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सियासत

मोदी और तोगड़िया : कभी दोस्त थे, आज दुश्मन बन बैठे… जानिए अंदर की कहानी

हमेशा से कहा जाता रहा है कि “जर, जोरू और जमीन” के कारण पक्के दोस्तों में ही नहीं, भाइयों में भी दुश्मनी हो जाती है। धीरूभाई अंबानी के देहावसान के बाद अंबानी भाइयों में छिड़ा युद्ध इस सत्य की मिसाल है। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। हालांकि इतिहास इस बात का भी गवाह है कि “जर, जोरू और जमीन” के साथ इसमें “तख्त” भी जोड़कर इसे “जर, जोरू, जमीन और तख्त” कहा जाना चाहिए। “जर” यानी धन, “जोरू” यानी स्त्री, “जमीन” यानी चल-अचल संपत्ति, और “तख्त” यानी सत्ता। इतिहास उन उदाहरणों से भी भरा हुआ है जहां तख्त के लिए पुत्र ने पिता को कारागार में डाल दिया या भाई ने भाई को मार डाला। राजा की वफादार सेना अलग होती थी और युवराज की वफादार सेना अलग, या अलग-अलग राजकुमारों की सेनाएं अलग-अलग रही हैं और उनमें युद्ध हुए हैं।

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हमेशा से कहा जाता रहा है कि “जर, जोरू और जमीन” के कारण पक्के दोस्तों में ही नहीं, भाइयों में भी दुश्मनी हो जाती है। धीरूभाई अंबानी के देहावसान के बाद अंबानी भाइयों में छिड़ा युद्ध इस सत्य की मिसाल है। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। हालांकि इतिहास इस बात का भी गवाह है कि “जर, जोरू और जमीन” के साथ इसमें “तख्त” भी जोड़कर इसे “जर, जोरू, जमीन और तख्त” कहा जाना चाहिए। “जर” यानी धन, “जोरू” यानी स्त्री, “जमीन” यानी चल-अचल संपत्ति, और “तख्त” यानी सत्ता। इतिहास उन उदाहरणों से भी भरा हुआ है जहां तख्त के लिए पुत्र ने पिता को कारागार में डाल दिया या भाई ने भाई को मार डाला। राजा की वफादार सेना अलग होती थी और युवराज की वफादार सेना अलग, या अलग-अलग राजकुमारों की सेनाएं अलग-अलग रही हैं और उनमें युद्ध हुए हैं।

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प्रवीण तोगड़िया से जुड़ा ताज़ा मामला “तख्त” का है जिसने तोगड़िया को इस हाल तक पहुंचा दिया कि ज़ेड सुरक्षा के बावजूद वे गायब हो गये और बाद में बेहोशी की हालत में पाये गये। कैंसर डाक्टर से फायर ब्रांड हिंदू नेता के रूप में उभरे डा. प्रवीण तोगड़िया को अब भाजपा में कोई पूछता नहीं क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन्हें पसंद नहीं करते और मोदी का प्रभामंडल ऐसा है कि कोई उनके सामने सिर उठाकर बोल नहीं सकता। मोदी की दूसरी आदत है कि वे अपने सामने सिर उठाकर बोलने वाले को बर्दाश्त नहीं करते और सिर्फ नापसंदगी तक ही सीमित नहीं रहते। किसी ज़माने में उनके सबसे बड़े शुभचिंतक रहे लालकृष्ण आडवाणी का हाल हम सबके सामने है।

एक ज़माने में प्रवीण तोगड़िया और नरेंद्र मोदी अच्छे मित्र रहे हैं और उन्होंने गुजरात में भाजपा को सत्ता में लाने के काम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। समय का फेर है कि महत्वाकांक्षाओं के चलते दोनों एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हो गये और इसी कारण डा. तोगड़िया प्रधानमंत्री के मुखर आलोचक बन गए।

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डाक्टरी की पढ़ाई के लिए सन् 1978 में प्रवीण तोगड़िया अहमदाबाद आये थे और गुजरात के होकर रह गए। वे एक नामचीन कैंसर डाक्टर रहे हैं और हिंदुत्व के अपने प्रेम के कारण वे संघ से जुड़े हुए थे और 1985 में वे बाकायदा विश्व हिंदू परिषद में चले गए और अपनी लगन और मेहनत के कारण उन्होंने न केवल अपनी पहचान बनाई बल्कि विश्व हिंदू परिषद में उनका प्रभाव भी बढ़ता चला गया।

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हिंदू प्रेम के कारण ही नरेंद्र मोदी भी संघ से जुड़े और 1987 में वे संघ से भाजपा में भिजवा दिये गए। मोदी भी शुरू से ही बहुत अनुशासित, मेहनती और महत्वाकांक्षी रहे हैं। विचारधारा की समानता के कारण मोदी और तोगड़िया की आपस में खूब जमती थी और दोनों मिलकर काम करते थे। मार्च 1990 में चिमन भाई पटेल के मुख्यमंत्री बनने और फिर मार्च 1995 में केशुभाई पटेल के मुख्यमंत्रित्व में भाजपा को सत्ता में लाने में इन दोनों मित्रों की अहम भूमिका रही।  उसीका परिणाम था कि केशुभाई पटेल लगभग हर छोटे-बड़े फैसले में दोनों की सलाह लेते थे और यह बात सरकारी अधिकारियों से भी छिपी नहीं थी। उसी दौरान प्रवीण तोगड़िया का कद ऐसा बढ़ा कि उन्हें ज़ेड सेक्योरिटी दे दी गई।

अक्तूबर 2001 में गुजरात के बिगड़ते हालात को संभालने के लिए केशुभाई पटेल को हटाकर नरेंद्र मोदी को गुजरात का मुख्यमंत्री बनाया गया। फरवरी 2002 के गुजरात दंगों के बावजूद उसी साल दिसंबर में गुजरात में हुए विधानसभा चुनाव हुए और नरेंद्र मोदी शान के साथ सत्ता में वापिस आये। इस चुनाव में प्रवीण तोगड़िया ने भाजपा के पक्ष में सौ से भी अधिक जनसभाएं कीं। इसके बाद ही दोनों में दरार की शुरुआत हुई, और कारण वही था “तख्त”!

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प्रवीण तोगड़िया विश्व हिंदू परिषद में पहले से ही स्थापित थे, जबकि मोदी दिसंबर 2002 में सत्ता में वापसी के बाद से ज़्यादा उभरे। अब हम जानते हैं कि मोदी अपने किसी प्रतिद्वंद्वी या विरोधी को बर्दाश्त नहीं करते। वे विपक्षियों को हराने में नहीं बल्कि कुचलने में विश्वास रखते हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में भी उनके मंत्रियों को उनके सामने बोलने की हिम्मत नहीं होती थी। उनके एक वरिष्ठ मंत्री हीरेन पंड्या अपनी महत्वाकांक्षा और अहम के चलते ही जान गंवा बैठे। इसी तरह तोगड़िया भी महत्वाकांक्षी थे और मोदी भी, सो दोनों में दरार पड़ना स्वाभाविक था। मोदी ने तोगड़िया के पर कतरने शुरू किये और अंतत: तोगड़िया को यह कहना पड़ा कि नरेंद्र मोदी की भाजपा सरकार में उनकी कोई पूछ नहीं है। इसके बाद नरेंद्र मोदी जब तक गुजरात में मुख्यमंत्री रहे, उन्होंने तोगड़िया को अपने नज़दीक नहीं फटकने दिया। इस तरह दो मित्र, दो दुश्मन बन गए।

यह संयोग की बात है कि मोदी ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में अमरीकी कंसल्टेंसी एप्को वर्ल्डवाइड की सेवाएं लीं और वाइब्रेंट गुजरात नामक आयोजन के माध्यम से विदेशी निवेश बढ़ाने का प्रयत्न किया। इस आयोजन में प्रवासी गुजरातियों और उनके संपर्क वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने शिरकत की। मोदी ने योजनाबद्ध ढंग से कई अन्य विकास कार्यक्रम भी चलाए। धीरे-धीरे देश भर में गुजरात के विकास के माडल की चर्चा होने लगी। इस बीच एप्को वर्ल्डवाइड उनकी नयी छवि गढ़ने में लगी रही।

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सन् 2009 का लोकसभा चुनाव एक तरफ सोनिया गांधी, डा. मनमोहन सिंह और राहुल गांधी के नेतृत्व में और दूसरी तरफ लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में लड़ा गया और उसमें कांग्रेस की जीत हुई, लेकिन यूपीए-2 के शासनकाल के घोटालों, डा. मनमोहन सिंह की चुप्पी और तत्कालीन सरकार में व्याप्त अनिर्णय की स्थिति से देश त्रस्त था। मोदी एक कर्मठ, ऊर्जावान और दूरदृष्टि वाले नेता के रूप में तेजी से उभर रहे थे। अब तक भाजपा कार्यकर्ताओं में यह भाव घर कर गया था कि कांग्रेस को अगर हराना है तो उसके लिए लालकृष्ण आडवाणी के बजाए नरेंद्र मोदी ज़्यादा उपयुक्त व्यक्ति हैं और अंतत: सारी अड़चनों को हटाकर मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया। मोदी ने पहली बार भाजपा को केंद्र में बहुमत दिला कर और अपने दम पर सरकार बनाने के काबिल बना कर इतिहास रचा । केंद्र में हालांकि एक गठबंधन सरकार है लेकिन तूती सिर्फ मोदी की बोलती है।

सन् 2008 में मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो राज्य में अवैध मंदिरों को गिराया गया था जिससे नाराज़ होकर तोगड़िया ने मोदी के विरुद्ध बोलना शुरू किया। पहले से पड़ी संशय की दरार अब बढ़ने लगी और समय के साथ-साथ बढ़ती ही गई। आज  स्थिति यह है कि दोनों आमने-सामने हैं। तोगड़िया यह कह चुके हैं कि उन्हें मारने की कोशिश की गई थी।

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सवाल यह है कि तोगड़िया को ज़ेड सेक्योरिटी मिली हुई है, फिर कैसे वे एक आटो-रिक्शा में किसी के साथ चले गए? यदि वह गए तो उसी वक्त हड़कंप क्यों नहीं मचा? जब उनके “गुम” होने की आशंका हुई तो सरकारी मशीनरी सुस्त कैसे रह गई? क्या सरकारी मशीनरी का सुस्त रहना किसी और गहरी बात की ओर का संकेत है? क्या उनका हश्र भी हीरेन पंड्या का-सा हो सकता है? मैं कुछ भी सोचने में असमर्थ हूं और बहुत अच्छा हो कि मेरी सारी आशंकाएं गलत साबित हों।

लेखक पी. के. खुराना दो दशक तक इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण, पंजाब केसरी और दिव्य हिमाचल आदि विभिन्न मीडिया घरानों में वरिष्ठ पदों पर रहे. वे फिलवक्त तीन कंपनियों क्विकरिलेशन्स प्राइवेट लिमिटेड,  दि सोशल स्टोरीज़ प्राइवेट लिमिटेड और विन्नोवेशन्स के जरिए कई फील्ड में सक्रिय हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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