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सुख-दुख

भड़ास के 8वें बर्थडे समारोह में दूर प्रदेश से आए एक पत्रकार साथी की चिट्ठी

प्रिय भाई,

यह एक बेहतरीन कार्यक्रम था। इसे आपने जो स्वरूप दिया उसके लिए जितना कुछ कहा जाना चाहिए कम है। आप जानते हैं कि हम पत्रकारों की आदतें किनने और क्यों बिगाड़ी हैं। या तो हम पीआर कंपनियों के जरिए फाइव स्टार होटलों में जाते हैं, थोड़े बड़े पत्रकार हुए तो सरकारी सुविधाओं में अपना स्वाभिमान खूंटी पर टांग देते हैं, या एनजीओ मार्का कार्यक्रमों में अपने सरोकारी होने का लबादा ओढ़े सुविधाओं की एक अलग दुुनिया में होते हैं।

<p>प्रिय भाई,</p> <p>यह एक बेहतरीन कार्यक्रम था। इसे आपने जो स्वरूप दिया उसके लिए जितना कुछ कहा जाना चाहिए कम है। आप जानते हैं कि हम पत्रकारों की आदतें किनने और क्यों बिगाड़ी हैं। या तो हम पीआर कंपनियों के जरिए फाइव स्टार होटलों में जाते हैं, थोड़े बड़े पत्रकार हुए तो सरकारी सुविधाओं में अपना स्वाभिमान खूंटी पर टांग देते हैं, या एनजीओ मार्का कार्यक्रमों में अपने सरोकारी होने का लबादा ओढ़े सुविधाओं की एक अलग दुुनिया में होते हैं।</p>

प्रिय भाई,

यह एक बेहतरीन कार्यक्रम था। इसे आपने जो स्वरूप दिया उसके लिए जितना कुछ कहा जाना चाहिए कम है। आप जानते हैं कि हम पत्रकारों की आदतें किनने और क्यों बिगाड़ी हैं। या तो हम पीआर कंपनियों के जरिए फाइव स्टार होटलों में जाते हैं, थोड़े बड़े पत्रकार हुए तो सरकारी सुविधाओं में अपना स्वाभिमान खूंटी पर टांग देते हैं, या एनजीओ मार्का कार्यक्रमों में अपने सरोकारी होने का लबादा ओढ़े सुविधाओं की एक अलग दुुनिया में होते हैं।

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इसके विपरीत आपका जो कार्यक्रम मुझे लगा इससे बहुत उम्मीद दिखाई देती है। जिसे आना हो अपने खर्च पर आए, अपने पैसों से भोजन करे, सरोकारों को दिखाना है तो वह अपने तौर तरीकों से दिखाए, इस प्रक्रिया में यकीन मानिए मुझे बहुत मजा भी आया और अच्छा भी लगा। इसलिए हमारा जो समूह वहां जमा हुआ, वह शायद एक बहुत अलग तरह का समूह था। मैं तो कहता हूं कि ऐसे कार्यक्रमों को और देशज और अनौपचारिक और समाज के और करीब हमें करना चाहिए, किसी गांव खेड़ों में, टोलों मजरों में, दाल बाटी या लिट्टी चोखा खाते हुए भी क्या हम ऐसे सार्थक विमर्श को आंदोलन की तरह खड़ा कर सकते हैं।

कार्यक्रम को सुनते हुए जब मैंने पोस्टर को ध्यान से देखा और वक्ताओं को सुनते हुए जब थोड़ा सोचा तो मुझे लगा कि एक काम तो हो गया है। यह जो भड़ास का घूसा पोस्टर फाड़कर लोगों के चेहरे पर पड़ता है, उन्हें बेनकाब करता है, तो संभवत: जो काम आपने आठ साल पहले सोचा होगा, शायद वह पूरा कर पाने में आप कामयाब हुए हैं। हम संभवत: इतिहास की पहली ऐसी पीढ़ी हैं जो मीडिया के अंदरूनी मामलों की इतनी खबर रखते हैं, विचार रखते हैं, आलोचना रखते हैं। इससे पहले मीडिया के आलोचना के इतने मुखर, तेज और सशक्त माध्यम इतिहास में कभी नहीं हुए हैं। हां, उनकी शैलियां रही हैं, लेकिन इतनी प्रभावी और लोकतांत्रिक तो कभी भी नहीं रही। इसकी शुरुआत में कहीं न कहीं भड़ास ही है।

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तो यह जो घूसा है न इसको अब जरा थोड़ा उठाकर ऊपर करिए। यानी अब वह वक्त भी आया मानिए जब यह घूसा उपर उठकर एकता में, एक ताकत में, एक संघर्ष में परिणित हो जाए। भले ही हम कुछ सौ दो सौ लोग हों, लेकिन वह पत्रकारिता के मूल्यों को और सामाजिक परिवर्तन के प​वित्र उद्देश्यों को निभाने में थोड़े भी कामयाब हो पाएं। यह जानते हुए भी कि हां संकट इतने बड़े हैं कि हम सौ दो सौ लोग क्या कर लेंगे, लेकिन हौसला है, हौसला है कि हारेंगे नहीं। रुकेंगे नहीं और झुकेंगे भी नहीं।

दूसरा, आपका जो घूसा दिखाई देता है इसकी मुद्रा थोड़ी सी बदलकर इसमें एक ‘कलम’ और दे दीजिए। हमने निश्चित ही मीडिया के अंदरूनी हालातों पर बेहतर काम किया है, लेकिन समाज के व्यापक मसलों पर भी क्या भड़ास अब आगे का सफर तय करेगा। क्या हम एक ऐसा मीडिया खड़ा नहीं कर सकते जो आज के बाजारू मीडिया पर एक घूंसा हो। मुझे लगता है कि आठ सालों के बाद अब यही चुनौती है। छोटा भाई समझकर मन में जो आया लिख दिया।

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आपका
xyz

(पत्रकार साथी ने नाम और पहचान न उजागर करने का अनुरोध किया है.)

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भड़ास के आठ साल के कार्यक्रम में क्या क्या हुआ, जानने के लिए क्लिक करें : B4m8Year

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