चुनाव आए और गए पर सवाल उन विवादास्पद सवालों का है जिनसे ‘हेट स्पीच’ के नाम से हम परिचित होते है। हेट स्पीच से हमारा वास्ता सिर्फ चुनावों में ही नहीं होता पर यह जरुर है कि चुनावों के दरम्यान ही उनका मापन होता है कि वो हेट स्पीच के दायरे में है। हम यहां इस पर कतई नहीं बात करेंगे कि ऐसे मामलों में क्या कार्रवाई हुई? पर इस पर जरुर बात करेंगे कि उस हेट स्पीच का हम पर क्या असर हुआ, वहीं उनके बोलने वालों की प्रवृत्ति में क्या कोई बदलाव आया?
अगर, हम हेट स्पीच की शिकायतों का अध्ययन करें तो वो ज्यादातर अल्यपसंख्यक विरोधी या फिर मुस्लिम विरोधी कहना सही होगा, होती हैं। पिछले दिनों जो मसला चाहे वह ‘लव जिहाद’ को लेकर उछला हो या फिर धर्मांतरण का चुनाव के खात्में के साथ ऐसे मुद्दों की जो बाढ़ सी आ गई थी, उनके समाचारों में भी काफी कमी या कहें कि न के बराबर हो गई हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि समाज में जिन ‘लव जिहादियों’ की बात की जा रही थी, वो एकाएक कहां चले गए?
मुजफ्फरनगर को ही लें जहां अगस्त-सितंबर 2013 में इसी मुद्दे के इर्द-गिर्द सांप्रदायिक तनाव का पूरा खाका रचा गया। बीते 2014 उपचुनाव के पहले भी एक बार फिर माहौल बनाया गया धर्मांतरण और ‘लव जिहाद’ का। दरअसल, हमारे समाज का पूरा ढांचा सामंती, पुरुषवादी सत्ता के सांचे पर गढ़ा गया है। उसमें वो सभी तत्व निहित हैं जो आज किसी भी फासीवादी राजनीति की जरूरत होती है। मतलब कि हमारे समाज की पूरी बुनावट और उसको उद्वेलित करने वाली राजनीति एक दूसरे का इस्तेमाल करती है। न कि राजनीति ही सिर्फ समाज का इस्तेमाल करती है।
समाज और उसमें पल-बढ़ रहे प्रेम संबन्धों पर अगर गौर किया जाए तो जो लोग इन दिनों इस बात का आरोप लगा रहे थे कि मुस्लिम समाज के लड़के हिंदू समाज की लड़की को प्रेम में फंसाकर धर्मांतरण और विवाह करते हैं, उनकी प्रेम और विवाहो पर स्थिति का भी आकलन किया जाना चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं है कि समाज का सामंती ढांचा एक तीर से दो निशाने कर रहा है और बड़ी खूबसूरती से कह भी दे रहा है कि हमारी तो मेल-जोल की संस्कृति थी।
अगर, मेल-जोल की संस्कृति थी तो वह संस्कृति किसी एक चुनाव या फिर किसी हिन्दुत्वादी संगठन के प्रभाव में बदल जाती है तो इतनी आसानी से बदलने वाली ऐसी ‘संस्कृति’ भी सवालिया निशाने पर आ जाती है। इसका आकलन सिर्फ हिंदू-मुस्लिम लड़की और लड़के के मामले से हटकर अगर किया जाए तो देखेने को मिलता है कि महिला हिंसा की वारदातों के बाद समाज उद्वेलित होता है। पर जैसे ही सवाल लड़की-लड़के के प्रेम संबन्धों पर आकर टिकता है, उससे समाज पीछे भागने लगता है या फिर एक दूसरे जाति या समुदाय की उस लड़की के चरित्र पर ही सवाल उठाने लगता है। ठीक यही प्रवृत्ति संचार माध्यमों की भी ही है।
उत्तर प्रदेश बदायूं प्रकरण खासा चर्चा में रहा जहां, दो लड़कियों की शव पेड़ पर टगें मिले जिस पर राष्ट्रीय ही नहीं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर दलित संगठनों ने विरोध किया। पर जैसे ही मामला सामने आया कि लड़कियां पिछड़ी जाति की थीं तो विरोध की ‘दलित आवाजें’ गायब होने लगी। दरअसल, समाज में लड़की के साथ हुई हिंसा को लड़की के साथ हुई हिंसा न मानकर हमारे जाति या हमारे समुदाय के साथ हिंसा होना मानकर चला जाता है। अगर इसी बीच कहीं से यह बात सामने आ जाए कि लड़की के प्रेम संबन्ध थे, तो विरोध के स्वर और धीमे हो जाते हैं। वहीं लड़की जिसके मेधावी छात्रा होने या ऐसे गुणों पर समाज गर्व करता है, वो उससे किनारा करने लगता है। इसे पिछले दिनों अमानीगंज, फैजाबाद में हुई घटना में भी देख सकते हैं, जिसमे ‘लव जिहाद’ का प्रोपोगंडा किया गया।
पर जैसे ही यह बात साफ हुई की लड़की और लड़का बहुत दिनों से एक दूसरे को न सिर्फ जानते थे, बल्कि उनके बीच प्रेम भी था, उनके आपस में बात-चीत के 1600 मोबाइल काल के रिकार्ड और ऐसी बातों के आने के बाद मामला शांत हो गया। ‘ये तो होना ही था’ मानने वाला समाज ‘ऐसी लड़की’ से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता है और जो उसके साथ हुआ ऐसा ही कुछ वो भी करता इसका भी साफ संकेत देता है।
मतलब, कि लड़की के साथ हुई हिंसा के प्रति समाज नहीं खड़ा हुआ था वह तो अमुक जाति और समुदाय के खिलाफ खड़ा हुआ था। पर जैसे ही उसे पता चला कि उसके प्रेम संबन्ध थे वह उससे रिश्ता तोड़ लेता है। इसका, मतलब कि लड़के-लड़कियों को लेकर हो रहे तनाव के लिए सिर्फ फासीवादी राजनीति ही नहीं जिम्मेदार है बल्कि हमारा समाज भी सहअभियुक्त है। जो अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए ऐसे अवसरों की तलाश करता है।
अब बात अगर हेट स्पीच करने वालों की करें तो पिछले दिनों भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ का आजमगढ़ जिले में 2008 उपचुनाव के दौरान दिए गए उस वीडियो फुटेज के सामने आने के बाद खासा चर्चा में रहा, जिसमें वो एक हिंदू लड़की के बदले सौ मुस्लिम लड़कियों को हिंदू बनाने की बात कर रहे हैं। डाक्यूमेंट्री फिल्म ‘सैफ्रन वार’ के इस विडियो फुटेज जिसको आजमगढ़ जिला प्रशासन ने नकार दिया था कि ऐसा कोई भाषण आदित्यनाथ ने दिया ही नहीं, उसे न सिर्फ आदित्यनाथ ने अपना माना बल्कि उससे बढ़कर उसे सही ठहराने की भी कोशिश की।
यहां सवाल है कि अगर उस वीडियो फुटेज में ऐसा कुछ आपत्तिजनक नहीं था तो उस पर क्यों बहस हो रही थी? मतलब कुछ न कुछ था जिससे आदित्यनाथ को बचाने के लिए प्रशासन ने झूठ बोला। वहीं आदित्यनाथ उससे एक कदम आगे बढ़कर सार्वजनिक रुप से और अधिक आक्रमक हुए। आखिर यह हौसला उनको कहां से मिला, इसके लिए सिर्फ चुनाव आचार संहिता के दरम्यान उनको दी गई चुनावी छूट ही नहीं जिम्मेदार थी, बल्कि समाज की आचार संहिता की छूट की भी आपराधिक भूमिका थी।
आज इसीलिए कहा जाता है कि सांप्रदायिकता के सवाल को मत उठाइए क्योंकि इससे सांप्रदायिक ताकतों को ही लाभ मिल जाएगा, दरअसल इसलिए कि हमारे समाज में सांप्रदायिकता निहित है, जो बस किसी एक चिंगारी की बाट जोहती है।
लेखक राजीव यादव सोशल एक्टिविस्ट हैं.
Comments on “हमारे समाज में सांप्रदायिकता निहित है, जो बस किसी एक चिंगारी की बाट जोहती है”
yadav ji aap ki ankho par hare rang ka chasma laga huva h is liye aditynath ka bhasan to aap ko dikhai deta h lekin ovesi ke bare me kabhi socha h, media ka yah dohra charitra hamesa se raha, is liye hi islami aatankvad bharat me badh raha h