ये एंकर अब जन विरोधी गुंडे हैं : रवीश कुमार

…पुण्य प्रसून वाजपेयी ने हाल ही में कहा है कि ख़बरों को चलाने और गिराने के लिए पीएमओ से फोन आते हैं। कोबरा पोस्ट के स्टिंग में आपने देखा ही कैसे पैसे लेकर हिन्दू मुस्लिम किए जाते हैं। इस सिस्टम के मुकाबले आप दर्शकों ने जाने अनजाने में ही एक न्यूज़ रूम विकसित कर दिया है जिसे मैं पब्लिक न्यूज़ रूम कहता हूं। बस इसे ट्रोल और ट्रेंड की मानसिकता से बचाए रखिएगा ताकि खबरों को जगह मिले न कि एक ही ख़बर भीड़ बन जाए…

मेरे आदर्श संपादक प्रभाष जोशी का मानना था- सत्ता और व्यवस्था विरोध हर पत्रकार का एजेंडा होना चाहिए

Devpriya Awasthi : अपने देश और समाज को समझना है तो एनडीटीवी पर रवीश कुमार और फेसबुक पर हिमांशु कुमार को फालो कीजिए. आपको रवीश के बारे में अपनी राय बनाने और रखने का पूरा अधिकार है लेकिन, सत्ता और व्यवस्था प्रतिष्ठान के विरोध में उनका नजरिया मुझे और मुझ सरीखे बहुत से लोगों को पसंद आता है. मेरे आदर्श संपादक प्रभाष जोशी का मानना था कि सत्ता और व्यवस्था विरोध हर पत्रकार का एजेंडा होना चाहिए.

हावर्ड से रवीश कुमार को न्योता

Ravish Kumar : प्रधानमंत्री के भारत लौटने के बाद मैं हावर्ड जाने की तैयारी में लग जाऊंगा! उनके पीछे देश ख़ाली ख़ाली सा न लगे इसलिए रूक गया हूं। अच्छी बात है कि हावर्ड के आयोजक छात्रों ने हिन्दी में ही बोलने के लिए कहा है। 2016 में जब कोलंबिया यूनिवर्सिटी गया था तो वहां भी वत्सल और प्रोफेसर सुदीप्तो कविराज ने कहा कि हिन्दी में ही बोलिए। फिर क्या था जो अनुवाद करा कर ले गया था उसे किनारे किया और जो बोलना था बोल आया।

अपनी शामों को मीडिया के खंडहर से निकाल लाइये : रवीश कुमार

Ravish Kumar : अपनी शामों को मीडिया के खंडहर से निकाल लाइये…. 21 नवंबर को कैरवान (carvan) पत्रिका ने जज बीएच लोया की मौत पर सवाल उठाने वाली रिपोर्ट छापी थी। उसके बाद से 14 जनवरी तक इस पत्रिका ने कुल दस रिपोर्ट छापे हैं। हर रिपोर्ट में संदर्भ है, दस्तावेज़ हैं और बयान हैं। जब पहली बार जज लोया की करीबी बहन ने सवाल उठाया था और वीडियो बयान जारी किया था तब सरकार की तरफ से बहादुर बनने वाले गोदी मीडिया चुप रह गया।

रवीश कुमार को क्यों कहना पड़ा- ‘हिन्दी अख़बार सरकारों का पांव पोछना बन चुके हैं, आप सतर्क रहें’

Ravish Kumar : क्या जीएसटी ने नए नए चोर पैदा किए हैं? फाइनेंशियल एक्सप्रेस के सुमित झा ने लिखा है कि जुलाई से सितंबर के बीच कंपोज़िशन स्कीम के तहत रजिस्टर्ड कंपनियों का टैक्स रिटर्न बताता है कि छोटी कंपनियों ने बड़े पैमाने पर कर चोरी की है। कंपोज़िशन स्कीम क्या है, इसे ठीक से समझना होगा। अखबार लिखता है कि छोटी कंपनियों के लिए रिटर्न भरना आसान हो इसलिए यह व्यवस्था बनाई गई है। उनकी प्रक्रिया भी सरल है और तीन महीने में एक बार भरना होता है। आज की तारीख़ में कंपोज़िशन स्कीम के तहत दर्ज छोटी कंपनियों की संख्या करीब 15 लाख है। जबकि सितंबर में इनकी संख्या 10 से 11 लाख थी। इनमें से भी मात्र 6 लाख कंपनियों ने ही जुलाई से सितंबर का जीएसटी रिटर्न भरा है।

पुरस्कार थोड़ा बड़ा-सा हो तो रवीश कुमार किसी के हाथों ले सकते हैं..

Yashwant Singh : पुरस्कार थोड़ा बड़ा-सा हो तो क्या भाजपा और क्या कांग्रेस, किसी से भी ले लेने में कोई दिक्कत नहीं। बाद में कह दीजिएगा, अपने लिए नहीं, दूसरे बेचारे गरीब पत्रकारों के लिए ले लिया था। हिप्पोक्रेट कुमार गाल बहुत बजाते हैं और हम सबको उल्लू बनाते हैं। रविश ndtv में 300 की छंटनी के खिलाफ नहीं लिख बोल सकते, रामनाथ अवार्ड नहीं ठुकरा सकते, क्योंकि वो ndtv के गोदी पत्रकार हैं। इसलिए बेचारे दासता को क्रांति के नाम पर बेचने को मजबूर हैं।

रवीश कुमार ने वेंकैया नायडू के हाथों ‘कलम’ थामने के बाद सफाई में क्या लिखा, आप भी पढ़ें

Ravish Kumar : बाग़ों में बहार तो नहीं है मगर फिर भी…. तस्वीरें अपनी नियति देखने वालों की निगाह में तय करती हैं। इंडियन एक्सप्रेस के प्रवीण जैन के कैमरे से उतारी गई इस तस्वीर को देखने वालों ने तस्वीर से ज़्यादा देखा। एक फ्रेम में कैद इस लम्हे को कोई एक साल पहले के वाक़ये से जोड़ कर देख रहा है तो कोई उन किस्सों से जिसे आज के माहौल ने गढ़ा है। दिसंबर की शाम बाग़ों में बहार का स्वागत कर रही थी। गालियों के गुलदस्ते से गुलाब जल की ख़ुश्बू आ रही थी। तारीफ़ों के गुलदस्ते पर भौरें मंडरा रहे थे। मैं उस बाग़ में बेगाना मगर जाना-पहचाना घूम टहल रहा था।

रवीश कुमार ने पूछा- मीडिया क्यों सरकार से दलाली खा रहा है?

Ravish Kumar : नागरिक निहत्था होता जा रहा है…. राजस्थान के डॉक्टरों की हड़ताल की ख़बर पर देर से नज़र पड़ी। सरकार ने वादा पूरा नहीं किया है।हमने प्रयास भी किया कि किसी तरह से प्राइम टाइम का हिस्सा बना सकें। मगर हम सब ख़ुद ही अपने साथियों से बिछड़ने की उदासी से घिरे हुए थे। हर दूसरे दिन संसाधन कम होते जा रहे हैं। हम कम तो हुए ही हैं, ख़ाली भी हो गए हैं। साथियों को जाते देखना आसान नहीं था। वर्ना डॉक्टरों को इनबाक्स और व्हाट्स अप में इतने संदेश भेजने की ज़रूरत नहीं होती। आगरा से आलू किसान और दुग्ध उत्पादक भी इसी तरह परेशान हैं। दूध का दाम गिर गया है और आलू का मूल्य शून्य हो गया है। इन ख़बरों को न कर पाना गहरे अफसोस से भर देता है। कोई इंदौर से लगातार फोन कर रहा है।

आरके सिन्हा का अख़बारों ने भावनात्मक दोहन किया है : रवीश कुमार

Ravish Kumar : क्यों छपी बीजेपी सांसद सिन्हा की सफाई विज्ञापन की शक्ल में… पैराडाइस पेपर्स में भाजपा के राज्य सभा सांसद आर के सिन्हा का भी नाम आया था। इंडियन एक्सप्रेस अख़बार ने उनकी सफाई के साथ ख़बर छापी थी। पैराडाइस पैराडाइस पेपर्स की रिपोर्ट के साथ यह भी सब जगह छपा है कि इसे कैसे पढ़ें और समझें। साफ साफ लिखा है कि ऑफशोर कंपनी कानून के तहत ही बनाए जाते हैं और ज़रूरी नहीं कि सभी लेन-देन संदिग्ध ही हो मगर इसकी आड़ में जो खेल खेला जाता है उसे भी समझने की ज़रूरत है। सरकार को भी भारी भरकम जांच टीम बनानी पड़ी है। ख़ैर इस पर लिखना मेरा मकसद नहीं है।

हिन्दी के पाठकों को आज का अंग्रेज़ी वाला इंडियन एक्सप्रेस ख़रीद कर रख लेना चाहिए

Ravish Kumar : इंडियन एक्सप्रेस में छपे पैराडाइस पेपर्स और द वायर की रिपोर्ट pando.com के बिना अधूरा है… हिन्दी के पाठकों को आज का अंग्रेज़ी वाला इंडियन एक्सप्रेस ख़रीद कर रख लेना चाहिए। एक पाठक के रूप में आप बेहतर होंगे। हिन्दी में तो यह सब मिलेगा नहीं क्योंकि ज्यादातर हिन्दी अख़बार के संपादक अपने दौर की सरकार के किरानी होते हैं। कारपोरेट के दस्तावेज़ों को समझना और उसमें कमियां पकड़ना ये बहुत ही कौशल का काम है। इसके भीतर के राज़ को समझने की योग्यता हर किसी में नहीं होती है। मैं तो कई बार इस कारण से भी हाथ खड़े कर देता हूं। न्यूज़ रूम में ऐसी दक्षता के लोग भी नहीं होते हैं जिनसे आप पूछकर आगे बढ़ सकें वर्ना कोई आसानी से आपको मैनुपुलेट कर सकता है।

रवीश जी, अगर Yashwant Singh से कुछ पर्सनल खुन्नस है तो कम से कम उनके काम की तो तारीफ कर दीजिये!

Divakar Singh : रवीश जी, आपने सही लिखा हमारी मीडिया रीढविहीन है. साथ ही नेता भी चाहते हैं मीडिया उनकी चाटुकारिता करती रहे. आप बधाई के पात्र हैं यह मुद्दे उठाने के लिए. पर क्या बस इतना बोलने से डबल स्टैंडर्ड्स को स्वीकार कर लिया जाए? आप कहते हैं कि ED या CBI की जांच नहीं हुई तो कोई मानहानि नहीं हुई. आप स्वयं जानते होंगे कितनी हलकी बात कह दी है आपने. दूसरा लॉजिक ये कि अमित शाह स्वयं क्यों नहीं आये बोलने. अगर वो आते तो आप कहते वो पिता हैं मुजरिम के, इसलिए उनकी बात का कोई महत्त्व नहीं. तीसरी बात आप इतने उत्तेजित रोबर्ट वाड्रा वगैरह के मामले में नहीं हुए. यहाँ आप तुरंत अत्यधिक सक्रिय हो गए और अतार्किक बातें करने लगे. ठीक है नेता भ्रष्ट होते हैं, मानते हैं, पर कम से कम तार्किक तो रहिये, अगर निष्पक्ष नहीं रह सकते.