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मजीठिया: सुप्रीम कोर्ट के रुख पर मूंछ टेरने लगे जागरण के पालतू, मगर कर्मचारी भाव नहीं दे रहे

मजीठिया वेतनमान मामले पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद दैनिक जागरण प्रबंधन इतना कन्‍फ्यूजिया गया है कि वह यह तय ही नहीं कर पा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट में करोड़ों खर्च करने के बाद उसकी जीत हुई है या हार। फिर भी इतना तो तय है कि इसमें जीत वीरेंद्र मिश्रा की ही हुई है। डीलिंग सेटिंग में उनका जो लाखों का वारा न्‍यारा हो गया है। शायद यही वजह है कि वह आजकल मूंछों पर ताव देते फिर रहे हैं। मूछें हों तो वीरेंद्र मिश्रा जैसी हों, वर्ना न हों। पूरा प्रबंधन उन्‍हीं की मूंछों पर ताव देता फिर रहा है।

मजीठिया वेतनमान मामले पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद दैनिक जागरण प्रबंधन इतना कन्‍फ्यूजिया गया है कि वह यह तय ही नहीं कर पा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट में करोड़ों खर्च करने के बाद उसकी जीत हुई है या हार। फिर भी इतना तो तय है कि इसमें जीत वीरेंद्र मिश्रा की ही हुई है। डीलिंग सेटिंग में उनका जो लाखों का वारा न्‍यारा हो गया है। शायद यही वजह है कि वह आजकल मूंछों पर ताव देते फिर रहे हैं। मूछें हों तो वीरेंद्र मिश्रा जैसी हों, वर्ना न हों। पूरा प्रबंधन उन्‍हीं की मूंछों पर ताव देता फिर रहा है।

मूछें न होने के बावजूद सतीश मिश्रा कर्मचारियों का गला काटने के लिए नोएडा पधार गए हैं। दैनिक जागरण के नोएडा कार्यालय में आजकल जो हो रहा है, वह भले ही कर्मचारियों के लिए परेशानी का सबब हो, लेकिन प्रबंधन उसे पर्याप्‍त नहीं मान रहा है। शायद इसीलिए अत्‍याचार का स्‍तर ऊंचा करने के लिए सतीश मिश्रा के कुटिल ज्ञान की धारा प्रवाहित करने की तैयारी की जा रही है। प्रोडक्‍शन विभाग में कोई प्रबंधक चौड़ा होकर घूम रहा है तो बृज बिहारी चौबे किसी न किसी से इस्‍तीफा मांग कर यह साबित करने का प्रयास कर रहे हैं कि उन जैसे अज्ञानी को समाचार संपादक बना कर प्रबंधन ने ज्‍यादा बड़ी मूर्खता नहीं की है।

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अब सवाल यह है कि यदि दैनिक जागरण प्रबंधन जीत गया है तो उसे अत्‍याचार बढ़ाने की जरूरत ही नहीं पड़नी चाहिए। फिर भी अत्‍याचार किए जा रहे हैं। उसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि खूब अत्‍याचार करो। यदि लोग उसे सह लेंगे तो हमारी जीत, वर्ना हार। हालत यह है कि अब कोई अत्‍याचार सहने के मूड में नहीं है। हर कोई सीधा जवाब दे देता है। इससे प्रबंधन को यह भ्रम हो जाता है कि उसकी हार हुई है। उसकी जीत हुई होती तो पहले की तरह लोग उसके अत्‍याचार को सलाम करते और सिर झुका कर क्षमता से ज्‍यादा काम करते। ऐसा कुछ न होते देख प्रबंधन अपने को ठगा महसूस कर रहा है, लेकिन वीरेंद्र मिश्रा की मूछें उसे ऐसा महसूस नहीं करने दे रही हैं, भले ही कुछ लोग मौके पर कह देते हैं कि मूछें तो चूहे की भी होती हैं पर बिल्‍ली के एक पंच में उसका काम तमाम हो जाता है।

फोर्थपिलर एफबी वॉल से

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