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साहित्य

हिंदी के इस दौर के महानतम लेखक उदय प्रकाश के दुख-दर्द को कौन समझेगा!

जाने-माने साहित्यकार उदय प्रकाश के साथ दाएं हैं इस पोस्ट के लेखक सत्येंद्र पीएस.

Satyendra PS : जाति बहिष्कृत होने के मायने… भारत में जाति की अपनी भूमिका है। उच्च से लेकर निम्न तक एक पदानुक्रम बना हुआ है और उसी के मुताबिक भारतीय समाज में लोगों का सम्मान तय है। अगर कोई व्यक्ति जाति व्यवस्था से बाहर जाने की कोशिश करे, या उसके बाहर निकल जाए तो? उसके मायने क्या हैं, उसके दुष्परिणाम क्या हैं?

यह समझने के लिए जाने माने साहित्यकार उदय प्रकाश एक बेहतरीन उदाहरण हो सकते हैं। राजपरिवार में जन्मे उदय प्रकाश को कम से कम पारिवारिक, रिश्तेदारी व सामाजिक रूप से कोई समस्या न थी। पढ़ाई में इतने अच्छे थे कि महज 23-24 साल की उम्र में सागर विश्वविद्यालय में टॉप किया। भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के कार्डहोल्डर बन गए। इमरजेंसी में भागकर दिल्ली आना पड़ा। जेएनयू में प्रवेश परीक्षा टॉप किया और 3 गुरुजनों के अंडर में शोध कार्य शुरू किया। पूर्व राष्ट्रपति और जेएनयू के कुलपति रहे केआर नारायणन ने साक्षात्कार के दौरान हिंदी फैकल्टी की उपेक्षा करते हुए, बगैर उनकी राय लिए नियुक्ति पत्र थमा दिया।

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इस बीच उदय प्रकाश एक क्रांतिकारी लेखक के रूप में स्थापित हो चुके थे। उनकी कविताएं आंदोलनों में गाई जाने लगीं। विद्यार्थियों अपने युवा अध्यापक साथी को हाथोंहाथ लिया। वह वंचितों की सशक्त आवाज बन चुके थे।
लेकिन जैसे ही केआर नारायणन जेएनयू से हटे, जातिवादी व्यवस्था उदय प्रकाश के ऊपर टूट पड़ी। उन्हें नॉर्थ ईस्ट के लोगों को हिंदी पढ़ाने के लिए भेज दिया गया। पारिवारिक समस्याओं से जूझ रहे उदय प्रकाश को नौकरी छोड़नी पड़ी।

इस बीच उदय प्रकाश जातिवादी व्यवस्था के खिलाफ तेजी से आगे बढ़ते गए। उन्होंने अपनी कहानियों में ओबीसी और दलित नायकों को उभारा। वह ब्राह्मणवादी-जातिवादी सामाजिक व्यवस्था के निशाने पर आ गए।

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देश भर के विश्वविद्यालयों में जहां जेएनयू के कॉमरेड प्रोफेसर्स अपने लोगों को सेट कर रहे थे और हजारों की संख्या में लोग पदों पर बैठाए जा रहे थे, उदय प्रकाश को किसी भी विश्वविद्यालय में जगह नहीं मिली। वह जाति और ब्राह्मणवादी व्यवस्था छोड़ देने के शिकार बन चुके थे।

उदय प्रकाश जाति के खिलाफ आगे बढ़ते गए। उन्होंने खुद अपना विवाह कायस्थ लड़की से किया। वह लड़की उनके संघर्षों की संगिनी बनी तो जाति व्यवस्था के खिलाफ उनका हौसला और बुलंद हुआ और मोहनदास व पीली छतरी वाली लड़की सामने आ गई। फिर तो ब्राह्मणवादी व्यवस्था उनके पीछे ही पड़ गई। रिश्तेदार छूटते गए। उन्होंने भी उदय प्रकाश का जाति निकाला कर दिया। पैत्रिक संपत्तियों पर भाइयों ने अपना कब्जा बना लिया।

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इस बीच उदय प्रकाश सिर्फ अपने लेखन कार्यों व परिवार में व्यस्त रहे। बच्चे बड़े हुए। बड़े की शादी एक इसाई लड़की से हो गई। छोटे बेटे की शादी ब्राह्मण लड़की से। वह रिश्तेदारों व परंपरागत जातीय विवाहों से पूरी तरह से बाहर हो गए।

उदय प्रकाश जब साठ की उम्र में पहुंचे तो उन्हें बेरोजगारी और फ्री लांसिंग के बीच सोन नदी के किनारे अनूपपुर में बसा उनका गांव याद आने लगा। बच्चे अपने काम में लग गए थे। उन्हें अपनी बुआ की जमीन कुछ जमीन मिली, कुछ पैत्रिक मकान की जमीन। बुआ के नाम से तब जमीन की गई थी, जब सीलिंग ऐक्ट लागू हुआ था और पूरे रजवाड़े की जमीन सीलिंग सीमा के भीतर परिवार के सदस्यों को मिली थी। लेकिन बुआ ने वह जमीन उदय प्रकाश को दे दी। वहीं उन्होंने घर बनवाया। उनका सपना था कि उनके माता पिता को लोग याद करें। सोन नदी को याद करें।

लेकिन जो उनकी जमीन कही जा सकती थी, उससे होकर रेत माफिया रास्ता निकाल चुके थे। अब जब भी उदय प्रकाश उसकी बाउंड्री कराते हैं, रेत माफिया उसे तोड़ देते हैं।

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रेत माफिया भी कौन हैं? वही उनके पट्टीदार, जो पैतृक संपत्ति का आनंद ले रहे थे और अभी भी ले रहे हैं। उनके रिश्तेदार कांग्रेस में भी हैं, भाजपा में भी। भाजपा के सत्ता में आने के बाद रेत की चोरी का काम बहुत तेजी से बढ़ा और उदय प्रकाश उसके शिकार बन गए। उदय प्रकाश कुजतिहा बन चुके हैं। वैचारिक रूप से पहले थे, अब रिश्तेदारी के हिसाब से भी कुजतिहा बन गए। उनके पट्टीदारों के रिश्तेदार राजे रजवाड़े, मंत्री विधायक हैं, लेकिन उदय प्रकाश का कोई रिश्तेदार नहीं है। उन्हें परिवार की ओऱ से कोई समर्थन नहीं है।

बिरहमनी हिंदी उन्हें पहले ही विश्वविद्यालयों या औपचारिक नौकरी से बाहर करा चुकी है। माकपा से भी उदय प्रकाश का मोह भंग हो चुका है। दलित-पिछड़े-आदिवासी उदय प्रकाश को अभी भी प्यार करते हैं। गांव के भी, देश के भी। लेकिन वे ताकतवर नहीं हैं। पिछड़ों में जो ताकतवर हैं, वे रेत माफिया के पक्ष में खड़े हैं, मंत्री व विधायकों के साथ खड़े हैं। कुल मिलाकर जिनके लिए उन्होंने लिखा, वह इस लायक नहीं है कि उनकी मदद कर सके। जाति व्यवस्था के खिलाफ लिखा, इसलिए जातिवादी व्यवस्था और उनकी जाति ने उन्हें समाज से बाहर कर दिया। लेखक अब अकेला है। लेकिन उतना ही दिलेर। बहुत बड़े दिल वाला। बच्चों के बीच बच्चा बन जाता है। पीड़ितों का भाई, चाचा, बुजुर्ग बन जाता है।

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एमएम कलबुर्गी की हत्या के विरोध में उन्होंने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया तो देश भर में तूफान मच गया। ब्राह्मणवादियों ने पहले तो इसे पब्लिसिटी स्टंट बताया, लेकिन कर्नाटक सहित देश भर के तमाम साहित्यकारों का समर्थन मिला। ढेरों साहित्यकारों ने अपना छोटा मोटा, बड़ा पुरस्कार लौटाना शुरू कर दिया। आखिर में दिल्ली के मेनस्ट्रीम बिरहमनी साहित्यकारों को मजबूरी में ही सही, उस पुरस्कार वापसी का विरोध करना बंद करना पड़ा।

मध्य प्रदेश के अनूपपुर के रेत माफिया उदय प्रकाश को पुरस्कार वापसी गैंग का सरगना कहते हैं। उदय प्रकाश की पेशी है। उन्हें डर है कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था और रेत माफिया उन्हें गिरफ्तार करा सकती है। लेकिन उदय प्रकाश की दिलेरी देखें। उन्होंने गांव वालों को अपने खेत से रास्ता देने की घोषणा कर डाली।

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उदय प्रकाश की पत्नी कुमकुम सिंह ने फेसबुक के माध्यम से बताया–

“पिछले दिनों अवैध रेत खनन के ट्रक को हमारे बेटे शान्तनु ने अपनी निजी भूमि से जाने से रोका था। क्योंकि आधी रात के बाद सोन नदी से रेत चोरी का धंधा चल रहा था। लगभग 12-15 ट्रक इस धंधे मे लिप्त थे। और हमारी निजी भूमि से होकर गुजरते थे और हमारी जमीन पर लगी फेसिंग को भी नुकसान पहुंचाते थे। शान्तनु को इसको लेकर धमकियां भी मिल रही थीं। लेकिन बाद मे पुलिस व प्रशासन के दखल देने के बाद उस रास्ते से तो अवैध रेत खनन वाले ट्रकों की आवाजाही अब बंद हो गई है। उदय प्रकाश जी ने उस जमीन को सरकार को देने का फैसला किया है। उन्होंने माननीय जिलाधीश महोदय को पत्र लिखकर अपनी यह इच्छा जाहिर की है। कोतमा रोड से अंदर की ओर पूर्व दिशा मे यह कच्चा रास्ता गांव की तरफ जाता है। और यही रास्ता जहाँ हर साल मेला लगता है उस ओर जाता है। बरसात मे कच्चा रास्ता होने के कारण गड्ढों मे खूब पानी भर जाता है। जिससे गांव के लोगों और बाहर से आने जाने वाले लोगों को काफी परेशानी का सामना करना पडता है। बूढ़े बच्चे आते जाते वहाँ फिसल कर गिरते हैं। सरकार के हाथों मे यह जमीन देने से कम से कम सडक तो पक्की बन जायेगी और लोगों को आने जाने मे भी सुविधा रहेगी। इस निजी भूमि को सरकार को देने मे उदय प्रकाश जी को कोई अपेक्षा नहीं है। बस वे इतना चाहते हैं कि पक्की सडक बनने के बाद उस सडक का नाम उनके माता-पिता के नाम पर रक्खा जाय। – ‘प्रेम गंगा मार्ग’ या ‘गंगा प्रेम मार्ग’। आशा करती हूँ कि प्रशासन इस इच्छा को ध्यान मे रखते हुए सडक निर्माण का कार्य जल्द ही शुरू करेगा। माननीय जिलाधीश महोदय को इस बाबत लिखे गये पत्र की कापी संलग्न कर रही हूँ।”

पुरस्कार वापसी पर साहित्य अकादमी ने कहा कि पुरस्कार में दिया गया पैसा वापस लेना का प्रावधान नहीं है। ऐसे में उदय प्रकाश ने पुरस्कार में मिली एक लाख रुपये राशि में से 75 हजार रुपये निजामुद्दीन औलिया की दरगाह के व्यवस्थापकों को दान कर दिया था। 25 हजार रुपये में एक आदिवासी के बच्चे का स्कूल में एडमिशन करा दिया था।

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उम्मीद है कि इस बार सरकार उनकी पेशकश स्वीकार करेगी और आम ग्रामीणों के लिए पक्की सड़क का निर्माण कराकर आम लोगों को राहत देगी। सिर्फ इतनी सी मांग तो मानी ही जा सकती है कि सड़क का नाम उनके माता पिता के नाम पर रखी जाए। भाजपा सरकार व प्रशासनिक अधिकारियों से इतनी नैतिकता की उम्मीद की जा सकती है कि वे एक जाति बहिष्कृत विद्रोही लेखक, कवि का यह छोटा सा अनुरोध स्वीकार कर ले।

अभी कल एम्स जाते हुए उदय प्रकाश ने बताया कि भैरव बाबा उनके कुल देवता हैं। वहां रुककर हम लोगों ने फोटो भी खिंचवाई। भैरव बाबा भी कोई आदिवासी, दलित ही होंगे जो काले कलूटे हैं। चढ़ावे में उन्हें शराब चढ़ाई जाती है। अगर भैरो बाबा कुछ मदद कर सकते हैं तो वह भी कृपा दृष्टि डालें।

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बिजनेस स्टैंडर्ड में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार सत्येंद्र पीएस की एफबी वॉल से.

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