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सुख-दुख

जितना दुख इस नौजवान पत्रकार ने झेला, उतना दर्द ईश्वर किसी को न दे… पढ़ें सिद्धार्थ की आपबीती

Yashwant Singh-

कोरोना संक्रमण और ध्वस्त सिस्टम… युवा पत्रकार साथी सिद्धार्थ चौरसिया ने जो कुछ देखा, भुगता और खोया है, उसकी भरपाई कोई नहीं कर सकता। ये ज़ख़्म कभी नहीं भर सकता। सिद्धार्थ के फेसबुक प्रोफाइल से पता चलता है कि वे कई बड़े मीडिया संस्थानों में काम कर चुके हैं और इन दिनों एनडीटीवी के साथ हैं.

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आप भी पढ़िए सिद्धार्थ की पोस्ट और उनके हालात, उनके दर्द को महसूस करिए…

Sidharth-

ये तस्वीर उस समय की है, जब मैंने अपने पापा को मुखाग्नि दिया था। मेरे पापा फरवरी महीने से टायफायड बीमारी से जूझ रहे थे। मैं और मेरा परिवार देश की राजधानी दिल्ली में रहते हैं। कहने में ये कितना गर्व सा लगता है? लेकिन अब मुझे ये कहने में काफी शर्मिंदगी भरा लगता है। क्योंकि बीते दिनों में जो मुझ पर और मेरे परिवार पर बीती है, मैं अपने पूरे जीवनकाल तक नहीं भूलूंगा, और न मैं भूलने दूंगा। बार-बार अपने जख्मों को कुरेदता रहूंगा। दुनिया के सामने बेशक मैं नौकरी, शादी ब्याह, परिवार का भरण-पोषण में व्यस्त हो जाऊं।

लेकिन दिल के कोने में मैं इन तमाम लम्हों को, इन भयावह तस्वीरों को, समाज के बीच इस भयावह अनुभवों को संजो कर रखूंगा। इतना ही नहीं। मैं अपने बच्चों को, अपने आने वाले पीढियों को रात-दिन आज के अनुभवों, तस्वीरों, आपबीती को शेयर करूंगा। उनसे कहूंगा कि आज का समाज एक समय में महामारी की आड़ में कितना भयावह हो गया था, कि अपने लोग सड़कों पर तड़पते हुए दम तोड़ रहे थे और गली मोहल्ले के लोग, सगे-संबंधी, यार-दोस्त कोई झांकने नहीं आया था। उनसे शेयर करूंगा कि उस समय की तमाम सरकारें कितनी राक्षसी प्रवृति वाली थी। मैं अपने पीढ़ियों से बार-बार कहूंगा कि उस समय भारत में “रावण राज” था। मैं अपने आने वाली पीढियों से मौखिक और लिखित रूप में कहूंगा कि आज का समाज काफी भयावह था।

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समाज में इंसानियत, धर्म, सच्चाई, प्यार, मानवता का बोलबाला नहीं था। चारों तरफ नफरत, घृणा, पक्षपात, भेदभाव, लूट-खसोट, छल-कपट था। मैं ठोक दबाकर कहूंगा, लिखूंगा कि आज के लोकतंत्र के चारों स्तंभ टूटकर ढह चुके थे। सबकुछ बस नाम मात्र का देश में था। कोई प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री, नेता, विधायक, सांसद, अस्पताल, डॉक्टर, पुलिस, मीडिया, न्यायालय नहीं था। सब नाम मात्र के थे। मैं चीख-चीखकर कहूंगा, लिखूंगा कि लाशों के ढेर लग रहे थे। लोकतंत्र की सभी ईकाईयां तमाशबीन बनी हुई थी। सब रोज सुबह हाथों में अखबारों को लिए हुए मौतों के आंकड़ों को आनंदपूर्वक देख रहे थे। कोई आगे आने को तैयार नहीं था। मैं लिखूंगा, कि किसी सरकारी संस्थाओं ने ईमानदारी से काम नहीं किया था। किसी ने अपनी जिम्मेदारी नहीं ली थी।

पूरा सिस्टम ध्वस्त था। मेरी मम्मी रोड पर पापा के इलाज के लिए तड़पती रही। रोती बिलखती रही। कोई मीडिया, सड़क पर चलता कोई राही, कोई पुलिस, कोई अधिकारी, कोई नेता नहीं आया। मेरी मम्मी डॉक्टरों के पैरों में पड़कर गिड़गिरा रही थी, वो टशन में आराम से देख रहा था। मेरी मम्मी बोली थी तुझे जितना पैसा चाहिए मैं कहीं से लाकर दूंगी। बस मेरे पति को 20 मिनट के लिए ऑक्सीजन सपोर्ट दे दे। लेकिन किसी बेरहम ने हम पर तरस नहीं खाया। यहां तक कि बेशर्म मीडिया के कई पत्रकारों को भी मैंने फोन किया।

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कई भौकाली, ऑवार्डी पत्रकारों, ब्लूटीक वाले पत्रकारों को भी मैंने फोन किया। किसी ने बार बार फोन करने पर भी नहीं उठाया। किसी ने मैसेज को इग्नोर कर दिया। किसी ने उठाया तो अपना दुखड़ा, अपनी राम कहानी सुनाने लगा। देखते ही देखते मेरे पापा रोड पर ही दम तोड़ दिए। और हम आज के सरकारों की बदौलत, आज के मीडिया की बदौलत पूरी तरह रोड पर आ गये हैं। गरीब तो हम जन्मजात से ही थे। लेकिन तमाम सिस्टम के एहसान के कारण मैंने अपने घर के मुखिया को बड़े आराम से हमेशा-हमेशा के लिए खो दिया। मैं आज के समाज, आज की मीडिया, आज के सरकारों, आज के डॉक्टरों, आज के अव्यवस्थाओं को बारम-बार प्रणाम करता हूं।

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