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सुख-दुख

कोरोना में मरते मरते बची एक स्त्री की जिजीविषा की कहानी पढ़िए!

भावना चौहान-

हेलो दोस्तो! बहुत अरसे से fb पर आना नहीं हुआ, कोविड की वजह से तबियत काफी खराब हो गयी थी, 16 दिन अस्पताल में एडमिट रहना पड़ा। ख़ैर वो बुरा दौर था गुज़र गया। उम्मीद है आप सब अच्छे होंगे। एक दोस्त के माध्यम से पता चला कि मेरे बारे में फेसबुक पर कई दोस्त चिंतित हैं, तो सोचा कि बता दूँ कि फिलहाल ठीक हूँ।

कोविड ने मन का उत्साह छीन सा लिया है, या यूं कहूँ कि हर वक़्त नींद आती रहती है, यह भी बड़ा कारण है कि फेसबुक पर आना नहीं हो पाया। मेसेंजर पर अनगिनत मेसेज पड़े हुए हैं जिनका जवाब नहीं दे सकी हूँ। बहुत बहुत शुक्रिया और खूब सारा प्यार मेरे उन सभी दोस्तो को जिनकी स्मृति में मेरा होना रहा। Lots of luv to u all!

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तो ये मेरी कोविड कहानी

20 अप्रेल को symptoms आने के बाद दो तीन दिन ऐसे भी रहे कि मुझे जरा बुखार तक नहीं था, मुझे लगा कि कोरोना तो यूँ ही ठीक हो जाएगा। लेकिन अचानक 25 तारीख को बुखार तेज हुआ..दवाएं लेने पर भी नहीं उतरा और कमजोरी चरम पर होती गयी। तिस पर यह कि पूरी बिल्डिंग में सप्ताह भर से बिल्कुल अकेली रह रही थी। घर भी नहीं गयी कि किसी को मेरी वजह से इंफेक्शन न हो जाये! जहाँ उठना-बैठना भी हिम्मत का काम लगता था, वहां फल, दवा लेने भी खुद ही मार्किट जाना था मुझे। साथ ही खाना, काढा, चाय सब खुद ही देखना था।

27 अप्रेल आते-आते तो हालत ऐसी हो गयी कि बिस्तर से उठा ही नही जा रहा था। सांस फूल रही थी और ऑक्सीजन भी गिर रहा था। मैंने एक दोस्त के माध्यम से दिल्ली के एक अच्छे डॉक्टर से संपर्क किया जिनकी देखरेख में मेरा ट्रीटमेंट आगे बढ़ा। इस दौरान मैं अपने ट्रीटमेंट के लिए परेशान थी कि डॉक्टर Navmeet Nav जी का मुझे ध्यान आया और फिर डॉक्टर नवमीत जी को भी मैने अपने ट्रीटमेंट हेतु काफी तकल्लुफ दिया। और इस नेकदिल डॉक्टर ने बिना देर किए हमेशा मुझे जो उचित मार्गदर्शन दिया जिसके लिए शुक्रिया बहुत छोटा शब्द है। हालांकि इससे पहले मेरा उनसे कोई संपर्क नहीं था लेकिन कोरोना काल मे वो मेरे लिए आशा की किरण थे।

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मेरे दोनों ही डॉक्टर्स में मुझे HRCT कराने की सलाह दी और 27 की शाम को बहुत हिम्मत करके मैं HRCT कराने चली गयी। उतना चले जाना तब किसी एवरेस्ट फतह करने से कम नहीं लग रहा था। वापस आकर हॉस्पिटल के लिए बैग पैक करने में तो जैसे हालत खस्ता हो गयी। लगा कि वीकनेस से बेहोश ही हो जाऊंगी। खैर फिर एम्बुलेंस बुलाई और किसी तरह जिला अस्पताल में जाकर एडमिट हो गयी क्योंकि वही एकमात्र जगह थी जहां ऑक्सिजन और बेड मिल पा रहा था। मुझे सरकारी अस्पतालों की बदइंतज़ामी का इससे पहले कोई अनुभव नहीं था लेकिन जितना सुन रखा था उसके हिसाब से मैं काफी सारी दवाएं, इंजेक्शन्स, ड्रिप, ग्लूकोमीटर, थर्मोमीटर, सब साथ लेकर गयी थी।

अस्पताल में हालत ये थी कि जिस शाम को एडमिट हुई मुझे कोई भी डॉक्टर,नर्स विजिट तक करने नही आया। फलतः मेरा ट्रीटमेंट अगले दिन से शुरू हो सका। अपने डॉक्टर्स के निर्देशानुसार दवाओं का पूरा ज़खीरा अपने साथ ले कर गयी थी। लेकिन हालात ये थी कि ड्रिप, इंजेक्शन्स सब मेरे पास होने के बावजूद मुझे लग नही पा रहे थे। खुद को ड्रिप लगाऊँ कैसे! बमुश्किल कोई लगाने आया करता था। हालांकि बाद में तो मैंने कितने ही इंजेक्शन्स कैनुला के थ्रू खुद ही लगा डाले। यहां तक कि ड्रिप के रुक जाने पर, और तमाम रिक्वेस्ट के बावज़ूद स्टाफ के न आने पर ड्रिप में से इंजेक्शन्स भर के कैनुला में लगा कर ड्रिप फिनिश करती थी।

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विजिट पर आए एक डॉक्टर से मैंने गरम पानी के लिए रिक्वेस्ट किया तो उसने बोला कि यहां कोई होटेल थोड़े ही है जो आपको गरम पानी का अरेंजमेंट कराया जाए!तत्काल ही फिर इलेक्ट्रिक कैटल ऑनलाइन हॉस्पिटल के अड्रेस पर आर्डर की तब तक ठंडे पानी से काम चलाना पड़ा। हॉस्पिटल गंभीर मरीजों को भी टेबलेट्स दे रहा था अतः मैं अपना इलाज अस्पताल भरोसे बिल्कुल भी नहीं छोड़ सकती थी। टेम्प्रेचर, शुगर, बीपी चेक करने से अस्पताल का दूर-दूर तक कोई नाता न था। लगभग 20-25 बॉडीज रोज़ ही पैक होती थीं। इस शहर में मैं बिल्कुल अकेली थी, परिवार, दोस्त सब सैकड़ों किलोमीटर दूर।

बीमारी भी ऐसी कि किसी बुला नहीं सकती। ऊपर से सबसे बड़ी life threatening mistake हुई HRCT reporting में, जिसमें स्कोर बजाय 16 के सिर्फ 6 टाइप हुआ था। लाज़िम है कि मेरा इलाज उसी के हिसाब से चलता। सो आराम जितना होना चाहिए था उतना होता नहीं था। सीने में दर्द और जकड़न से चौथाई भी सांस नहीं आती थी। कई बार लगा कि शायद ये रात जीवन की शायद आखिरी रात हो, हॉस्पिटल का रवैय्या ऐसा मानो ‘अब तुम यहाँ आ तो गए हो, हिम्मत हो तो ज़िंदा जा के दिखाओ’।

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पहली बार मैंने किसी, एक आंटी जो मेरे सामने के बेड पर थीं, का सेचुरेशन ज़ीरो होते अपनी आंखों से देखा। लेकिन ऐसे पेशेंट की केयर को लेकर भी स्टाफ में कोई जल्दबाज़ी नही थी। व्हाट्सएप्प खोलो तो पता चलता कि साथ के कितने ही सहकर्मी छोड़ के जा चुके हैं। श्रद्धांजलि संदेशों की बाढ़ आई रहती। फेसबुक खोलने की तो खैर हिम्मत ही नहीं होती थी। 3 अप्रेल तक मेरे पापा और भाई लाख मना करने के बावजूद आ चुके थे लेकिन कर क्या सकते थे। कहीं बेड नही मिल पा रहा था तो कहीं ऑक्सीजन।

खैर 6 मई को मेरी कोविड रिपोर्ट निगेटिव आ गयी लेकिन ऑक्सिजन हटाते ही SpO2 63 तक आ गया। नेगेटिव आते ही अस्पताल ने मुझसे ऑक्सिजन वापस ले ली खैर किसी तरह घरवालों ने ऑक्सिजन का इंतज़ाम किया और एम्बुलेंस द्वारा कई घंटों की यात्रा तय कर मुझे कानपुर पहुंचाया। वहां मेरे चाचाजी के प्रयासों से एक अच्छे हॉस्पिटल में प्रायवेट रूम मिल गया था।

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इसी दौरान दूसरी HRCT कराई जिसमें मेरा स्कोर 7 आया। मुझे लगा कि ये क्या?? बजाय घटने के स्कोर बढ़ क्यों रहा है। मेरा डॉक्टर भी हैरान था कि ऐसा क्यों हुआ? ऐसे में मैंने डॉक्टर नवनीत नव जी को भी स्थिति से अपडेट कराना जरूरी समझा। जिन्होंने मुझे कुछ टेस्ट कर के रिपोर्ट्स भेजने के लिए बोला। मेरे डॉक्टर्स के हिसाब से मेरा ट्रीटमेंट सही चल रहा था, चूंकि सीटी रिपोर्ट ही गड़बड़ थी और किसी को इस पता नही था तो दूर बैठे डॉक्टर्स भी असमंजस में थे।

रात के 11 बजे मुझे जब कानपुर के उस प्रायवेट हॉस्पिटल में एडमिट किया गया तो मेरी हालत बिल्कुल ही ठीक नहीं थी। फिर जो भी करना था हॉस्पिटल ने खुद ही किया। अब तो मेरी हालत भी ऐसी नही रह गयी थी कि खुद कोई प्रयास कर सकती! कानपुर आकर लगा कि इलाज करना वास्तव में हॉस्पिटल की ज़िम्मेदार होती है। खैर ट्रीटमेंट चला, विवादित इंजेक्शन रेमिडीसीवीर का भी पूरा कोर्स दिया गया और मैं धीरे-धीरे ठीक होती गयी। यहां आने के बाद पता चला कि आराम भी कोई चीज होती है वरना इससे पहले मेरा पूरा वक़्त सिर्फ दोनों वक़्त की डोज़ कम्प्लीट करने के लिए ज़द्दोज़हद करते गुज़रता था।

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पानी और फल और ज़रूरी दवाई नीचे काउंटर से ऊपर वार्ड तक मंगवा पाना भी एक टास्क जैसा था। ऊपर से सफाई के लिए जब भी बोलते तो उत्तर आता कि अभी फोर्थ क्लास बॉडी पैक करने में लगा है वक़्त मिलेगा तो आकर कर देगा। वक़्त मिलता था चौथे-पांचवें दिन। नर्सिंग स्टाफ में 90 परसेंट ऐसे लोग थे जिनको किसी की तकलीफ से कोई बास्ता न था और न ही अपनी ज़िम्मेदारियों से। सबसे जिम्मेदारी से अगर कोई वहां काम करता था तो वो था फोर्थ क्लास। कितनी ही बार उनसे ही मैने कैनुला ठीक करवाया, ऑक्सिजन की सप्लाई प्रॉपर करवाई, खाना-पानी मंगवाया।

तब स्थिति यह थी कि कोई नेगेटिव खबर सुन लेती तो घंटों उससे उबर नहीं पाती थी। अब जब उस तरह के मेन्टल ट्रॉमा से मुक्त हो गयी हूँ, तब कुछ शेयर करने की हिम्मत कर पा रही हूँ।

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