उनसे यह बातचीत दिसंबर 2014 में की थी। पेश है वह बातचीत:
-आप पहली पीढ़ी के आर्थिक पत्रकार हैं, कैसा लगता है यह महसूस करते हुए।
-भारत में आर्थिक पत्रकारिता के जनक हरजी भाई गिलानी हैं। वर्ष 1959 में गिलानी भाई को मन में यह विचार आया कि आर्थिक गतिविधियों की जानकारी लोगों तक पहुंचानी चाहिए जिससे लोगों को कारोबारी फैसलों से लेकर आर्थिक मोर्चे पर हो रही हलचल की जानकारी मिल सके। लोग आर्थिक मंथन के लिए एक बेहतर स्त्रोत पा सके। स्वतंत्रता के बाद ‘व्यापार’ पहला आर्थिक अखबार है। इस अखबार के बाद ही देश में अंग्रेजी, हिंदी एवं अन्य भाषाओं में आर्थिक समाचारों के अखबार आए। हालांकि, उस समय आर्थिक विकास कम था और समाचारों का प्रवाह नहीं था। खबरें कम मिल पाती थी, समाचार जुटाना भी काफी कठिन था। हालांकि, ‘व्यापार’ शुरुआत में जन्मभूमि समूह के अखबार ‘प्रवासी’ के सप्लीमेंट के रुप में निकला। जब इसकी मांग बढ़ी तो इसे स्वतंत्र अखबार के रुप में साप्ताहिक शुरु किया गया जो बाद में सप्ताह में दो बार बुधवार एवं शनिवार को निकलने लगा एवं अब तक इसी रुप में प्रकाशित हो रहा है।
-‘व्यापार’ में आपकी पारी कैसी रही।
-मैं ‘व्यापार’ से 1964 में जुड़ा और इस अखबार में तकरीबन 35 साल रहा। शुरुआत मेरी उप-संपादक के रुप में हुई। वर्ष 1972 में मैं सहायक संपादक बना और 1976 में गिलानी भाई सेवानिवृत्त हुए तो ‘व्यापार’ का संपादक बनने का गौरव मुझे मिला। हालांकि, उस समय मेरे मन में एक डर था कि देश के पहले आर्थिक अखबार को चलाने के लिए बड़ी हिम्मत की जरुरत होगी। ऐसे में गिलानी भाई ने मुझे भरोसा दिलाया कि आप इस जिम्मेदारी को बखूबी निभा लेंगे और मेरा मार्गदर्शन जब चाहो तब ले सकते हो। उन्होंने यहां तक कहा कि यदि मैं हिम्मत हार गया तो जिस पद पर आपको होना चाहिए, वहां बाहर से कोई और आएगा एवं जिंदगी भर यह मौका शायद फिर ना मिल पाएं। गिलानी भाई की कही बातों ने मेरे में हिम्मत पैदा की एवं नई जिम्मेदारी को लंबे समय तक बखूबी निभाया।
-देश के पहले आर्थिक अखबार की कंटेंट क्षेत्र में क्या खासियत रही।
-ज्यादातर गुजराती कारोबारी समुदाय के हैं और उनकी जरुरत को देखते हुए ‘व्यापार’ में मैंने रिपोर्टिंग को बढ़ावा दिया। ‘व्यापार’ को मैंने कमोडिटी केंद्रित अखबार रखा क्योंकि अधिकतर गुजराती कमोडिटी में ट्रेड करते हैं। अनाज, दलहन, तिलहन, मसाला बाजार, कपड़ा बाजार, मेटल बाजार, सोना-चांदी, हीरा बाजार से लेकर पशु आहार और सिलाई के काम आने वाली वस्तुओं तक की रिपोर्ट केवल ‘व्यापार’ में प्रकाशित होती थी। यानी हरेक तरह के कारोबार करने वाले कारोबारी के लिए ‘व्यापार’ में कुछ ना कुछ होता ही था जिसकी वजह से पाठक इसका बेसब्री से इंतजार करते थे। मौसम विभाग की सभी जानकारी आज आसानी से पाई जा सकती है लेकिन उस समय ‘व्यापार’ हर साल बारिश और बोआई की रिपोर्ट कारोबारियों और किसानों से मंगवाता था एवं प्रकाशित करता था। दिवाली पर स्पेशल अंक आता था जो हरेक कारोबार की सालाना भविष्यवाणी करता था। इस अंक से देश की अर्थव्यवस्था का दिवाली से दिवाली तक रहने वाला हाल का ब्यौरा होता था। इस अंक में अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ लिखते थे। हरेक व्यापार, उद्योग पर उसी क्षेत्र के विशेषज्ञों से ‘व्यापार’ के नियमित अंकों में लिखवाया जाता था। आयकर, बिक्रीकर, सेवाकर, अन्य कराधान, व्यापारिक कानून, नीतियों पर भी ‘व्यापार’ में जानकारी दी जाती थी। ‘व्यापार’ ने विशेषज्ञ वकीलों की एक टीम बना रखी थी जिनसे ऐसे हर विषय पर लिखवाया जाता था। यही वजह है कि जमकर किए गए काम से ‘व्यापार’ एक अहम ब्रांड बना। हालांकि, ‘व्यापार’ में उस समय शेयर बाजार की रिपोर्टिंग को कम स्थान दिया जाता था क्योंकि तब इक्विटी कल्चर का आज जितना विस्तार नहीं हुआ था।
-‘व्यापार’ में आपके लिए गर्व के क्षण।
-आर्थिक पत्रकारिता में ‘व्यापार’ की धाक इससे आंकी जा सकती है कि ‘व्यापार’ में उठे मुद्दों पर कई बार देश की संसद में चर्चा हुई, सवाल उठाए गए। आम बजट के कवरेज लिए उस समय ‘व्यापार’ का एक रिपोर्टर दिल्ली जाता था और पूरे बजट एवं उसके विश्लेषण को कवर किया जाता था। देश की आयात-निर्यात नीति हो या टेक्सटाइल पॉलिसी सभी तरह की नीतियों का भी इसी तरह लाइव कवरेज होता था। मुझे गर्व होता है कि जब मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे और मैं उनसे मिला तो उन्होंने कहा कि मैं व्यापार को लंबे अर्से से भली-भांति जानता हूं। दिल्ली के राजनीतिक गलियारे में ‘व्यापार’ की खास अहमियत थी। इसी तरह, वर्ष 2003 में एमसीएक्स की लांचिंग सभा में उद्योगपति मुकेश अंबानी ने कहा था कि यहां शशिकांत वसानी जी भी आए हुए हैं और मेरे पिता धीरुभाई अंबानी उनसे आर्थिक मसलों और खबरों के विश्लेषण पर विचार विमर्श करते थे।
-आर्थिक पत्रकारिता में किस बात की सबसे बड़ी कमी है।
-मानव संसाधन की कमी और बिजनेस के बारे में अच्छी जानकारी न रखने वाले पत्रकारों की उस समय भी कमी थी और आज भी कमी है। देश में जब अंग्रेजी के आर्थिक अखबार निकले तो ‘व्यापार’ से कई अच्छे पत्रकार इनमें चले गए और यह भी खुशी की बात है कि आज वे बड़ी पोजीशन पर हैं। मुख्य गुजराती दैनिक ‘गुजरात समाचार’ और ‘संदेश’ ने अतीत में ‘व्यापार’ की तरह अपने अखबार शुरु किए लेकिन वे चल नहीं पाए और तीन-चार महीने निकलकर बंद हो गए। ये अखबार आर्थिक खबरों के पाठकों के बीच अपनी पैठ और पहुंच नहीं बना पाए। हालांकि, सभी गुजराती समाचार पत्रों में हर रोज दो से चार पेज आर्थिक खबरों से भरे होते हैं। गुजराती समुदाय निवेश और कारोबार से वास्ता रखता है, इसलिए ही केवल गुजराती समाचार पत्रों में आर्थिक खबरों को खासी अहमियत मिलती है। यद्यपि, अच्छे आर्थिक अखबार की गुजराती में हमेशा जरुरत रहेगी एवं बेहतर अखबार को पाठकों का उम्दा रिस्पांस मिलेगा।
-तब और अब के आर्थिक अखबारों में आप क्या अंतर पाते हैं।
-पहले और आज के आर्थिक समाचारों में खास अंतर आया है कि पहले शुद्ध समाचार ही अखबारों में आते थे लेकिन अब किसी न किसी से प्रेरित (इनस्पायर्ड) समाचार की भरमार है। कारोबारी और उद्योगपतियों से वे प्रेरित समाचार ज्यादा आते हैं जो उनके हितों को साधते हैं। लेकिन पहले अखबारों में केवल संपादक का ही दखल होता था तो यह सीधा ध्यान रखा जाता था कि किसी के हित तो अमुक समाचार से नहीं सध रहे।
(शशिकांत वसानी से कमल शर्मा की बातचीत पर आधारित)