लाखों मीडिया कर्मियों के आर्थिक भविष्य से जुड़े मजीठिया वेतनमान के मामले पर मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई के बाद न्यायाधीश रंजन गोगोई की खंडपीठ का राज्य सरकारों को आदेश बार बार एक चिंताजनक अंदेशे से रू-ब-रू कराता है। न्यायाधीश का आदेश है कि राज्य सरकारें विशेष श्रम अधिकारी नियुक्त करें और वे अधिकारी तीन महीने के भीतर मजीठिया वेज क्रियान्वयन की रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट में पेश करें। उसके बाद इस मामले पर अगली सुनवाई होगी। यानी साफ है कि अब मामला लंबा खिंचेगा।
नौकरी जाने के भय से मीडियाकर्मी अपने नियोक्ताओं से इतनी दहशत में हैं कि वे कोई रिस्क लेने को तैयार नहीं। वे ऐसे सहयोगियों से बात करना भी खतरे से खाली नहीं मानते, जो उनके लिए सुप्रीम कोर्ट में लड़ रहे हैं। तो क्या उनसे ये उम्मीद की जा सकती है कि कारपोरेट मीडिया के पक्षधर शासन-प्रशासन और सरकारों के अधीन काम करने वाले श्रम अधिकारियों के सामने वे फरियाद की हिम्मत जुटा सकेंगे? इक्का-दुक्का जुटा भी लें तो क्या गारंटी है कि उनकी बात उनके नियोक्ता, उनके मीडिया प्रबंधन की जानकारी में न आ जाए? उसके बाद क्या उस मीडिया कर्मी की नौकरी सुरक्षित रह पाएगी?
मामले पर सुनवाई तीन माह टल जाना एक तरह से मीडिया मालिकों के लिए सुअवसर जैसा है। वे जब आज तक सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवमानना करते हुए कर्मचारियों को हर तरह से घेर रहे हैं, ट्रांसफर, निष्कासन से लेकर ठेके पर रखने आदि के रूप में प्रताड़ित कर रहे हैं, अपने इम्पलाई से यह तक लिखवाने की पेशबंदी कर रहे हैं कि ‘मजीठिया वेतनमान नहीं चाहिए’, खुद जेबी यूनियन गठित कर रहे हैं, चारो तरफ उनके भेदिया रात दिन पता कर रहे हैं कि कौन-कौन कर्मी मजीठिया के लिए सक्रिय हैं या मुकदमा लड़ रहे लोगों के संपर्क में हैं तो श्रम इंस्पेक्टर से सरोकार रखना कैसे उनसे छिपा रह सकता है? श्रम विभाग औद्योगिक प्रतिष्ठानों के प्रति जितना वफादार पाया गया है, श्रम कानूनों के अनुपालन के प्रति वह जिस हद तक उदासीन रहता है, क्या ये अंदेशा विचारणीय नहीं कि मजीठिया मामले पर भी उसकी रिपोर्ट नियोक्ता के हित में कूटरचित हो सकती है? इस पर कानूनविद चाहे जो कहें।
एक बात और। आज तक केंद्र और राज्य की सभी सरकारें लाखों मीडिया कर्मियों के हित से जुड़े इतने गंभीर और सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना जैसे मामले पर तटस्थ और खामोश रही हैं, (क्योंकि उनकी राजनीति भी कारपोरेट मीडिया ही चला रहा है) तो आगे भी उनकी रहस्यमय चुप्पी से इनकार नहीं किया जाना चाहिए। सहयोग का एक और सिरा बचता है साहित्यिक और सामाजिक संगठनों का। उनमें नब्बे प्रतिशत छपासजीवी हैं। उन्हें वही डर अपना लिखा-पढ़ा छपने को लेकर है, जो डर मीडियाकर्मियों को अपनी नौकरियों को लेकर। पूरे मामले को इस तरह देखने से लगता है कि फैसला तो हो चुका है। जिनके लिए लड़ाई लड़ी जा रही है, वे रिस्क लेने से रहे। श्रम कार्यालयों का भ्रष्टाचार किसी से छिपा नहीं है। राजनेताओं की मंशा साफ है। फिर अंतिम अंजाम जानने के लिए बाकी क्या रह जाता है?
जयप्रकाश त्रिपाठी
सुरेंद्र सोढी
April 28, 2015 at 5:29 pm
तीन महीने की मोहलत हम जैसों के लिए अच्छी है जो वफादारी दिखा रहे हैं।
अब अगर लाभ मिला तो हमें भी मिलेगा और वह भी बिना कुछ किये धरे। और मुकदमा अगर चूंचूं का मुरब्बा होता है तो मेरा प्रोमोशन पक्का।
गोभी खोद कर रहूंगा। जय हरियाणा।