Prabhat Dabral
‘सर’ कहना और सुनना बड़ा अजीब सा लगता है लेकिन मेरी समस्या ये है कि मैंने हर किसी को ‘सर कहने की आदत डाल ली है…ये क़िस्सा पूरा पढ़ लेंगे तो मेरी प्रोब्लम भी समझ आ जाएगी.
शुरू में अपन अख़बारों में काम करते थे. तब वहाँ सर- सर का इतना प्रकोप नहीं था. हिंदी अख़बारों में थे इसलिए बहुत हुआ तो नाम के आगे जी लगा लिया. बहुत हुआ तो साहेब लगा लिया जैसे माथुर के साथ जी नही साहेब ठीक लगता है. काम चल जाता था.
१९८८ में अपन ने दूरदर्शन ज्वायन किया – भारत सरकार के अंडर सेक्रेटेरी के समकक्ष पद पर. ये समकक्ष वाली बात भी हमें बहुत बाद में मालूम पड़ी.
बहरहाल, एक दिन अपन को किसी काम के सिलसिले में मंत्री से मिलने शास्त्री भवन जाना पड़ा. मंत्री के कमरे से निकले तो जान पहचान के एक अफ़सर मिल गए.
दूरदर्शन से पहले कुछ साल अपन ने रिपोर्टर के रूप में दिल्ली कवर की थी इसलिए यू टी काडर के अफसरों से दुआ सलाम थी. ये सज्जन भी यूटी काडर के ही थे. हम इन्हें अच्छे से जानते थे और ये हमें.
इसलिए उस दिन जब ये साहेब मिले तो हम तपाक से आगे बढ़े और कहिए …जी कैसे हो कहके हाथ आगे बढ़ा दिया. भाई ने हाथ तो अनमने ढंग से मिलाया ही, बिना मुस्कुराए आगे बढ़ गया. हमें काटो तो खून नहीं.
अपने साथ दूरदर्शन में सालों से काम कर रहे एक प्रोड़्यूसर भी थे. वो अफ़सरशाही समझते थे.
“यार इसे क्या हो गया. पहचाना नही होगा क्या?” हमने उनसे पूछा.
उन्होंने कहा कि गुरु आप दूरदर्शन में अंडर सेक्रेटेरी हो और ये मंत्रालय में ज्वायंट सेक्रेटेरी – दो पोस्ट सीनियर और आपने तो सर भी नही कहा.
बात समझ में आ गई..
कुछ महीने बाद ऐसा ही एक मौक़ा फिर आया. कोरिडोर् में ये सज्जन फिर मिल गए. इस बार हमने हाथ खींचे रखे और ज़ोर से कहा गुड मोर्निंग सर.
साहेब खुश हो गए, मुस्कुराए, मेरा हाथ पकड़कर अपने कमरे में ले गए और चाय भी मंगा ली.
चाय आयी तो चपरासी ने पूछा कितनी चीनी, सर. हमने भी कहा ‘सर’, दो क्यूब डाल दो. ज्वायंट सेक्रेटेरी भी ‘सर’ और उसका चपरासी भी ‘सर’.
तब से हम जहां तक हो सके सबको ‘सर’ कहते है और अगर कोई जूनियर ‘सर’ नहीं कहता तो बुरा नहीं मानते.
वरिष्ठ पत्रकार प्रभात डबराल की एफबी वॉल से.
सुभाष गुप्ता
October 14, 2020 at 4:26 pm
सर आपका जवाब नहीं। आपसे बहुत कुछ सीखा है। आप एक बेहतरीन बॉस ही नही, बेहतरीन और सम्वेदनाओं से लबालब इन्सान भी है। सैल्यूट सर।