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सुख-दुख

ईयर फ़ोन लगा के रेल पटरियों पर चलना इस एक्टिविस्ट महिला पत्रकार को भारी पड़ा, चली गई जान!

महेंद्र मिश्रा-

दोस्तों, कल वीना को हम लोग आखिरी विदाई दे आए। पहले दिल्ली से मेरठ पहुंचे जहां उनका पोस्टमार्टम हो रहा था। उसके बाद उनके जन्मस्थान बागपत के बलि गांव गए। और फिर वहीं गांव की सरहद पर ही स्थित श्मशान पर उनको अग्नि को सौंप दिया गया। यह वह क्षण था जिसकी हम लोगों ने जीवन में कल्पना भी नहीं की थी। लेकिन समय का क्या कहिए वह तो बेहद क्रूर होता है और कई बार आपको ऐसे पड़ाव पर लाकर खड़ा कर देता है। जहां आप किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। इसकी पीड़ा वहां मौजूद हर किसी के चेहरे पर थी। छोटी बहन अंजू का तो रो-रोकर बुरा हाल था। उनका पूरा चेहरा सूज गया था। भाई जोगी के लिए तो वह सहारा ही थीं। इस संबल के छूटने का दर्द उनकी पूरी देहभाषा में दिख रहा था। दिल्ली से गए वीना के हम साथियों में वह अजीब बेचैनी पैदा कर रहा था। उनके मेंटर रहे वाईएस गिल साहब शव को देखते ही फफक-फफक कर रो पड़े। यही हाल उनके साथ किसान आंदोलन की रिपोर्टिंग करने वाली वरिष्ठ पत्रकार नीलम जीना का रहा। वह भी अपने आंसुओं को नहीं रोक सकीं। गौतम जी जो उनके जरूरत के हर मौके पर बिल्कुल स्टील की तरह खड़े रहते थे। शुरू में उन्होंने खुद को रोकने की कोशिश ज़रूर की लेकिन वह भी नाकाम रहे और फिर आंखों से आंसुओं की धार फूट पड़ी। फिर मेरी क्या बिसात थी। मैं तो वैसे भी भावुक प्राणी हूं। लगा वह लड़की जो मुस्कराते हुए चहक कर मिलती थी। और साहस, बेबाकी और निडरता की प्रतिमूर्ति थी वह अब कभी भी नहीं मिलेगी।

और फिर इसी के साथ हिचक-हिचक कर सब्र का बांध जो टूटा तो किसी साथी का कंधे पर हाथ रखने के बाद ही रुक सका। और बाद में हिम्मत सिंह भी इसी शोक में शामिल हुए। जिनसे उनका रिश्ता दो दशक पुराना था। वीना का चेहरा बिल्कुल सफेद हो गया था। गौरैया चिड़िया की तरह फुदक-फुदक कर चलने वाली वीना को इस तरह से शांत और बेजान देख कर जैसे कलेजा ही मुंह को आ गया। परिजनों और गांव वालों ने ऊपल और लकड़ी का बिल्कुल विस्तर बना दिया था और फिर उस पर वीना को रखने के बाद भाई जोगी ने मुखाग्नि दी। और उसी के चंद मिनटों बाद आग की लपटों ने वीना को अमनी आगोश में ले लिया।

जैसा कि कल हम लोगों ने उनकी असमय मौत को लेकर कई आशंकाएं जाहिर की थीं। लिहाजा यह चीज बराबर हम लोगों की जिज्ञासा का विषय बनी रही। और उसके मुताबिक हम लोग आस-पास मौजूद लोगों से पूछताछ भी करते रहे। पास मौजूद एक सज्जन जो उस वक्त घटनास्थल से ही कुछ दूर पर खेत में काम कर रहे थे, ने बताया कि “दूर से मैंने देखा था कि एक लड़की पटरी के किनारे-किनारे जा रही है। इसी बीच ट्रेन के हॉर्न की कई बार आवाज सुनाई दी। चूंकि मैं दूर था लिहाजा कुछ भी साफ तरीके से नहीं देख सकता था। लेकिन ट्रेन रूकी और फिर चल दी”। पूछने पर बाद में किसी ने कहा कि कोई मोबाइल गिर गया था। तो किसी ने किसी लड़की के ट्रेन से गिरने की बात बतायी। लेकिन बाद में असलियत सामने आयी। बताया जा रहा है कि वीना का गांव के पास स्थित रेलवे लाइन के किनारे ही खेत है।

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उसी को देखने के लिए वह दिन में तकरीबन एक से डेढ़ बजे के बीच पटरियों पर होते हुए उन खेतों की ओर जा रही थीं। लोगों का कहना था कि उन खेतों तक जाने के लिए कोई अलग रास्ता नहीं है और ज्यादातर लोग ट्रेन की उन पटरियों से ही होकर जाते हैं। लोगों का कहना था कि पटरी के बाहर निकलने वाली लकड़ी की पट्टी पर ही पैर रखते हुए वह आगे बढ़ रही थीं। और उस वक्त उन्होंने अपने कान में ईयरफोन लगा रखा था। उसी समय पीछे से ट्रेन आ रही थी। लोगों की मानें तो ट्रेन का ड्राइवर लगातार हॉर्न बजा रहा था। बार-बार हॉर्न बजाने के बावजूद वीना पटरी से नहीं हटीं। हालांकि ड्राइवर ने ट्रेन जरूर धीमी कर दी थी लेकिन वह ट्रेन के वीना से टकराने से नहीं रोक सका। (शायद यहां रेलवे के नियम भी आड़े आए हों जिनके बारे में कहा जाता है कि इस तरह के किसी मौके पर ट्रेन को रोका नहीं जा सकता है। बल्कि एक्सीडेंट होने के बाद ही ट्रेन रुकती है।) दुर्घटना के बाद ड्राइवर ने ट्रेन रोकी और फिर उसने वीना की बॉडी को उठाकर ट्रेन में रख लिया जिसे उसने अगले स्टेशन पर जीआरपी के हवाले कर दिया। बताया जा रहा है कि उस समय वीना की सांसें चल रही थीं हालांकि वह बेहोशी की हालत में थीं। लेकिन टक्कर ने वीना के सिर के पिछले हिस्से में गहरा घाव कर दिया था। जिससे उनके सिर में अंदरूनी चोट आयी थी।

इस बात की तस्दीक उनकी बहन अंजू ने भी की। उन्होंने बताया कि वीना के सिर के पीछे हाथ ले जाने पर उनका पूरा हाथ खून से गीला हो गया था और कुछ खून बाहर भी बहा था। हालांकि इस घटना में वीना के शरीर में और कहीं चोट नहीं आयी थी न ही खून के कोई निशान थे। लेकिन सिर की अंदरूनी चोट उनके लिए जानलेवा साबित हुई। बताया गया कि उन्हें जीआरपी वालों ने अस्पताल में भर्ती ज़रूर कराया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। और उन्हें बचाया नहीं जा सका। बाद में पोस्टमार्टम के लिए शव को मेरठ के सरदार वल्लभ भाई पटेल अस्पताल जे जाया गया। जहां चिकित्सकों ने अगले दिन यानि कल उनका पोस्टमार्टम किया और फिर उसके बाद शव को परिजनों को सौंप दिया। जहां हम लोग भी मौजूद थे। पोस्टमार्टम रिपोर्ट दो दिन बाद आने की बात डाक्टरों ने कही है।

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इस तरह से अगर पूरे घटनाक्रम पर नजर दौड़ायी जाए तो किसी तरह के फाउल प्ले की बात बेमानी लगती है। तथ्य, घटना को लेकर लोगों के बयान और ड्राइवर द्वारा ट्रेन रोक कर बॉडी को अपने साथ ले जाने की बात इस तरह की किसी आशंका को खारिज करते हैं। और यह बात केवल मैं नहीं बल्कि हमारे साथ गए सभी साथियों और दूसरे लोगों ने भी महसूस की। इस नजरिये से इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि हमने एक कीमती जान को मुफ्त में ही गंवा दिया। अब इस पर अफसोस करने और हाथ मलने के सिवा हम लोगों के पास कुछ नहीं है। गांव में परिवार के बीच जिस अंतरविरोध की बात कल मैंने बतायी थी वह भी लोगों की मानें तो खात्मे की तरफ था। खेत को लेकर एक तरह से समझौता हो गया था। और वीना ने भी अपनी पिछली फसल काट ली थी और वह अगली बोने की तैयारी के सिलसिले में ही वहां गयी थीं। और लंबी लड़ाई के बाद एक तरह का सुकून भी वह जीवन में महसूस कर रही थीं। और यह बेखयाली उस दिन खेत में जाते वक्त कान में ईपी लगाने के उनके रवैये में भी झलकती है।

गौतम जी की मानें तो उन्होंने जनचौक पर मजदूरों और कामगारों से जुड़े विभिन्न सवालों को लेकर डाक्यूमेंट्री बनाने की योजना की शुरुआत भी कर दी थी और बाकायदा उसके लिए समय भी निर्धारित कर दिया था। अभी तो उनकी पत्रकारिता, व्यंग्य लेखन और डाक्यूमेंट्री के असली दौर की शुरुआत होनी थी। जीवन की जब दोपहरी थी और उनकी प्रतिभा को ऊंचाई पर पहुंच कर चमकना था तभी जीवन का प्रकाश गुल हो गया। एक बड़ी संभावना का इस तरह से दुखद अंत हो गया। ऐसा नहीं है कि उनकी उपलब्धियों की झोली खाली है। एक गांव की लड़की शहर में आकर अपने संघर्षों के जरिये जो पहचान बनायी वह अद्वितीय है। आज हम और आप अगर वीना को जान रहे हैं और उन पर बात कर रहे हैं तो यह उनके संघर्षों का ही नतीजा है। हां उनके संघर्षों और सृजनों का दायरा बेहद विस्तृत था। घर-परिवार में अगर सामंती पितृसत्ता से वह लड़ रही थीं तो समाज में ब्राह्मणवाद के खिलाफ उन्होंने बिगुल फूंका था। पूंजीवाद किस तरह से गरीबों का शोषण करता है और मानवीयता के हर चेहरे को नोच कर एक मुखौटे का निर्माण करता है। उसकी इस फितरत से भी वह बखूबी परिचित थीं।

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न्याय, सत्य और ईमानदारी उनके लिए केवल शब्द नहीं थे बल्कि जीवन के वसूल थे जिसे उन्होंने अपने जीवन में भरपूर निभाया। और कभी उनसे समझौता नहीं किया। अनायास नहीं घर के मुकदमे में संबंधित जज ने 12 हजार रुपये मांगे लेकिन उन्होंने देने से इंकार कर दिया। ऐसा नहीं है कि उनके पार 12 हजार रुपये नहीं थे। या फिर वह मुकदमा नहीं जीतना चाहती थीं। दरअसल वह न्यायपालिका में इस तरह के भ्रष्टाचार के खिलाफ थीं और उसको भ्रष्ट करने वालों की कतार में खुद को नहीं खड़ा करना चाहती थीं। घर में भी जो लड़ाई थी वह उनके लिए संपत्ति से ज्यादा लड़की होने के अपने अधिकार को पूरा करने के लिए थी। और वैसे भी उनके पास लिखने पढ़ने की अद्भुत क्षमता थी। डबिंग से लेकर डॉक्यूमेंट्री के हर हुनर से वह परिचित थीं। इसलिए अपनी प्रतिभा के बल पर अपना जीवन जीने की उनमें क्षमता थी। लेकिन वसूलन उन्होंने वह लड़ाई हाथ में ली और उसे सफलता की मंजिल तक पहुंचाया। और पत्रकारिता के मोर्चे पर भी उन्होंने एक मुकाम हासिल किया। जिसे वह एक नये चरण में ले जाने के लिए तैयार थीं।

वह किस कदर जनता और खास कर किसान, मजदूर, दलित और वंचित तबकों के प्रति प्रतिबद्ध थीं वह उनकी रिपोर्टिंग में दिखती थी। रिपोर्टिंग की फील्ड उनके लिए किसी युद्ध के मैदान से कम नहीं थी। घटनाओं को कवर करने में वह हर तरह का जोखिम उठाने के लिए तैयार रहती हैं। इस सिलसिले में एक दो घटनाओं का जिक्र करके ही उनके इस हौसले को समझा जा सकता है। किसान आंदोलन के दौरान 26 जनवरी के इवेंट के लिए जब हम लोगों ने रिपोर्टरों की तैनाती की तो उनकी ड्यूटी गाजीपुर में लगायी गयी। और सहयोग के लिए अपने साथी अशोक जी को लगाया गया। अगर आपको याद हो तो उस दिन गाजीपुर के किसान बैरिकेड्स तोड़कर दिल्ली में घुस गए थे। उसी दौरान वीना भी उनका पीछा करते हुए आईटीओ पर पहुंच गयी थीं। और फिर वहीं से उन्होंने उस घटना की रिपोर्टिंग की थी जिसमें उत्तराखंड के एक युवक की पुलिस की गोलियों से हत्या हुई थी। यह सब कुछ वीना के सामने हुआ था। वह उसकी चश्मदीद थीं। फायरिंग हो रही थी बावजूद इसके वह मोर्चे पर डटी रहीं। इस तरह के दुर्लभ साहस कम ही लोगों में देखे जाते हैं। लेकिन वीना तो वीना थीं। वह ऐसे मौकों पर भला कैसे पीछे हट सकती थीं।

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इसी तरह की एक और घटना जंतर-मंतर पर घटी जब एक धरने के दौरान पुलिस ने किसानों को डिटेन कर लिया। जिसका जिक्र कल अपनी फेसबुक टिप्पणी में कॉ. पुरुषोत्तम शर्मा ने किया है। इस कार्यक्रम को कवर करने गयीं वीना भी रिपोर्टिंग करते हुए गिरफ्तार हो गयीं। मीडिया की आवाज को बंद कराने के लिए उस दौरान पुलिस इस तरह के नुस्खों का खूब इस्तेमाल करती थी। बहरहाल गिरफ्तारी के बावजूद बस में जाते वक्त वीना का कैमरा बंद नहीं हुआ और वह पूरी घटना की लाइव रिपोर्टिंग करती रहीं। आखिर में शाम को शात बजे वह लोगों के साथ छूटीं। इस दौरान लगातार जनचौक में वह अपडेट देती रहीं।

इस तरह के कितने वाकये और घटनाएं हैं जिन्हें गिनाया जा सकता है। और बहुत सारे तो ऐसे हैं जिनके बारे में मुझे भी नहीं पता होंगे। क्योंकि वह उनके जीवन में घट रहे थे। लेकिन अब सब कुछ यादें ही बन कर रह जाएंगे। वीना ने भले ही छोटी जिंदगी जी लेकिन वह बेहद गहरी और सार्थक थी। इस बात में किसी को भी शक नहीं है। आप हमेशा हम लोगों के जेहन में बनी रहेंगी।

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पत्रकार, व्यंग्यकार और डाक्यूमेंट्री मेकर वीना शुरुआत में ही जनचौक पोर्टल के साथ जुड़ गयी थीं। वह लगातार हमारे साथ बनीं रहीं। अभी जबकि जनचौक की नई शुरुआत होने जा रही है तो वह भविष्य की उस टीम की अहम सदस्य थीं। बागपत वीना का गांव था और वह रहती दिल्ली स्थित शाहदरा के अपने घर में थीं। चूंकि उनकी खेती बागपत में थी लिहाजा वह उसको भी देखने का काम करती थीं। हालांकि उस खेती को लेकर उनका अपने भाई से विवाद भी चल रहा था और कुछ मामले कोर्ट में भी थे। एक तो इलाहाबाद हाईकोर्ट में था जिसकी वह पैरवी के लिए कभी-कभी इलाहाबाद भी जाया करती थीं। परसों बागपत जाने से पहले मेरी उनसे फोन पर बात हुई थी। मैंने उनसे कहा कि आइये मुलाकात भी हो जाएगी और बात भी कर लेंगे तो पहले उन्होंने हामी भर दी लेकिन फिर कहा कि बागपत में एक दिन का काम है उसके बाद लौट कर आती हूं तो मिलती हूं। इसी बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि सोच रही हूं अब खेत को बंटाई पर दे दूं। पहले चाचा को दी थी लेकिन वह कुछ देते ही नहीं थे। इसलिए अबकी बार किसी और को सौंप कर फिर अपने लिखने-पढ़ने के काम पर फोकस करूंगी। इसी योजना के साथ वह गांव गईं थीं। वीना पत्रकार और डाक्यूमेंट्री बनाने के साथ उम्दा व्यंग्यकार थीं। उनकी कलम पाठक के कलेजे को चाक कर देती थी। जनचौक पर प्रकाशित होने वाले उनके व्यंग्यों ने बहुत कम समय में अपनी पहचान बना ली थी। इतने मारक और धारदार तरीके से लिखे उनके लेख लोगों के भीतर बहुत गहराई तक असर करते थे। ब्राह्मणवाद के खिलाफ वह बेहद तार्किक और सधे अंदाज में लिखती थीं। और उसके पीछे उनका अपना कोई पूर्वाग्रह भी नहीं होता था। यही वजह है कि जनचौक पर प्रकाशित होने वाले आम लेखों के मुकाबले उनके लेखों की रीच बहुत ज्यादा थी। इसके अलावा जब भी जनचौक का कोई एसाइनमेंट दिया जाता था तो उसे वह बेहद शिद्दत से पूरा करती थीं। कहीं भी भेज दीजिए वह हमेशा जाने के लिए तैयार रहती थीं। जबकि जनचौक के सामने संसाधनों का संकट बराबर बना रहता था बावजूद इसके वह इसकी चिंता नहीं करती थीं और अक्सर अपने ही दम पर उसको पूरा करने की कोशिश करती थीं। इस रूप में कहा जाए तो समय के साथ उनका खून-पसीना भी जनचौक में लगा है। और जनचौक इस ऋण को कभी नहीं उतार सकेगा। वीना जी से जुड़ी कई यादें जेहन में उमड़-घुमड़ रही हैं। लेकिन उन पर फिर कभी। अलविदा साथी…

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