पाठकों पर दया करो, हे दयाशंकर!
दयाशंकर की किताब 21वीं सदी में भारत के पहले पुनर्जागरण की गाथा नहीं, राहुल के पक्ष में किया जाने वाला घटिया स्तर का प्रोपेगेंडा है! अपनी भ्रष्ट और अनैतिक हरकतों को नैतिकता का जामा पहनाने वाले पत्रकार दयाशंकर मिश्र की किताब में न तो कोई तथ्यात्मक विश्लेषण है, न ही निष्पक्षता का कोई अंश। किताब का टाइटल देखकर ही अंदाजा लग जाता है कि ये कोई पैंफलेट टाइप की चीज है, जो निहित स्वार्थों के तहत अपने राजनीतिक आका को खुश करने के लिए लिखी गई है।
21वीं सदी में भारत के पहले पुनर्जागरण की गाथा लिखने की बात करते हैं दयाशंकर, लेकिन शायद पुनर्जागरण शब्द को ढंग से जानते भी नहीं। पुनर्जागरण न तो किसी एक व्यक्ति के जरिये होता है, और न ही कुछ वर्षों में ये संभव होता है और न ही इसका फलक इतना संकुचित होता है। दया के पुनर्जागरण की परिभाषा बस राहुल गांधी के बयानों तक सीमित है, कौन से क्रांतिकारी और व्यापक बदलाव भारतीय समाज में हो गए इन बयानों की वजह से, उसके बारे में कुछ पता ही नहीं। आखिर कुछ हुआ हो तो पता चले।
किताब 751 पृष्टों की है, लेकिन मौलिक लेखन ग्यारह पन्नों से भी कम। पूरी किताब अलग- अलग घटनाओं पर अलग – अलग लोगों के सिर्फ बयानों से भरी है, जो अपनी निष्पक्ष सोच नहीं, बल्कि एकांगी सोच के लिए जाने जाते हैं। ज्यादातर उद्धरण उन्हीं पत्रिकाओं और वेबसाइट्स से हैं, जिनकी अपनी फंडिंग ही नहीं, उन्हें चलाने वाले लोग भी विवादों से भरे रहे हैं। पन्ने भरे गये हैं, जस का तस बयानों, साक्षात्कारों और भाषणों को लगाते हुए, विश्लेषण के नाम पर कुछ नहीं।
किताब कितनी निष्पक्ष या फिर एकांगी है, इसकी झांकी भी आभार प्रदर्शन से मिल जाती है। ऑल्ट न्यूज़, न्यूज़लॉन्ड्री, द वायर, आर्टिकल 14, न्यूजक्लिक, रवीश कुमार, एजाज अशरफ, मोहम्मद जुबैर, ये सब वो नाम और संस्थाएं हैं, जिन्होंने या तो दया का किताब लिखने में मदद की है या फिर जिनकी रपटों का सहारा लिया है दया ने अपने किताब को भारी- भरकम कागजों का बस्ता बनाने में।
यही नहीं, जिस संस्थान (नेटवर्क18) में बैठकर करीब पौने पांच साल तक तनख्वाह लेते रहे, उसी संस्थान के अपने जूनियर कर्मचारियों को भी चोरी- छिपे लिखी गई अपनी किताब के प्रोजेक्ट में शामिल किया दया ने। इसकी झलक किताब के तीसरे पन्ने पर ही उस नंदलाल शर्मा को आभार के तौर पर दिख जाती है, जिसने न्यूज़18 में पहले दया के अंदर नौकरी करते हुए किताब लिखने में सहयोग दिया और अब इस प्रोपेगेंडा बुक का सोशल मीडिया के जरिये प्रचार करने में भी लगा हुआ है।
ग्यारह खंड की किताब और 116 अध्याय। कई अध्याय तो शुरू नहीं हुए कि खत्म हो गये, दो से तीन पन्नों में सिमटे हुए। किसी ढंग के प्रकाशक ने हाथ लगाया नहीं, तो इसका कारण कोई दबाव नहीं, बल्कि खुद घटिया ढंग का लेखन और बेतरतीब संपादन है। न तो इसमें एक संपादक की लेखनी का कसाव दिखता है और न ही तथ्य और सत्य के प्रति प्रतिबद्धता, जिसका दावा किया जा रहा है। प्रतिबद्धता है तो सिर्फ राहुल गांधी के प्रति, कैसे सदी का सबसे बड़ा हीरो उन्हें दिखाया जाए।
आज के जमाने में जहां ढाई सौ पेज से अधिक की किताब न तो जल्दी प्रकाशित होती है और न ही कोई हाथ लगाता है, उसमें साढे सात सौ पन्ने और वो भी बिना किसी सर- पैर के है ये किताब। उन कांग्रेसियों के लिए भी ये सर पर हथौड़ा जैसा साबित होने वाला है, जो इसे हाथ लगाने की हिम्मत करेंगे। आखिर किताब न सही, पैंफलेट ही अगर हो, रोचक हो तो पढ़ने में भी अच्छा लगे, अखबारों, पत्रिकाओं और भाषणों को एक नत्थी में बांधकर परोस दिया जाए, तो भला कौन झेलेगा, वो भी करीब साढ़े सात सौ रुपये खर्च कर।
न्यूज18 डिजिटल में कार्यरत एक मीडियाकर्मी द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित.
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मतलब इस तरह की खबरें आप भी हवाले से छापने लगे?