Ravish Kumar : नागरिक निहत्था होता जा रहा है…. राजस्थान के डॉक्टरों की हड़ताल की ख़बर पर देर से नज़र पड़ी। सरकार ने वादा पूरा नहीं किया है।हमने प्रयास भी किया कि किसी तरह से प्राइम टाइम का हिस्सा बना सकें। मगर हम सब ख़ुद ही अपने साथियों से बिछड़ने की उदासी से घिरे हुए थे। हर दूसरे दिन संसाधन कम होते जा रहे हैं।
हम कम तो हुए ही हैं, ख़ाली भी हो गए हैं। साथियों को जाते देखना आसान नहीं था। वर्ना डॉक्टरों को इनबाक्स और व्हाट्स अप में इतने संदेश भेजने की ज़रूरत नहीं होती। आगरा से आलू किसान और दुग्ध उत्पादक भी इसी तरह परेशान हैं। दूध का दाम गिर गया है और आलू का मूल्य शून्य हो गया है। इन ख़बरों को न कर पाना गहरे अफसोस से भर देता है। कोई इंदौर से लगातार फोन कर रहा है।
सबने यही कहा कि एनडीटीवी के अलावा तो कोई हमारी स्टोरी करेगा नहीं। सबको इसी वक्त पत्रकारिता की याद क्यों आती है? आप समझते तो हैं फिर भी क्यों ऐसे अख़बार और चैनल के लिए पैसे देते हैं जहाँ पत्रकारिता के नाम पर तमाशा हो रहा है। हम सवाल करने की कीमत चुका रहे हैं। गुणगान करने वालों को कोई तकलीफ नहीं है। उनके पास सारे संसाधन हैं मगर उन चैनलों पर आम लोगों की खोजकर लाई गई कहानी नहीं होती है। तभी तो आप परेशान वक्त में एनडीटीवी की तरफ देखते हैं। हम किसकी तरफ देखें।
अपवादों को छोड़ दें तो टीवी मीडिया के लिए किसान अब आलू से भी गया गुज़रा हो गया है। मीडिया के लिए डॉक्टरों की भी हैसियत नहीं रही। राजस्थान के डाक्टर महसूस कर ही रहे होंगे। वे भी आलू किसानों की तरह अपने हालात पर चर्चा के लिए परेशान हैं। क्या इस दौरान डॉक्टरों ने मीडिया और उसके साथ नागरिकं के रिश्ते के बारे में सोचा ? आप सरकार चुनते हैं, आपकी जगह मीडिया क्यों सरकार का दोस्त बन जाता है? मीडिया क्यों सरकार से दलाली खा रहा है? क्या मीडिया ने सरकार चुना है?
क्या डॉक्टर आलू किसानों की पीड़ा की ख़बरों को पढ़ते हैं? अपने राजनीतिक फैसले में इस बात को महत्व देते हैं कि फ़लाँ सरकार ने किसानों को सताया है। क्या आलू किसान डाक्टरों से हो रही नाइंसाफी से नाराज़ होते होंगे? नागरिकता का बोध खंडित हो चुका है। सिस्टम एकजुट है। गोदी मीडिया उस सिस्टम का हिस्सा हो चुका है। नागरिक निहत्था हो चुका है। चैनलों को पता है कि लोग उसका परोसा हुआ तमाशा देखेंगे, डॉक्टर और आलू किसान न देखें तो कोई बात नहीं। बाकी बहुत लोग देख रहे हैं। ट्वीटर पर ख़बरें फ्री मिल जाती हैं मगर आप तब भी अख़बार मँगाते हैं जबकि उसमें काम का कुछ नहीं होता। टीवी के साथ भी यही है। जब आपकी ख़बरें नहीं हैं तो बकवास बहसों के लिए आप क्यों पैसे देते हैं?
आप किस चैनल में रिपोर्टिंग देखते हैं ? कितना डिबेट देखेंगे? मीडिया ने आपको भांग की गोली खिला दी है। आप भी नशे में हैं। मैं भले सबकी स्टोरी नहीं कर पा रहा और अब तो और भी कम कर पाऊँगा लेकिन साफ साफ दिख रहा है कि लोग कितने परेशान हैं। वो अपनी आवाज़ सुनाना चाहते हैं मगर कोई चैनल नहीं है। कहीं आवाज़ उठा भी दी जाती है तो किसी पर असर नहीं है। असर तभी पैदा होगा जब आप ख़ुद को इस मीडिया से मुक्त कर लें क्योंकि मीडिया ने ख़ुद को आपसे मुक्त कर लिया है। आप उसके लिए कुछ नहीं है।
एनडीटीवी के वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार की एफबी वॉल से.