सुशोभित-
छान्दोग्योपनिषद्- १ : छान्दोग्य सामवेद की जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण धारा का ग्रंथ है। जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण को अन्यत्र तलवकार ब्राह्मण भी कहा है। केनोपनिषद् भी इसी धारा का है, इसलिए छान्दोग्य और केन का शान्तिपाठ समान है। छान्दोग्य सभी उपनिषदों में बृहदारण्यक के बाद आकार-प्रकार में दूसरा सबसे बड़ा है। पर चूँकि बृहदारण्यक मूलत: आरण्यक है, इसलिए आप छान्दोग्य को वृहत्तम् उपनिषद् भी कह सकते हैं। इसमें आठ अध्याय हैं। पहले पाँच में मुख्यतया उपासनाओं और अंतिम तीन में ज्ञान का वृत्तांत है। ये अंतिम तीन अध्याय ही अद्वैत-वेदान्त की धारा में केंद्रीय महत्व के हैं। यह अकारण नहीं है कि वेदान्त-दर्शन के सर्वप्रमुख ग्रंथ ब्रह्मसूत्र में छान्दोग्य की सर्वाधिक श्रुतियों पर विचार किया गया है।
छान्दोग्योपनिषद् पर इस लेखमाला की पहली कड़ी में हम आज उसके छठे अध्याय पर ध्यान केंद्रित करेंगे, क्योंकि यही वह अध्याय है, जिसमें वह महावाक्य आया है : ‘तत्त्वमसि, श्वेतकेतु!’
कुल चार औपनिषदिक महावाक्य हैं, चारों वेदों से एक-एक। ये हैं :
‘अहं ब्रह्मास्मि’ (बृहदारण्यक उपनिषद् १/४/१० – यजुर्वेद)
‘तत्त्वमसि’ (छान्दोग्य उपनिषद् ६/८/७- सामवेद )
‘अयम् आत्मा ब्रह्म’ (माण्डूक्य उपनिषद् १/२ – अथर्ववेद )
‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ (ऐतरेय उपनिषद् १/२ – ऋग्वेद)
इनमें पहले और दूसरे महावाक्य को एक साथ पढ़ें तो एक तारतम्य बनता है :
‘अहं ब्रह्मास्मि’ यानी मैं ही ब्रह्म हूँ, और ‘तत्त्वमसि, श्वेतकेतु’ यानी तुम भी वही हो!
छान्दोग्योपनिषद् की इस मौलिक प्रस्थापना को थोड़ा समझें।
मनुष्य ईश्वर की कल्पना इसलिए करता है, क्योंकि वह अनिश्चित है, भयभीत है और अंधकार में है। उसको एक महत्तम् आलम्बन चाहिए, आधार चाहिए, जिसमें वह अपनी आस्था का निवेश करके निश्चिंत हो सके। इस आलम्बन का उससे पृथक, विराट, अगम्य, अगोचर होना मनोवैज्ञानिक रूप से उसके लिए आवश्यक है, जभी वही ईश्वर होगा।
किंतु छान्दोग्योपनिषद् कहता है, वह तुम ही हो! यानी न केवल ब्रह्म तुम्हारे भीतर विराजित है और तुम उससे संचालित होते हो- तुम स्वयं वह परम-तत्त्व हो!
यह घोषणा ईशद्रोह से कम नहीं और मनुष्यता के आधार को डगमगा देने वाली है!
क्योंकि स्वाभाविक है, तब आप पूछेंगे कि मैं तो इतना कुटिल-खल-कामी हूँ, मैं ब्रह्म कैसे हो सकता हूँ? इस पर उपनिषद् कहेगा, तुम ब्रह्म ही हो, किंतु अविद्या के कारण स्वयं को जीव समझते हो। तिस पर आप पूछेंगे, कैसी अविद्या? उत्तर मिलेगा, तृष्णा (बुद्ध) या माया (शंकर) या आसक्ति और ममत्व (श्रीमद्भगवद्गीता) के कारण। तुरंत आत्मपरिष्कार की यात्रा आरम्भ हो जावेगी।
ईश्वर तुमसे पृथक है, महत्तम् है, उसकी उपासना करो, पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन करो, बलि-नैवेद्य चढ़ाओ- यह धर्म है। इससे आपकी आत्मा में क्रांति नहीं होती।
किंतु तुम स्वयं परमब्रह्म हो, पर अविद्या के कारण तृष्णा में पड़े हो, इसलिए जाग्रत होओ और स्थितप्रज्ञ बनो- यह अध्यात्म है। आत्मक्रांति का पथ यही है।
और ‘तत्त्वमसि, श्वेतकेतु’- यह अद्वैत की सबसे प्रखर घोषणा है। इससे बड़ा अद्वैत का प्रतिपादन कोई और नहीं हुआ। यह ब्रह्मात्मैक्यबोध (यानी ब्रह्म और आत्म में ऐक्य है) का परम उद्घोष है।
छान्दोग्योपनिषद् अपनी आख्यायिकाओं, बोधकथाओं, दृष्टान्तों, रूपकों के लिए प्रसिद्ध है। इसमें अनेक कथाएँ हैं, किंतु श्वेतकेतु वाली कथा इस प्रकार है :
आरुणि (उद्दालक) का पुत्र श्वेतकेतु 12 वर्षों तक वेदाध्ययन करके 24 वर्ष की अवस्था में घर लौटता है। वह गर्वोन्मत्त है और उसकी भाव-भंगिमा दर्शाती है कि मैंने सब जान लिया, सारी विद्याएँ अर्जित कर लीं। पिता उससे पूछते हैं, क्या तूने उस एक को भी जाना, जिसको जानने के बाद कुछ और जानने को शेष नहीं रहता? (‘जिसके द्वारा अश्रुत श्रुत हो जाता है, अमत मत हो जाता है और अविज्ञात विशेषरूप से ज्ञात हो जाता है ?’) श्वेतकेतु दुविधा में पड़ जाता है। कहता है, उसे तो मैंने नहीं जाना, कृपया आप मुझे उसका बोध कराएँ।
तब उद्दालक नौ भिन्न-भिन्न दृष्टान्तों के माध्यम से श्वेतकेतु को बोध कराते हैं और नौ ही मर्तबा ‘तत्त्वमसि, श्वेतकेतु’ का उद्घोष करते हैं।
इन नौ दृष्टान्तों में अनेक कथन हैं, जैसे मधुमक्खियों के द्वारा नानावृक्षों का रस लाकर एकता को प्राप्त करा देना कि मधु यह नहीं जान पाता कि मैं इस वृक्ष का रस हूँ या उसका, या पूर्ववाहिनी अथवा पश्चिमवाहिनी नदियों का समुद्र में विलीन होकर समुद्र ही बन जाना, जिसके बाद वे यह नहीं जानतीं कि यह मैं हूँ या वह मैं हूँ आदि-इत्यादि। किंतु सबसे सुंदर जो न्यग्रोधफल का दृष्टान्त है, उसकी बात कहकर आज की चर्चा को समाप्त करूँ।
उद्दालक ने श्वेतकेतु से कहा, “उस वटवृक्ष से एक फल ले आ!” श्वेतकेतु ले आता है। फिर कहा, “अब इसे फोड़कर देख, क्या दीखता है।” श्वेतकेतु फल को फोड़ देता है और कहता है, “इसमें अणु के समान छोटे-छोटे दाने और बीज हैं।” उद्दालक कहते हैं, “एक बीज को उठा और उसे भी फोड़।” श्वेतकेतु उसे भी फोड़ देता है। “अब क्या दीखता है”, पूछने पर कहता है, “बीज के भीतर तो कुछ भी नहीं है।” इस पर उद्दालक कहते हैं- “हे सोम्य, इस वटबीज की जिस अणिमा को तू नहीं देखता, उसी से यह इतना बड़ा वटवृक्ष खड़ा हुआ है। तू इसमें श्रद्धा कर!”