Connect with us

Hi, what are you looking for?

सुख-दुख

कुमार गन्धर्व होते तो आज सौवें साल में प्रवेश करते… शून्य शिखर पर अनहद बाजै!

हेमंत शर्मा-

सन्दर्भ पं कुमार गन्धर्व जन्म शताब्दी : शून्य शिखर पर अनहद बाजै।

गायकी के गन्धर्व और संगीत के कबीर, कुमार गन्धर्व होते तो आज सौवें साल में प्रवेश करते। यह उनका जन्मशताब्दी वर्ष है।काल जब प्रतिभा को पूरी निर्ममता और क्रूरता के साथ मसलने की कोशिश करता है तो उस यातना से जन्‍मने वाली कला कालजयी होती है। इसलिए कुमार गन्धर्व कालजयी हैं।रेशम की तरह गुँथी उनकी आवाज़ नैसर्गिक थी।उनके लिए तानपुरा यंत्र नहीं जीवन था। कुमार जी संगीत की सभी स्थापनाओं और परिभाषाओं को पार कर गए थे। कुमार गंधर्व मौन, संगति असंगत‍ि, प्रकृति, विचार, मनोभाव और रहस्‍य को गाते थे। वह चेतना के स्‍वर से हमारा संवाद थे। कुमार गंधर्व अनहद नाद से हमारा पहला परिचय थे ।

Advertisement. Scroll to continue reading.

आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को जैसे साहित्यिक विमर्श के केंद्र में स्थापित किया। वैसे ही कुमार गन्धर्व ने कबीर को शास्रीय संगीत के केन्द्र में स्थापित किया। पंडित कुमार गंधर्व का संगीत विद्रोह का संगीत है। उनका गायन कालातीत, सर्वकालिक है। बिलकुल ताज़ा हवा की तरह। कुमार गंधर्व को सुनने वाले जानते हैं कि वह शून्‍य से स्‍वर उठा लाते थे और फिर सुनने वालो को अपने संगीत लोक में ले जाते थे।यह सब इतना अनायास होता था कि … अवधूता गगन घटा घहरानी…….. उठते ही ताल स्‍वर नाद कानों से उतर कर चेतना के तंत्र हिला देता था। उन्‍हें सुनने वाले हर व्‍यक्‍ति ने यह तो कहा होगा कि कबीर अधूरे रह जाते यदि उन्‍हें कुमार जी न म‍िलते। लिंडा हेस ने अपनी किताब “सिंगिग इम्‍पटीनेस कुमार गंधर्व परफॉर्मस पोयट्री ऑफ कबीर ” में लिखा भी है कि कबीर जिस रिक्‍तता के दर्शन को सुना गए, कुमार गंधर्व ने उसे सुरों में साध कर अमर कर दिया। आज से उनका शताब्दी समारोह शुरू हो रहा है।

वे नाद के ज़रिए अनहद खोजते थे।देवास के जिस माता के टीले पर कुमार जी रहते थे।उसका शिखर उनके न रहने से भले शून्य हो।पर उस शिखर पर उनके स्वर की ध्वजा आज भी फहरा रही है।जिस पर कुमार गन्धर्व का नाम लिखा है। कुमार जी का गायन उनका अपना था।उन्होंने किसी से सीखा नहीं था।खुद गढ़ा था। इसलिए अपने जमाने में वह सबसे अलग था।सूर ,तुलसी ,मीरा आदि भक्त कवियों से कबीर की तुलना करते हुए कुमार जी कहा करते थे कि बाक़ी के सब परम्परा की कुलीगिरी करते हैं।यानी परंपरा को ढोते हैं।एक कबीर ही हैं जिन्हे दैन्य छू तक नहीं गया है।कबीर को गाते गाते वे सामान्य जन को भी अपनी तानों के इहलोक से रहस्य लोक में पहुँचा देते।उन्होंने कबीर को गाया ही नहीं ज़ीया भी।इसलिए वे परम्परा ,सत्ता ,व्यवस्था सबको ठेंगे पर रखते थे।

जैसे बरसात से गीली ज़मीन में कभी कभी समय से पहले अंखुआ फूटता है। वैसे ही सिर्फ़ छ साल की उम्र में सिद्धारमैया कोमकाली के गले से स्वर फूटे थे।और ग्यारह बरस की उम्र होते होते सिद्धारमैया संगीत की अलौकिक साधना से कुमार गन्धर्व बन गए।यानी जिस उम्र में बच्चे तुतलाते हैं।उस उम्र में कुमार गन्धर्व गाने लगे थे।इसी विलक्षणता से कुमार गंधर्व ने संगीत को और संगीत ने कुमार जी को पूरी तरह आत्मसात कर लिया।कुमार जी रागदारी की शुध्दता में कल्पनाशीलता का मोहक समावेश करते हैं।अपने प्रयोग से शास्त्रीयता में लोक और समकाल की छवि उकेरने वाले कुशल चितेरे बनते हैं।संगीत में चली आ रही धारा से अलग लीक बनाते हैं।निर्गुण को नयी प्रतिष्ठा देने वाले वे अद्भुत शिल्पी हैं ।कुमार जी के लिए संगीत और संगीत के लिए कुमार जी कभी किसी दायरे में नहीं बंधे।

Advertisement. Scroll to continue reading.

बीते साल जब कुमार जी की पुत्री कलापिनी कोमकाली और पौत्र भुवनेश कोमकाली कुमार जी की शताब्दी वर्ष की योजना लेकर आए। तो मैंने कहा कि यह शताब्दी वर्ष किसी एक जगह नहीं पूरे देश में मनाया जाना चाहिए। कुमार जी की जन्मस्थली, कर्मस्थली और देश में संगीत के सभी बड़े केन्द्रों पर उनकी याद में समारोह हो।क्यों की कुमार जी देश काल की सीमा से परे है।फिर योजना भी ऐसी ही बनी कि मुंबई से शताब्दी समारोह का आग़ाज़ होगा। जो पुणे,उज्जैन, भोपाल , दिल्ली और बनारस तक पसरेगा।कल मुंबई में इसकी शुरुआत हुई।

सौ साल पहले कर्नाटक के बेलगाम में सुलभावी गांव के शिव मंदिर के पास गायकों के परिवार में शिवपुत्र सिद्धारमैया कोमकली का जन्म हुआ।जन्म के वक्त ही पास के मठ के स्वामी ने इस विलक्षण बालक को पहचान और उसका नाम कुमार गंधर्व दिया।बचपन से ही वह किसी भी तरह के संगीत को पूरी तरह याद और उसकी नकल कर सकते थे।10 साल की उम्र में वह बीआर देवधर से मुंबई में संगीत की शिक्षा लेने लगे जिन्होंने मुंबई के ओपेरा हाउस में म्यूजिक स्कूल खोला था।

Advertisement. Scroll to continue reading.

यह 1935 की बात है।उस साल बंबई के जिन्ना हॉल में आयोजित संगीत परिषद के कार्यक्रम में कुमार गंधर्व को भी बुलाया गया।सारा हॉल खचाखच भरा था।कहीं खड़े रखने की जगह नहीं थी।रसिकों की भारी भीड़ थी। ऐसी स्थिति में उम्र से बारह किंतु दीखने में नौ वर्ष का बाल कुमार स्टेज पर आ बैठा और उसने सभा पर अपनी आवाज़ का ऐसा सम्मोहन अस्त्र चलाया। कि सभा उसकी पकड़ में आ गई।हॉल में उनके स्वर के प्रत्येक हरक़त पर दाद दी जा रही थी।हर चेहरे पर विस्मय का भाव था। उपस्थित रसिक एवं कलाकारो में इस लड़के की सराहना करने की होड़ मची। पुरस्कारों की झड़ी लग गई। उसकी प्रसिद्धि का ये आलम था कि उस नन्हे गायक का एक कार्टून दूसरे रोज 1 मार्च, 1936 को अखबार में प्रमुखता से छपा।

बंबई के 1936 के कार्यक्रम से पहले बालक कुमार इंदौर, इलाहाबाद, कलकत्ते, कानपुर और दिल्ली में कार्यक्रम कर चुके थे।अगले ही साल 1937 में एक फिल्म ‘नव-जवान’ में भी कुमार गंधर्व की गायकी पर फिल्मांकन किया गया।बालक कुमार संगीत मंच पर अपनी अलग पहचान बना ही रहे थे कि उन्हें ट्युबरकुलोसिस हो गया। यह साल 1947 के आखिर की बात है ये। गवैये के फेफड़ों को बीमारी लग गयी। अब क्या होगा ? उस वक्त टीवी साध्य रोग नहीं था। सिध्दारमैया कोमकाली की गायकी पर रोक लग गयी।हिन्दुस्तानी संगीत के इस उदीयमान कलाकार को टीवी का ग्रहण लग गया। डॉक्‍टरों कहा कि अब वह कभी गा नहीं सकेंगे। उन्‍हें थोड़ी गर्म और सूखी जगह जाकर रहने को गया क्‍यों कि बंबई की नमी से टीवी बढने का खतरा था।यह भारत की आजादी का साल था जब कुमार जी के संगीत को रोग की नज़र लग गई. स्‍वर घुट गया।फेफडे फूलने लगे। उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो के लिए जो रिकॉर्डिंग की, उसे लंबे समय तक उनकी आखिरी रिकॉर्डिंग माना जाता रहा।

Advertisement. Scroll to continue reading.

रोग से लड़ने के लिए कुमार जी को आबोहवा बदलनी पड़ी।उन्होने प्रकृति के क़रीब देवास के माता टीले पर अपना ठिकाना बनाया। यहॉं गायन तो संभव नहीं था, पर संगीत के लिए जिस मनन-चिंतन की अपेक्षा होती है।उसके लिए कुमार जी के पास देवास में खूब समय था।टीवी ने उनके फेफड़ों के फैलाने और फुलाने की ताक़त को सिकोड़ दिया।गायकी के लिए यह लाचारी थी।पर कुमार जी ने इस लाचारी को अपनी ताक़त बनाया। वे गायकी में छोटी तान ही ले पाते। यही उनकी विशिष्टता बनी।तपेदिक से खराब हुए फेफडो ने कुमार जी के संगीत को अलबेला स्‍वर दिया। बीमारी के छह साल के बाद जब उन्‍होंने दोबारा गाना शुरू किया तो वह और दिव्‍य हो गया।संगीत के समीक्षक मानते हैं कुमार जी के उस लंबे गानहीन मौन ने उन्हें जो स्‍वर की गमक और नाद की मूर्धन्‍यता दी।वह देवधर स्‍कूल वाले शिक्षक से नितांत अलग थी। अब कुमार गंधर्व संगीत के गायक नहीं दार्शनिक हो गए थे।और उनका गायन समय की सीमा को पार कर चेतना से संवाद करने करने लगा था।

मालवा ने कुमार गंधर्व को नया जीवन दिया। नई सॉंस दी। बिलकुल अनल पाखी ( फ़ीनिक्स) का तरह। कुमार गन्धर्व के स्वर राख से फिर जिन्दा हो गए । उन्होंने मालवा को उसके ही शब्दों और सुरों में पिरोकर कई अमर गीत दिए। कुमार मालवा के और मालवा कुमार का हो गया। 1952 में स्वस्थ होकर वह फिर से गाने लायक हुए। कुमार गंधर्व की संगीत-यात्रा की इस दूसरी पारी में और भी गुरुत्व आ गया। कुमार गंधर्व ने उन बंदिशों को सुर में बांधा, जो आसानी से श्रोता सुने और समझे।

Advertisement. Scroll to continue reading.

देवास ने कुमार जी को गढा।उस यंत्रणा ने जिसने उनका स्‍वर छीन लि‍या था वह स्‍वर की मौन साधना में बदल गई। कुमार अब लोक के स्‍वर सुन रहे थे। प्रकृति का हर स्‍वर साध रहे थे। मौन में संगीत सुन रहे थे,बुन रहे थे। देवास में ग्रामीण संगीत घूमक्कड़ संन्यासियों की तान और लोक गायकों के स्‍वर कुमार गंधर्व को स्‍वस्‍थ कर रहे थे।संगीत अब उनकी शिक्षा नहीं अंतर की ध्‍वनि बन गया था। लिंडा हेस जैसे उनके संस्‍मरणकार लिखते हैं कि कुमार चिड़‍ियों के स्‍वर को टेप में रिकार्ड करते थे।वे प्रकृति की अनसुनी ध्‍वन‍ियों और नाद को स्‍मृति में बिठाते थे।यहां से कुमार गंधर्व निर्गुण के हो गए। कबीर में रम गए। उनकी पुत्री कलापिन कोमकली कहती हैं कि देवास आकार कुमार गंधर्व संगीतकार से चिंतक और दार्शन‍िक में बदल गए।उन्‍होंने संगीत से उन रहस्‍यों को तलाशने की साधना प्रारंभ कर दी जो कबीर अपने निर्गुण से करते थे।

मालवा के गांववालों और घूमक्कड़ संन्यासियों या सूफी गायकों के गीत हमेशा उनकी जिंदगी में पार्श्व संगीत की तरह बजते रहे, नैपथ्य में। उन्होंने लोकसंगीत के तत्वों को राग में तब्दील किया, बिना उनकी शुद्धता से कोई समझौता किए। कुमार गंधर्व नहीं हैं लेकिन उनकी आवाज का जादू चलता रहेगा, टूटे दिल की पीर को ये जादू हरता रहेगा, आनंद का सुख देता रहेगा। ये वो आवाज है जिसके सामने सरहदें बेमानी हैं। ये वो आवाज है जो हर बंधन को तोड़कर वहां पहुंचता है जहां लोग सन्नाटे के शोर में लीन हो जाते हैं। हमें गर्व है कि जब हम रहे तो कुमार गन्धर्व गाते थे।

Advertisement. Scroll to continue reading.

लेखक हेमंत शर्मा टीवी9भारतवर्ष चैनल के निदेशक हैं.

Advertisement. Scroll to continue reading.
2 Comments

2 Comments

  1. मलय बनर्जी

    April 20, 2023 at 5:47 pm

    बहुत बहुत धन्यावद हेमंत जी. आपके इस लेख ने मुझे वास्तव में कुमार गंधर्व से परिचय कराया. उनकी गायकी की तरह ही आपने भी उनके जीवन चित्र और कला साधना को जिस सरलता और तरलता से व्यक्त किया है. पाठक आपके आभारी हैं. धन्यवाद.

  2. MALAY BANERJEE

    April 20, 2023 at 5:50 pm

    बहुत बहुत धन्यावद हेमंत जी. आपके इस लेख ने मुझे वास्तव में कुमार गंधर्व से परिचय कराया. उनकी गायकी की तरह ही आपने भी उनके जीवन चित्र और कला साधना को जिस सरलता और तरलता से व्यक्त किया है. पाठक आपके आभारी हैं. धन्यवाद.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement