प्रवीण झा-
अर्थशास्त्र मेरे लिए एक नीरस और कठिन विषय रहा, जिससे संघर्ष कायम है। इसे जो सरल और रोचक बना दें, या थ्रिलर की शक्ल दे दें, उनका धन्यवाद तो बनता है। इस पुस्तक को एक ऐसा ही ज्ञापन दे रहा हूँ।
यहाँ लेखक मानते हैं कि दुनिया में दो चरम हैं। अगर उन दोनों चरम को समझ लिया जाए, तो दुनिया का भविष्य समझना आसान है। वह दुनिया के ऐसे नौ चरम ढूँढते हैं, वहाँ जाकर अध्ययन करते हैं, और अपनी रिपोर्ट बनाते हैं।
पहला खंड है- जीजीविषा का अर्थशास्त्र
- असेह (ACEH) इंडोनेशिया का एक स्वायत्त प्रांत है जो शब्द इतिहास में Arab, Chinese, European, और Hindu प्रभाव से जुड़ा है। यह एक सुनामी में इस कदर तबाह हुआ कि पृथ्वी की शक्ल ही बदल गयी। पृथ्वी अधिक गोल हुई, और पूरी दुनिया में दिन छोटे होने लगे। इस प्रांत में सिवाय एक मस्जिद और कुछ ऊँचे इलाकों के अतिरिक्त कुछ न बचा। मगर इस भीषण तबाही के बाद प्रांत की जीडीपी मजबूत होती गयी। कैसे?
लेखक एक अजीबोग़रीब थ्योरी का खुलासा करते हैं- “प्राकृतिक आपदा अर्थव्यवस्था की प्रगति में सहायक सिद्ध होती है।”
अचानक तेज गति से पुनर्निर्माण शुरू होता है, नए जॉब आते हैं, विदेशी फंडिंग आती है, इकॉनॉमी बूम करने लगती है। दूसरी बात यह कि असेह के लोग सदियों से सोना (gold) को खूब महत्व देते रहे। उनका सब कुछ लुट गया, न घर बचा, न परिवार, न नौकरी, न मुद्रा का मूल्य। मगर दबाया हुआ, या लेकर भागा गया सोना बच गया!
- जाटारी (जॉर्डन)- यह दुनिया का सबसे तेज़ी से बढ़ता शरणार्थी कैंप है, जहाँ सीरिया से शरणार्थी आए हैं। यहाँ के लोगों का सब कुछ लुट चुका है, और ये संयुक्त राष्ट्र सहयोग पर आश्रित हैं। किंतु यहाँ का रोज़गार दर फ्रांस से अधिक है, और इनकी कुल कमाई 14 मिलियन डॉलर से अधिक है। कैसे?
लेखक एक कमाल का उदाहरण देते हैं। वह लिखते हैं,
“हम पैसे लेकर सुपरमार्केट जाते हैं, अपनी ज़रूरत की चीज खरीद कर लाते हैं, हमारी जेब खाली हो जाती है। जाटारी में लोग खाली जेब सुपरमार्केट जाते हैं, वे चीज खरीदते हैं जिसकी ज़रूरत नहीं होती, और भरी जेब वापस आते हैं”
दरअसल उनको संयुक्त राष्ट्र एक कार्ड में पैसे भर कर देती है, जिससे राशन खरीदें। वे राशन के बजाय टिन-बंद चीजें खरीद कर उन्हें जॉर्डन वालों को बाहर ब्लैक में बेच देते हैं। वहीं उनके परिवार के किशोर चुपके से भाग कर सीरिया से सस्ती चीजें उठा कर ले आते हैं, और उनका बाज़ार लगा देते हैं। इस तरह शून्य लागत से एक फलती-फूलती ‘अवैध’ अर्थव्यवस्था तैयार!
- लुसियाना जेल, अमेरिका – यह अमेरिका के सबसे भयावह कारागारों में है, जहाँ जो एक बार अंदर जाता है, लगभग कभी बाहर नहीं आता। वहाँ डॉलर के नोट का प्रयोग वर्जित है। बाहर से सामान लाना वर्जित है। लेकिन, उस जेल में एक पूरी व्यापार व्यवस्था फल-फूल रही है। जो चाहिए, वह मिल जाएगा। कैसे?
यह सिस्टम समझना कठिन नहीं। ज़ाहिर है गार्ड को घूस देकर ऐसा किया जाता होगा। मुद्रा के रूप में सिगरेट का प्रयोग अमरीकी जेलों में आम है। मगर यहाँ सिगरेट भी बैन कर दी गयी, फिर जेल-वासियों ने एक अदृश्य मुद्रा का आविष्कार किया। आखिर मुद्रा होती ही क्या है? एक प्रॉमिशनरी नोट? यहाँ अब काग़ज़ पर बनाया एक बिंदु ही मुद्रा है!
अगला खंड इसके ठीक विपरीत है – बर्बादी का अर्थशास्त्र
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बर्बादी का अर्थशास्त्र समझने के लिए भारत के किसी जीर्ण-शीर्ण राजमहल को देख लें, जिसके स्तंभों पर लगे हाथियों के सूँड़ टूट चुके हैं, और उनकी जगह अमरबेल निकल आयी है। असीम समृद्धि वह गौरवशाली हाथी है, जिसे पालना इतना आसान नहीं होता।
लेखक तीन उदाहरण चुन कर यात्रा करते हैं।
- डैरियन गैप, पनामा- इस घने वर्षा-वन के नीचे वह सोने की खान है, जिसकी तलाश में कभी क्रिस्टोफ़र कोलंबस आए थे। यह दुनिया की सबसे अमीर जगह हो सकती थी, लेकिन आज हालात यह है कि उत्तर अमरीका से दक्षिण अमरीका के छोरों को जोड़ता शानदार हाइवे सिर्फ़ एक स्थान पर टूट जाता है। यहीं, डैरियन गैप में। यहाँ न पक्की सड़क है, न उद्योग हैं, और न नयी दुनिया के बाशिंदे। क्यों?
पहला कारण यह कि इन जंगलों में कोलंबिया के गुरिल्ला विद्रोही छुपे हैं, जिनकी तुलना नक्सलों से हो सकती है। दूसरा कारण कि यह आदिवासी इंडियनों के लिए सुरक्षित है, जिन्हें नयी दुनिया से दूर रखा जाता है। तीसरा कारण कि इस रास्ते अमरीका में अवैध तस्करी होती है। पेड़ों की अवैध कटाई से लेकर मानव-तस्कर तक।
लेखक को इन दलदलों से गुजरते छह सिख भारतीय मिलते हैं, जो पंजाब से अमरीकी स्वप्न पाले चले हैं, उन्हें यहाँ ठग-लूट लिया जाता है। लेकिन उन्हें विश्वास है कि एक बार अमरीका घुस गए, तो कभी न कभी गाँव से अपनी बीवी-बच्चों को ले आएँगे।
- किंशासा, जायरे/कॉन्गो- यहाँ हीरे की खान है। आज जितनी भी मोबाइल फ़ोन से टेस्ला कार तक की बैटरी में कोबाल्ट लगता है, उसका सत्तर प्रतिशत यहीं से आता है। यहाँ की नदी और वर्षावन अतुल्य हैं। यह दुनिया का सबसे अमीर देश हो सकता था, मगर सबसे गरीब देशों में है। क्यों?
पहला कारण तो स्पष्ट ही है- भ्रष्टाचार। यहाँ हर चीज में रिश्वत है, यहाँ तक कि टैक्स भरने में भी रिश्वत जोड़ कर देना पड़ता है। दूसरा कारण है- कुप्रशासन, जिसके लिए एक तानाशाह ज़िम्मेदार थे। जब उनके देश में बच्चे भूखे मर रहे थे, उनके बाल काटने के लिए न्यूयार्क से नाई आते थे। तीसरा कारण है यूरोपीय देशों द्वारा इनकी संपदा को चूस लेना। वह आज भी कायम है। एक क्रूर विडंबना है कि जब पर्यावरण-रक्षा के लिए लोग विद्युत कार खरीदते हैं, तब कॉन्गो के कमउम्र बच्चे उनके लिए कोबाल्ट की खुदाई कर रहे होते हैं।
- ग्लास्गो, स्कॉटलैंड- मैंने हाल में बूकर पुरस्कृत पुस्तक ‘शुग्गी बेन’ पढ़ी तो इस मायानगरी का सच सामने दिखा। कभी यह दुनिया का सबसे सम्पन्न और आधुनिक नगर था जहाँ जेम्स वाट से केल्विन जैसे वैज्ञानिक हुए। यह औद्योगिक क्रांति का मूल केंद्र था, जहाँ वे जहाज बने जिनसे लोगों ने दुनिया फ़तह की। लेकिन यही शहर अन्य ब्रितानियाई नगरों की अपेक्षा बीसवीं सदी में सबसे तेज़ी से बर्बाद हुआ। क्यों?
पहला कारण यह कि ये दुनिया से ताल नहीं बिठा सके। जापान इनसे कहीं अधिक सस्ता और बेहतर जहाज बनाने लगा, और बाज़ार वहाँ शिफ्ट हो गया। दूसरा यह कि यहाँ की जनता शराब और तंबाकू में इस कदर डूबी कि काम-धंधा चौपट होता गया। तीसरा कि यहाँ का प्रशासन एक-के-बाद एक ग़लत योजनाएँ बनाता चला गया। जिस शहर में कभी लोग ताला नहीं लगाते थे, वह चोरी-चकारी जैसे अपराध का गढ़ बन गया।
खैर, आगे बढ़ता हूँ।
पुस्तक का तीसरा खंड तीन चरम सफलताओं की गाथा है। खंड का शीर्षक है- भविष्य का अर्थशास्त्र
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क्या समृद्धि, बेहतर स्वास्थ्य और तकनीकी विकास नयी दुनिया की कुंजी है? क्या वही रास्ता सर्वश्रेष्ठ है? वही हमारा भविष्य है?
रिचर्ड डेविस की अगली यात्रा तीन ऐसे स्थानों से गुजरती है।
- अकीता, जापान – जिन्होंने हरारी की ‘होमो डेयस’ पढ़ी है, वे शायद इस कल्पना से परिचित हों कि मनुष्य एक दिन अमरत्व पा लेंगे। मगर क्या दुनिया इस तरह चल पाएगी कि लोग मरे ही नहीं?
अकीता ऐसी जगह है, जहाँ तिहाई जनसंख्या 65 से ऊपर है, जिनमें कई शतायु भी हैं। वहाँ हर जगह बुजुर्ग ही बुजुर्ग दिखते हैं। चालीस-पचास उम्र वाले युवा कहलाते हैं, जिनको कई वृद्ध क्लबों में जगह नहीं मिलती। सत्तर से ऊपर उम्र के लोगों की तगड़ी फुटबॉल टीम है। पचहत्तर के ऊपर के डांस क्लब हैं।
समस्या यह है कि यहाँ बच्चे नदारद हैं। स्कूल खाली जा रहे हैं। नौकरीपेशा नाराज़ हैं कि मेहनत कर कमा हम रहे हैं, मज़े बुजुर्ग ले रहे हैं। पिछले दो दशकों में ही बुजुर्गों के लिए कई अपमानसूचक जापानी शब्द बन चुके हैं। कई बुजुर्ग अपना ध्यान रखने के लिए रोबोट पाल रहे हैं, यहाँ तक कि कृत्रिम कुत्ते घुमा रहे हैं। अकीता के युवा इंतज़ार कर रहे है कि ये ‘बुड्ढे’ आखिर कब मरेंगे!
- तालिन, एस्टोनिया- यह दुनिया का पहला पूर्ण डिजिटल राज्य है। यहाँ सिवाय विवाह, तलाक़ और जमीन-खरीद के, किसी भी कार्य में व्यक्ति की ज़रूरत ही नहीं। सब कुछ ऑटोमेटेड है, और नागरिकों के पहचान कार्ड से लिंक है।
यह ताज्जुब की बात है कि सोवियत से अलग हुआ यह मामूली देश तकनीक का गढ़ है, जहाँ स्काइप (Skype) जैसे प्रोग्राम बने और प्राथमिक विद्यालयों में बच्चे कंप्यूटर कोडिंग सीखते हैं। हद तो यह कि खेती के लिए इन्होंने एक ‘क्लिक एंड ग्रो’ मशीन बना ली है, जो घर में लगाइए और वह दर्जन भर पौधे एक साथ उगा कर पानी-खाद सब मेन्टेन करता रहेगा।
लेखक चिंता जगाते हैं कि अगर हर काम मशीन ही करने लगेगी, और लोग सिर्फ़ बैठ कर विडियो गेम की तरह मशीन चलाते रहेंगे, तो क्या यह अच्छा होगा? उन्होंने लिखा है कि एस्टोनिया वह प्रयोगशाला है जिस पर पूरी दुनिया की नज़र है। अगर उनका यह डिजिटल बुलबुला फूटा, तो कई देश इससे सबक लेंगे। अगर चल गया, तो अच्छा ही है।
- सैन्टियागो, चिली- यह उदाहरण भारत के भविष्य से कुछ साम्य रखता है। यह दक्षिण अमरीका का ऐसा ‘विकसित’ देश है, जो तेज़ी से समृद्धि की ओर बढ़ रहा है। यहाँ की प्रति व्यक्ति आय 14000 डॉलर है, जो दक्षिण अमरीका में सर्वाधिक है। लेकिन, समस्या यह है कि इसका बड़ा हिस्सा दस प्रतिशत से कम लोगों के हाथ में है।
यह दुनिया की सबसे विषम विकसित अर्थव्यवस्थाओं में है, जहाँ कुछ के पास अकूत धन है, एक बड़ी जनसंख्या गरीब है, और एक उतनी ही बड़ी जनसंख्या मध्य-वर्ग है जो ठीक-ठाक आय पर मेहनत कर देश चला रही है।
क़िस्सा यूँ है कि अमरीका ने वर्षों पहले एक एक्सचेंज प्रोग्राम चालू किया, जिसमें चिली के कुछ विद्यार्थी दो वर्ष शिकागो जाकर पढ़ते, और अमरीकी गुण सीखते। वे ‘शिकागो ब्वायज’ कहलाए जो चिली को अमरीका के पथ पर ले गए, और वहाँ के सबसे रईस पूँजीपति बने। अर्थव्यवस्था उनके परिवारों के हाथ रही।
लेखक लिखते हैं, “जैसे-जैसे आप मेट्रो से चलते हैं, हर स्टेशन के साथ लोगों की आय घटती जाती है, स्कूल-कॉलेज का स्तर घटता जाता है। यहाँ मुहल्ले के नाम से लोग बता देते हैं कि यह मुहल्ला गरीब है या अमीर। धनी मुहल्लों से बच्चे ऊँचे अंक लाकर अच्छी नौकरियाँ पाते हैं, गरीब मुहल्लों के बच्चे उन महंगे स्कूलों में दाखिला ही नहीं ले पाते। धीरे-धीरे इस विकसित देश में एक शैक्षणिक रंगभेद (Educational Apartheid) स्थापित हो चुका है।”
इन तीन खंडों में वर्णित नौ स्थानों से दुनिया की अर्थव्यवस्था का एक खाका नज़र आता है। वे सीमाएँ नज़र आती है, जिनके मध्य बाकी देश स्थित हैं। कुछ सीमाएँ लाँघी जा सकती है, कुछ से बचा जा सकता है।
Dr Ashok Kumar Sharma
July 6, 2022 at 12:21 am
झा साहब को हक है प्रवीण कहलाने का।
शानदार समीक्षा। किसी दक्ष मंजरनामे की खूबियां। कसी हुई और बुलेट स्पीड भाषा। किताब का शिल्प कुछ भी हो, आपका कथ्य बेहद असरदार और आसानी से समझ आनेवाला है।
प्रवीण जैसे किस्सा गो हों, तो अर्थशास्त्र को पंचतंत्र भी बनाया जा सकता है।
उम्र में बड़ा हूं (आप गलती से मुझे सचमुच का बूढ़ा भी मान सकते हैं) आपको आशीष देने का हक भी है। सो एक ट्रक भर कर आशीष।