मनीष सिंह-
दक्षिण पंथ के तीन पहरूए, बीते तीन दिनों में तीन तरीकों से खेत हुए।
उग्र राष्ट्रवाद ने दुनिया को दो विश्वयुद्धों में धकेला था।
पहली दुनियावी लड़ाई राजाओ के बीच थी। खुद की निगाह में वे सर्वश्रेष्ठ थे, ताकतवर थे, सो पूरी दुनिया जीतने निकल पड़े। नतीजा, एस्ट्रो हंगेरियन एम्पायर, रशियन जार, जर्मन कैसर, और ऑटोमन राज धूल में मिल गए। इम्पीरियलिज्म खत्म हो गया।
नेशन स्टेट्स बने। भाषा, एथनिसिटी के आधार पर।
अब दूसरी लड़ाई कौमो के बीच हुई। जर्मन राष्ट्रवाद और सुपिरियरटी की हुनक ने जो मंजर बनाया, उसे आगे की कुछ पीढ़ियों ने याद रखा।
सबक लिए। दुनिया ने एक दूसरे देश की सीमाओं की इज्जत करना सीखा। दूसरी कौम, दूसरे धर्म, दूसरे कल्चर को जैसा है, वैसा छोड़ना सीखा। आर्थिक, सामाजिक, संस्थागत ग्लोबलाइजेशन हुआ।
इतिहास में पहली बार, वैश्विक फोरम बने, चले। वैश्विक अर्थव्यवस्था बनी। तकनीक, विचार साझा हुए। मुद्राएँ मर्ज हुईं। राष्ट्रवाद ढीला पड़ा। पिछले सत्तर साल, मानव इतिहास के प्रगति और शांति का अभूतपूर्व अवसर रहा।
लेकिन इससे ऊब भी होने लगी।
दो दशकों से “अल्फा मेल” लीडर्स का दौर आया है। सशक्त नेता, मजबूत सरकारें, दादागिरी, मेजोरटीजम। कोऑपरेशन और रिस्पेक्ट नही, कम्पटीशन और सप्रेशन को नई मान्यता मिली है।
लोकतंत्र में एक तिहाई लोगो को भी आपने बरगला दिया तो प्रचण्ड बहुमत की सरकारें आती हैं। देश जाति या कौम की इन्विंसीबीलिटी का नशा फैलाकर चुनाव जीते जा सकते हैं। पर इसके नाश के बीज, इसके जन्म की जमीन में ही बोये हुए होते हैं।
यूरोपियन यूनियन से अलग होने का फर्जी कैम्पेन चलाने वाले बोरिस जानसन यकीन नही था, कि ऐसा असल मे हो ही जायेगा। पर जब ब्रेग्जीट हो गया तो ब्रिटेन हक्का बक्का हैं।
वहां इकॉनमी सम्हाले नही सम्हल रही। कोविड ने गिरावट और तेज कर दी। चुनाव प्रचण्ड बहुमत से जीतने के बावजूद बोरिस जानसन सत्ता भोग नही पाए। पार्टी के सांसद और मंत्रियों ने चलता कर दिया।
उधर इमानुएल मैक्रो, राष्ट्रपति चुनाव जीते, संसद में बहुमत खो गए। अर्थात लकवाग्रस्त सरकार चलाएंगे। अमेरिका में ट्रम्प को जनता ने हटा दिया। महामानव गोटेपाया को जनता ने घर मे घुस कर खदेड़ दिया।
सबसे बुरा शिंजो अबे के साथ हुआ। इन सबने खुद का बोया ही काटा है।
कितनी भी उछल कूद, किलेबन्दी कर लीजिए, जुबानी आग लगा लीजिए, चुनाव जीत लीजिए। लेकिन शांति, सह अस्तित्व और कोऑपरेशन ही समृद्धि का मूल है।
धीमे धीमे, सबको साथ लेकर चलना ही मानवीय मार्ग है।
लोकतंत्र के मालिक, याने आम जनता को ये बात समझनी चाहिए।
लेकिन उसके पहले नेताओ को समझना चाहिए। आग लगाकर पाई सत्ता उसी आग में भस्म होती है। अगर आपकी पार्टी के भीतर भी लोकतंत्र है, वहां दूसरे लोग समझदार हो, तो आप जानसन की तरह स्वस्थ सानंद जाएंगे।
अगर पूरी पार्टी, उसके वर्कर मगरूर होकर, या डरकर आपके ही साथ है, तो मुसोलिनी हिटलर का दक्षिणपंथी हश्र इतिहास में लिखा है।
लेकिन उतनी दूर भी क्यो जाते हैं। गोटेपाया और आबे कल परसों के ही उदाहरण है।
थ्री डेज, थ्री लीडर्स, एन्ड काउंटिंग …