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सियासत

मुंगौड़ी, कचौड़ी, पकौड़ी और रंगमंच

अमेरिकी नाटककार व रंग-चिन्तक डेविड ममेट ने अपनी किताब “सत्य और असत्य” (true and false : heresy and common sense for the actors) में लिखा है कि “आपका काम नाटक को दर्शकों तक पहुंचना है, इसलिए शुतुरमुर्ग की तरह रेत में गर्दन घुसा लेने या विद्वता मात्र से काम नहीं बनेगा।” वैसे कुछ अति-भद्रजनों को शीर्षक से आपत्ति हो सकती है कि मंगौड़ी, कचौड़ी, पकौड़ी, चटनी के साथ रंगमंच की बात! तो अर्ज़ है कि मुंगौड़ी, कचौड़ी, पकौड़ी, चटनी खाने की लजीज़ चीज़ें हैं और रंगमंच खेलने और देखने की। जब हम कोई चीज़ खेलते हैं तो सब कुछ भूलकर उसी में मस्त हो जाते हैं, भूख-प्यास तक गायब हो जाती है। इंसान की बनावट ऐसी है कि वह खाए और खेले बिना ज़्यादा दिन तक नहीं रह सकता है। खाना और खेलना आदिम प्रवृति है। जो बिना खाए और बिना खेले जीवित रहते हैं वह निश्चित रूप से किसी और ही ग्रह के प्राणी होगें। उन्हें भ्रम है कि वो इंसान हैं। खैर, बात को जलेबी की तरह गोल गोल घुमाने से अच्छा है कि सीधे-सीधे मुद्दे की बात की जाय।

<p>अमेरिकी नाटककार व रंग-चिन्तक डेविड ममेट ने अपनी किताब “सत्य और असत्य” (true and false : heresy and common sense for the actors) में लिखा है कि “आपका काम नाटक को दर्शकों तक पहुंचना है, इसलिए शुतुरमुर्ग की तरह रेत में गर्दन घुसा लेने या विद्वता मात्र से काम नहीं बनेगा।" वैसे कुछ अति-भद्रजनों को शीर्षक से आपत्ति हो सकती है कि मंगौड़ी, कचौड़ी, पकौड़ी, चटनी के साथ रंगमंच की बात! तो अर्ज़ है कि मुंगौड़ी, कचौड़ी, पकौड़ी, चटनी खाने की लजीज़ चीज़ें हैं और रंगमंच खेलने और देखने की। जब हम कोई चीज़ खेलते हैं तो सब कुछ भूलकर उसी में मस्त हो जाते हैं, भूख-प्यास तक गायब हो जाती है। इंसान की बनावट ऐसी है कि वह खाए और खेले बिना ज़्यादा दिन तक नहीं रह सकता है। खाना और खेलना आदिम प्रवृति है। जो बिना खाए और बिना खेले जीवित रहते हैं वह निश्चित रूप से किसी और ही ग्रह के प्राणी होगें। उन्हें भ्रम है कि वो इंसान हैं। खैर, बात को जलेबी की तरह गोल गोल घुमाने से अच्छा है कि सीधे-सीधे मुद्दे की बात की जाय।</p>

अमेरिकी नाटककार व रंग-चिन्तक डेविड ममेट ने अपनी किताब “सत्य और असत्य” (true and false : heresy and common sense for the actors) में लिखा है कि “आपका काम नाटक को दर्शकों तक पहुंचना है, इसलिए शुतुरमुर्ग की तरह रेत में गर्दन घुसा लेने या विद्वता मात्र से काम नहीं बनेगा।” वैसे कुछ अति-भद्रजनों को शीर्षक से आपत्ति हो सकती है कि मंगौड़ी, कचौड़ी, पकौड़ी, चटनी के साथ रंगमंच की बात! तो अर्ज़ है कि मुंगौड़ी, कचौड़ी, पकौड़ी, चटनी खाने की लजीज़ चीज़ें हैं और रंगमंच खेलने और देखने की। जब हम कोई चीज़ खेलते हैं तो सब कुछ भूलकर उसी में मस्त हो जाते हैं, भूख-प्यास तक गायब हो जाती है। इंसान की बनावट ऐसी है कि वह खाए और खेले बिना ज़्यादा दिन तक नहीं रह सकता है। खाना और खेलना आदिम प्रवृति है। जो बिना खाए और बिना खेले जीवित रहते हैं वह निश्चित रूप से किसी और ही ग्रह के प्राणी होगें। उन्हें भ्रम है कि वो इंसान हैं। खैर, बात को जलेबी की तरह गोल गोल घुमाने से अच्छा है कि सीधे-सीधे मुद्दे की बात की जाय।

 छत्तीसगढ़ राज्य का एक कस्बा है डोंगरगढ़। डोंगर का मतलब पहाड़ होता है। यह स्थान हर तरफ़ से डोंगर से घिरा है तो नाम पड़ा डोंगरगढ़। यहां डोंगर की हर चोटी पर भांति-भांति के देवी, देवता और अवतारों के माध्यम से विभिन्न समुदायों, धर्मों का कब्ज़ा है। इसलिए इसे धार्मिक नगरी का भी प्रमाण-पत्र प्राप्त है। धर्म और पंथ के नाम पर पहाड़ काटकर ढ़ेरों क़ानूनी-गैरक़ानूनी निर्माण हुए और हो रहे हैं। किन्तु धर्म और पंथ के मामले में कोई भी टांग नहीं अड़ाना चाहता, सरकारें और प्रशासन भी नहीं। जहां तक सवाल प्रकृति का है तो उसकी चिंता किसे है! वैसे स्टेशन के भोंपू से मां बम्बलेश्वरी देवी का नाम बार-बार उच्चारित किया जाता है। अब रेलवे के द्वारा इस प्रकार की धार्मिक उद्घोषणा “अच्छे दिन” के हवाबज़ी के साथ आए या पहले यह एक खोज का विषय हो सकता है। धर्मनिरपेक्ष के आवरण वाले इस देश में इस प्रकार की उद्घोषणाएं कितनी उचित है आप इस पर आप धर्मनिरपेक्षतावादी होकर विचार कर सकते हैं तो करें, नहीं कर सकते तो कोई बात नहीं क्योंकि जो हो रहा है वो तो होगा ही। मेरे, आपके या किसी और के शुतुरमुर्ग बन जाने से इतिहास की गति न रुकी है, न रुकेगी। फिलहाल हम इतिहास, भूगोल आदि आदि के बजाय मंगौड़ी, कचौड़ी, पकौड़ी, चटनी की बात कर लेते हैं। हां रंगमंच की बात तो होगी ही होगी। 

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यह क़स्बा छोटा है लेकिन ज़रूरत का लगभग हर सामान उपलब्ध है। हां यदि कुछ नहीं है तो वो है नाटक करने के लिए कोई उचित सभागार। तथाकथित हिंदी पट्टी में वैसे भी कला-संस्कृति आदि को शूद्रों का पेशा ही माना जाता है इसलिए यह चीज़ें अभी तक इंसान और सामज की ज़रूरतों में शामिल नहीं हुई हैं। गौर फरमाइए हिंदी क्षेत्र नाटक, नौटंकी, नाच, गाना को आज भी गाली के रूप में इस्तेमाल करता है। कहा जा सकता है कि राजनीतिक उठा-पटक तो होती ही रहती है लेकिन सांस्कृतिक पुनर्जागरण का महत्वपूर्ण काम अभी बाकि है। बिना कला-संस्कृति का मानव समाज कितना मानवीय होगा इस बात का साक्षात् प्रमाण हम रोज़ ही देखते हैं। 

तो शादी ब्याह के लिए बने पंडाल से ही यहां तात्कालिक सभागार का निर्माण होता है। इसलिए नाटक के लिए मुहूर्त देखना एक अनिवार्य शर्त बन जाता है कि उस दिन लगन इतनी तेज़ न हो कि पंडाल और नाटक के लिए बम्बलेश्वरी मंदिर का प्रागंण और मंच ही उपलब्ध न हो और दर्शक भी शादी-ब्याह में व्यस्त रहें। आबादी इतनी है कि कितनी भी कोशिश करो किसी न किसी की शादी बीच में पड़ ही जाती है। नाटकों के आयोजन में मौसम का ध्यान रखना भी अनिवार्य होता है। मौसम ऐसा हो जिसमें ना ठंड अधिक हो, न गर्मीं और बरसात तो नहीं ही हो। इस लिहाज से भारतीय परिवेश में फ़रवरी के मौसम को हम माकूल कह सकते हैं। और फिर बसंत भी तो है मन को प्रफुल्लित करने के लिए। आम के पेड़ों पर मंजर लग चुके हैं और कोयल की कूक ने कानों में मधुर रस घोलना शुरू कर दिया है। 

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इप्टा डोंगरगढ़ और संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के सहयोग से विकल्प नामक संस्था द्वारा इस बार नाट्योत्सव 7 से 9 फरवरी 2015 को आयोजित किया गया। इस तीन दिवसीय इस आयोजन में अनुकृति रंगमंडल, कानपुर द्वारा सर्वेश्वरदयाल सक्सेना लिखित व डॉ ओमेंद्र कुमार निर्देशित नौटंकी शैली में बकरी, इप्टा चंडीगढ द्वारा अपूर्वानंद लिखित व बलकार सिद्धू निर्देशित एके दा मन्त्र उर्फ़ मदारी आया, पाकिस्तानी कथाकार लाली चौधरी की कहानी का गुरशरण सिंह द्वारा नाट्य-रूपांतरित मेरा लौंग गवाचा, इप्टा डोंगरगढ़ द्वारा राधेश्याम तराने निर्देशित पहाड़पुर की कथा (कहानी – तजिंदर सिंह भाटिया, संगीत – मनोज गुप्ता, नाट्यलेख – दिनेश चौधरी), मरवा थियेटर पुणे द्वारा ओजस एस वी निर्देशित व रेखा ठाकुर अभिनीत एकल ले मशालें तथा इप्टा भिलाई द्वारा निशु पांडे निर्देशित नाटक सुन्दर (लेखक – मोहित चट्टोपाध्याय, हिंदी अनुवाद – रणदीप अधिकारी) के अलावे अनुकृति रंगमंडल, कानपुर द्वारा दस दिन का अनशन और इप्टा चंडीगढ़ द्वारा ए लहू किस दा है व गड्ढा (लेखक – गुरशरण सिंह) नामक नुक्कड़ नाटक, लोकगीत, लीक-नृत्य आदि की भी प्रस्तुति तय है। इस बार आयोजन नाट्योत्सव के मुख्य मंच के अलावा स्थानीय नुक्कड़, खालसा स्कूल और नवोदय विद्यालय में भी होगा। सुबह इन स्कुलों में और शाम को मुख्यमंच पर नाटक से कस्बे की फिज़ां नाटकमय होना स्वभाविक ही था। हां, इप्टा डोंगरगढ़ के कलाकारों द्वारा मनोज गुप्ता के नेतृत्व में जनगीतों का गायन हर साल की भांति इस साल भी आयोजन का मुख्य आकर्षण था। वहीं उचित माहौल देखकर स्थानीय लेखक तजिंदर सिंह भाटिया ने भी अपनी गीतों की प्रदर्शनी लगा दी। 

स्टेशन से उतारते ही गेस्ट हॉउस जाने के रास्ते में इप्टा और 10वें नाट्य समारोह के पोस्टर और होडिंग स्वागत के लिए तैयार मिलते हैं। गेस्ट हॉउस पहुंचने से पहले हम चाय-नाश्ते की एक दूकान में पहुंच जाते हैं। कार में नाटक के ब्रोशर पर नज़र पड़ती है। वैसे रंगमंच का जितना ज़्यादा प्रचार प्रसार हो उतना ही उचित। शालिग्राम बनके एक स्थान पर स्थापित हो जाने से क्या लाभ? बहरहाल, इस दूकान को महिलाएं चलाती हैं। चाय की एक प्याली के साथ चटनी और गर्मागर्म मंगौड़ी हाज़िर है। सामने देशबंधु नामक अखबार है। जिसे हाथ में लेते ही हरिशंकर परसाई की याद आना स्वभाविक है। यह वही अखबार है जिसमें परसाईजी वर्षों तक व्यंग्य लिखा करते थे। मुंगौड़ी मुंह में डालते हुए सम्पादकीय पन्ना खोलने पर मुक्तिबोध की कविता की कुछ पंक्तियां प्रमुखता से नज़र आतीं हैं। मन में लड्डू फूट पड़ता है कि आज के चटनीवादी पत्रकारिता वाले समय में कोई अखबार तो है जो बिना जन्मदिन-मरणदिन के मुक्तिबोध जैसे लेखकों की रचनाओं को छापने का माद्दा रखता है।

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आज के तथाकथित संचार क्रांति वाले समय में गेस्टहाउस में टीवी और कस्बे में शोर का ना होना किसी भी शांतिप्रिय इंसान के लिए किसी वरदान से कम नहीं। कमरे में यदि टीवी हो तो चाहे अनचाहे चालू हो ही जाता। चाहकर भी इसके जादुई आभामंडल से बचा नहीं जा सकता। फिर रिमोट का गला घोंटते-घोंटते वक्त कैसे निकल जाता है, पता ही नहीं चलता। वैसे दिल्ली चुनाव और क्रिकेट का विश्व कप चरम पर है और सारे समाचार चैनल एक मिनट में दस-दस ब्रेकिंग न्यूज़ उगलकर किसी भी मसालेदार फिल्म को मात देने में लगे हैं। 

बगल के गेस्ट हॉउस में रामलीला जैसे नाटक के नाटककार राकेश, नाट्य निर्देशिका वेदाजी और चर्चित फिल्म और रंगमंच के अभिनेता, शिक्षक व भारतेंदु नाट्य अकादमी के पूर्व निदेशक युगल किशोर जी उपस्थित हैं। दोपहर में उनसे परिचय होता है और हम एक साथ भोजन स्थल की ओर प्रस्थान करते हैं। भोजन का इंतज़ाम सामूहिक रूप से प्रदर्शन स्थल पर ही है और हर साल की भांति इस साल भी भोजन की ज़िम्मेवारी है इप्टा डोंगरगढ़ के बेहतरीन अभिनेता मतीन भाई (अहमद) के पास है। मेहमान-मेजबान सब एक साथ भोजन करते हैं। भोजन स्थल पर पहुंचने पर इप्टा डोंगरगढ़ के बबली, टिंकू, निश्चय व्यास आदि कलाकार मुख्य गेट बनाने में व्यस्त हैं। यह देखकर प्रसन्नता दुगुना हो जाती है कि पिछले दो सालों में हमने वर्कशॉप के माध्यम से जिन किशोर-किशोरियों को रंगमंचीय शिक्षा प्रदान करने का प्रयास किया है वे भी पुरे जोश से समारोह की तैयारी में व्यस्त हैं। अमन नामदेव, प्रतिज्ञा व्यास, शुभम, अखिलेश, दिव्या आदि किशोर-किशोरियों को रंगमंच की ज़िम्मेवारी निभाते देख अपनी सार्थकता का एहसास होना स्वभाविक ही है। उनके मुंह से “सर, अब हमलोग आपके साथ फिर कब नाटक करेंगें?” सुनके अंदर ही अंदर जो खुशी महसूस होती है उसे शब्दों में कैसे बयान करूँ? यह बच्चे हमारी विरासत हैं, कल यही रंगकर्म के स्तंभ होगें। 

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नज़र बांस की बनाई हुई लैम्प पर पड़ती है। इसे खास रुप से महोत्सव के लिए बनाया है डोंगरगढ़ इप्टा से ही जुड़े एक कलाकार ने। इन लैम्पों को लाल-लाल कुर्सियों को दो तरफ बांटनेवाले रास्ते में रखकर कील से फिक्स किया जा रहा है। फिक्स क्यों? इस सवाल का जवाब तब मिलता है जब समारोह के दूसरे दिन बिना फिक्स किया एक लैम्प गायब हो जाता है। राधेश्याम तराने बताते हैं कि “कुछ साल पहले ऐसा ही लैम्प बनवाया था, जिसे शादियों के अवसर पर लोग सजावट के लिए मांगकर ले जाते थे। लोग इस बार भी ज़रूर मांगेंगे! नहीं, इसे अच्छे से पैक करके रख दिया जाएगा ताकि अगले साल भी काम आ जाए।” वैसे इसकी पुरी संभावना है कि कोई न कोई इस लैम्प को मांगने पहुँच ही जाएगा और इप्टा के लोग बड़े हर्ष के साथ इसे दे भी देंगें।

तैयारी ज़ोरों पर है। पहला दिन है इसलिए मेहमानों की चिंता के बजाय तैयारी पर ज़्यादा ध्यान देना एक लाजमी सी बात हो जाती है। यहां कोई अलग-अलग विभाग नहीं है अमूमन सारे काम स्थानीय रंगकर्मियों को ही करना है। करते हुए सीखना और सिखाते हुए करना, यही मूल मन्त्र है। कुछ तकनीकी दिक्कतें भी पेश आतीं है इस कारण कार्यक्रम निर्धारित समय से ज़रा बिलम्ब से शुरू हो पाता है। मनोज गुप्ता अपने साथियों के साथ जनगीतों का गायन शुरू करते हैं। दर्शकों की संख्या देखकर निराशा हो रही है, लेकिन जनगीतों की समाप्ति तक लगभग पूरा सभागार भर जाता है। समारोह के विधिवत उद्घाटन के लिए मंच पर अतिथियों को बुलाया जाता है। संबोधित करते हुए नाटककार राकेश कहते हैं कि “एक ऐसे समय में जब इस देश में लोगों को बांटने की राजनीति चरम पर है वैसे समय में कला का इस प्रकार का आयोजन सराहनीय है। क्योंकि कला इंसान को जोड़ने का काम करती है।” वेदाजी कई बार आग्रह करने पर संकोच के साथ वक्तव्य के लिए तैयार होतीं हैं और डोंगरगढ़ की खूबसूरती की तारीफ़ के साथ ही साथ आयोजन के लिए आयोजक और दर्शक दोनों को बधाई देतीं हैं। अनुभवी युगल किशोर सर को पता है कि लोग यहाँ नाटक देखने आए हैं वक्तव्य सुनने नहीं। वह अपनी बात काम से काम समय में यह कहते हुए समाप्त करते हैं कि “डोंगरगढ़ जैसे कस्बे में रंगमंच के प्रति ऐसा स्नेह सराहनीय है। ऐसे आयोजन न केवल एक कलाकार को उत्साहित करते हैं बल्कि समाज में स्वस्थ्य एवं अर्थपूर्ण मनोरंजन की परम्परा का भी विस्तार करते हैं।” अब नाटकों के मंचन की बारी आती है और अनुकृति रंगमंडल, कानपुर नौटंकी शैली में सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की चर्चित नाट्य नाटक बकरी का मंचन शुरू करती है। करीब डेढ़ घंटे की इस प्रस्तुति के बाद इप्टा चंडीगढ़ द्वारा एके दा मन्त्र उर्फ़ मदारी आया की प्रस्तुति होती है। आधी रात के बाद नाटक का मंचन समाप्त होता है और हम सब एक साथ खाना खाकर गेस्ट हॉउस पहुंचते हैं। मुझे प्रेस नोट्स बनाने का कार्यभार सौंपा गया है। एक नोटपैड भी दिया है। गूगल महराज का हिंदी इनपुट लोड़ किया है लेकिन वह फायर करने से इनकार कर रहा है। रात डेढ़ बजे लेटकर मोबाईल में शब्द अंकित करने की कोशिश करता हूं तो निंदिया कब अपनी आगोश में जकड़ लेती है पता भी नहीं चलता। मोबाइल गीता की तरह दिल के पास हैं और मैं सुकून से नींद की आगोश में। सुबह युगल सर, राकेश सर और वेदा मैम के साथ चाय पीने वादा था। लेकिन प्रेस नोट्स भी तो बनाना है और फिर आज आज तो 10 बजे सुबह से ही खालसा स्कूल में नाटकों का मंचन शुरू हो जाएगा इसलिए मैं चाय का मोह त्यागकर प्रेस नोट्स बनाने में लग जाता हूँ। 

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कल, प्रस्तुति के दौरान मैं मनोज गुप्ता के साथ बैठा था कि एक व्यक्ति बाहर निकलते वक्त रुक गए। वे हमारे पास आए और मनोज भाई से शिकायत करने लगे कि इस बार उनसे इस आयोजन के लिए सहयोग राशि क्यों नहीं ली गई। मनोज भाई के पास मुस्कुराते हुए यह कहने के सिवा और कोई रास्ता नहीं था कि ले लेंगें, आप चिंता न करें। आज हम जब गेस्ट हॉउस से निकल रहे कि मोटरसाईकल सवार एक सज्जन ने आवाज़ दी। दिनेशजी ने गाड़ी रोक दी, वो मोटरसाईकल सवार हमारे पास आए और 500 रूपए का नोट थमाते हुए एक का सिक्का खोजने लगे। मैंने गौर किया कि यह वही सज्जन हैं जिन्होंने मनोज भाई से चंदा की शिकायत दर्ज़ किया था। डोंगरगढ़ के रंगकर्मियों के पास चंदा के ऐसे अनेकों अनुभव हैं – कुछ मीठे, कुछ तीखे, कुछ नमकीन, कुछ कुरकुरे, कुछ नर्म-मुलायम और कुछ खट्टे भी; बिलकुल मंगौड़ी, कचौड़ी, पकौड़ी, चटनी की तरह। बाद में मैंने उन सज्जन का नाम पता किया – राजेश मिश्रा। ऐसा अपनापा गांव-कस्बे में ही बचा है अब। लेकिन यहाँ भी यह विलुप्त होने के ही कगार पर है। 

यह नाट्योत्सव के आयोजन का 20वां वर्ष है। कई सालों तक यह आयोजन चंदे की राशि द्वारा ही किया जाता रहा लेकिन एक समय ऐसा भी आया कि रंगकर्मियों के सामने यह यक्ष प्रश्न खड़ा हो गया कि या तो सरकारी अनुदान लिया जाय या फिर इस आयोजन को बंद कर दिया जाया। बंद करने से ज़्यादा बेहतर है अनुदान लेना है सो विगत कुछ वर्षों से यह आयोजन चंदे के साथ ही साथ संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के सौजन्य से आयोजित हो रहा है। वैसे इस बात से भी इनकार नहीं कि स्थानीय लोग को इस आयोजन का इंतज़ार रहता है। इसकी सबसे प्रमुख वजह शायद यह हो सकती है कि डोंगरगढ़ में नाटकों का यह एकलौता आयोजन है। वैसे जो लोग भी नाट्य-प्रदर्शन में दर्शकों की कमी का एकालाप प्रस्फुटित करते रहतें हैं उन्हें किसी गांव या कस्बेनुमा जगह में जाकर नाटकों के प्रति लोगों की दीवानगी का दीदार करना चाहिए। उनके दिव्य चक्षु खुल जाएंगें। यहां तकनीकी तौर पर नाटकों के स्तर भले ही सर्वश्रेष्ठ न हो लेकिन नाटक देखने का अनुशासन अनुकरणीय है। रंगमंच के बड़े – बड़े स्थापित नाम यदि ज़रा सा वक्त इन जगहों के लिए निकालें तो यहां भी श्रेष्ठतम रंगमंच संभव है। 

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समारोह का दूसरा दिन। नास्ता करके हम खालसा स्कूल के प्रागंण में पहुंचाते हैं। आश्चर्य; एक भी दर्शक नहीं! केवल स्कूल प्रशासन, आयोजक और नाटक खेलनेवाले। हद है, हमने तो सोचा था कि बहुत भीड़ होगी। कुछ समय पश्चात इप्टा चंडीगढ़ के अभिनेता, निर्देशक बलकार सिद्दू मोर्चा संभालते हैं और माइक पर मुहल्लावासियों को नाटक और रंगारंग पंजाबी कार्यक्रम देखने का नेवता भेजते हैं। कविता पाठ और पंजाबी गीतों का दौर शुरू होता है और धीरे-धीरे दर्शकों की संख्या बढ़ने लगती हैं। कुछ ही मिनटों में कुर्सियां इंसानों की उपस्थिति से सज जातीं हैं। दर्शकों में महिलाऐं और बच्चे ज़्यादा, दिन का समय है लगता है पुरुष अपने-अपने रोज़गार में व्यस्त हो गए हैं। इप्टा चंडीगढ़ के कलाकार ए लहू किसदा है और गड्ढा नामक नुक्कड़ नाटक और पंजाबी नृत्य-संगीत का लगभग तीन घंटे तक प्रस्तुति करते हैं। कार्यक्रम के अंत में मेहमान कलाकारों को खालसा स्कूल की तरह से पुस्तक भेंट किया जाता है। तत्पश्चात सामूहिक रूप में नाश्ता भी है। नाश्ता पेट भरने के लिए काफी है इसलिए हम वहां से सीधे गेस्ट हॉउस चले जाते हैं ताकि थोड़ा आराम करने के पश्चात शाम को तरोताज़ा होकर नाटक देख सकें। शाम को जैसे ही हम प्रदर्शन स्थल के सभागार में प्रवेश करते हैं कि कबीर की “मन लागो यार फकीरी में” का अत्यंत ही सुन्दर गायन सुनाई पड़ता है। हम सब चुप हो जाते हैं – इतनी सुकून भरी गायन और मधुर आवाज़ किसकी है? हम आगे की कुर्सियों में बैठकर माइक पर बज रहा यह गीत सुनने लगते हैं। युगल किशोर सर उठते हैं और ध्वनि संचालक के पास जाकर इसे पुनः बजाने को कहते हैं और साथ में यह भी निवेदन करते हैं कि क्या उन्हें यह गाना मिल सकता है? संचालक उनसे पेन ड्राइव या सीडी की मांग करता है। तब तक मैं भी वहां पहुँच जाता हूं और यह जानने की कोशिश करता हूं कि इसे गाया किसने है। संचालक अमज़द अली खान साहेब का नाम लेता है किन्तु यह उस्ताद सुजात हुसैन खान की आवाज़ है। संगीत पेन ड्राइव को एक लेपटॉप के माध्यम से बजाया जा रहा था। हमने झट से यह और इनकी गई सारी रचना कॉपी करने को कहा और दूसरे दिन उसे अपने मोबाईल में डाल लिया, तो कुछ ऐसा एहसास हो रहा था जैसे कोई अनमोल खजाना हाथ लग गया हो। कान में इयर फोन लगाए उस दिन यह रचना कितनी दफ़ा सुन गया, पता नहीं।

मनोज गुप्ता जनगीत शुरू करनेवाले हैं। माइक सजाया जा रहा है। कल इसकी सेटिंग सही नहीं थी इस वजह से जनगीतों में उचित रस की उत्पत्ति नहीं हो सकी आज भी आलम ऐसा ही है। नाटक के लिए यह एक तात्कालिक सभागार बनाया गया है जहां साउंड सिस्टम की उपस्थिति किसी लोक नाटक की याद ताज़ा करती है। मंच पर दर्जन भर चोंगे लटक रहे हैं। याद होगा कि गांव-कस्बे में खेला जानेवाला शौकिए नाटकों ने माइक वाली एक्टिंग नामक एक अघोषित शैली का निर्माण किया है। वहां कोई साउंड प्रूफ सभागार नहीं होता इसलिए अभिनेताओं द्वारा माइक पर जाकर ही संवाद बोलना एक अत्यंत ज़रुरी क्रिया सह मजबूरी बन जाती है। यहां कोई वाल नहीं होता, न फोर्थ वाल न फर्स्ट वाल, सब खुल्ला खेल है। यहां दर्शकों का रंगमंच होता है दर्शकों के लिए। कलाकार का सुख दर्शक के सार्थक आनंद और सुख के साथ है उससे इत्तर नहीं। बहरहाल, दो प्रतुतियां प्रदर्शित होती हैं – इप्टा चंडीगढ़ द्वारा मेरा लौंग गवाचा और स्थानीय नाट्य संस्था इप्टा डोंगरगढ़ द्वारा पहाड़पुर की कथा। 

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नाटक से समाज बदलता है या नहीं यह तो बहुत बड़ा और पेचीदा सवाल है जिस पर आए दिन विद्वान लोग बहस करते ही रहते हैं किन्तु यह सत्य है कि कला का प्रभाव दीर्घकालीक होता है। मणिपुर में “Indian Army Rape Us” का बैनर लगाए मणिपुर की महिलाओं ने भारतीय सेना के खिलाफ जो ऐतिहासिक प्रतिरोध दर्ज़ किया था उसकी प्रेरणा एच कान्हाई लाल निर्देशित व सावित्री जी अभिनीत एक नाटक ही था। नाटक यदि प्रभावहीन होते तो सफदर हाश्मी जैसे लोगों की हत्या क्यों होतीं? अंग्रेज़ों कई सारे नाटक बैन क्यों करते? वैसे नाटक और नाट्यदल प्रतिबंधित हो रहे हैं। भारत ही नहीं वरन विश्व में ऐसी कई घटनाएं आज भी गठित हो रहीं हैं। रंगमंच कोई मंगौड़ी, कचौड़ी, पकौड़ी, चटनी नहीं कि जिसे खाकर आराम से हजम किया जा सके। वैसे मंगौड़ी, कचौड़ी, पकौड़ी, चटनी भी सबको आराम से हजम नहीं होता। 

डोंगरगढ़ रेलवे फाटक से उत्पन्न हुई समस्या को केन्द्र में रखकर पहाड़पुरा की कथा नामक नाटक का प्रभाव साफ़-साफ़ देखा व महसूस किया जा सकता है। हास्य और व्यंग्य को अपने अंदर समेटे यह नाटक अपने दो ही प्रस्तुति से (पहली 26 जनवरी और दूसरी आज) डोंगरगढ़ रेलवे की आंख में किरकिरी बनकर उभरा है। उसका सीधा प्रमाण यह है कि इस प्रस्तुति को देखने के बाद लोगों ने रेलवे फाटक पर इतनी शिकायतें दर्ज़ की कि वहां से शिकायत पुस्तिका ही गायब कर दी गई हैं। आश्चर्य नहीं होना चाहिए जब इस नाटक के प्रभाव से शहर को जोड़नेवाली इस रेलवे फाटक के खिलाफ़ कोई जनांदोलन उभर आए। ऐसे व्यस्ततम स्थानों पर रेलवे को एक पुल का निर्माण करने में पता नहीं कौन रोकता है! 

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आखिरी दिन। सुबह जल्दी जल्दी प्रेस नोट्स लिखा। एक दिन पहले जो प्रेस नोट्स मेल किया था उसका चंद हिस्सा एकाध अखबारों ने किसी तरह छाप भर दिया। आज सुबह नवोदय विद्यालय में नाटकों की प्रस्तुति होनी है। हम नवोदय पहुंचाते हैं। विद्यालय की बैंड पार्टी हमारे स्वागत में मार्चिंग बीट बजाती है। अंदर फुल-पत्ती से हमारा स्वागत होता है और फिर मंच पर बुलाकर बच्चों को संबोधित करने का दुरूह कार्य सौंपा जाता है। नवोदय के बच्चे ज़रूरत से ज़्यादा ही अनुशासन में हमारी तरफ़ टकटकी लगाए देख रहे हैं। राकेश जी संबोधित करते हैं बीच में वेदा जी बच्चों को एक प्यारा सा गीत यह कहते हुए सुनातीं हैं कि वो गायिका नहीं हैं। अब युगल किशोर सर की बारी है। युगल सर की फिल्म (पिपली लाइव) का कुछ अंश दिखाया जाता है और फिर युगालजी बच्चों से थोड़ी बातचीत करते हैं। हम सब मंच पर खड़े हैं यह भान होते ही कुर्सियों का आगमन शुरू हो जाता है। मेरे बगल में राधेश्याम तराने खड़े थे। जैसे ही मेरे आगे कुर्सी रखी जाती है मैं तरानेजी को छेड़ते हुए धीरे से कहता हूँ – “आप बुज़ुर्ग है, आप बैठिए। मैं खड़ा रहता हूँ।” तराने जी मुस्कुराते हुए जवाब देते हैं – “अब मैं हरगिज़ नहीं बैठाने वाला।” युगल सर बच्चों से बात कर रहे हैं, मैं और तरानेजी कुर्सी के पीछे मंद-मंद मुस्कुराते हुए खड़े हैं। इसके बाद इप्टा चंडीगढ़ द्वारा नाटकों और संगीत का कार्यक्रम शुरू होता है। बच्चे अत्याधिक शालीनता से पुरे कार्यक्रम को देखते हैं। कार्यक्रम की समाप्ति के उपरांत स्कूल के भोजनालय में सामूहिक भोज का इंतज़ाम है। इप्टा चंडीगढ़ की टीम को आज ट्रेन से वापस जाना है। देर हो रही है और इधर आयोजक की बेचैनी बढ़ रही है। बहरहाल, हम सब चडीगढ़ के मित्रों से विदा लेते हैं। 

शाम में मारवा थियेटर पुणे द्वारा रेखा ठाकुर अभिनीत व ओजस एस वी निर्देशित एकल नाटक ले मशालें की प्रस्तुति होनी है। इस नाटक को लेकर मन में थोड़ी शंका है। क्या पता एकल नाटक इस स्थान पर अपना रंग जमा पाएगा या नहीं। दर्शकों के बारे में अमूमन यह धारणा है कि लोग हल्का-फुल्का, हास्य-व्यंग्य ज़्यादा पसंद करते हैं। यह नाटक मणिपुर समस्या और मूलतः इरोम शर्मिला को केन्द्र में रखकर प्रस्तुत होनेवाला एक गंभीर नाटक है। ऐसे नाटकों का उपदेशात्मक हो जाने का डर ज़्यादा होता है और इसमें कोई संदेह नहीं कि उपदेश अब दिलों तक पहुँचाने की क्षमता खो चुके हैं। प्रस्तुति शुरू होती है। यह नाटक कोई उपदेश नहीं देता बल्कि बड़ी ही सादगी से चीज़ों को सामने रखते हुए दर्शकों के अन्तःमन में कई सवाल की उत्पत्ति करने में सफलता प्राप्त करता है। यह कोई अद्भुत नाटक नहीं था और सच कहूँ तो मुझे पता भी नहीं कि अद्भुत नाटक होता कैसा है लेकिन यह बड़ी सादगी से रंगमंच की शक्ति और गरिमा का एहसास ज़रूर कराता है, और अर्थपूर्ण रंगमंच की अवधारणा को भी सार्थकता प्रदान करता है। डोंगरगढ़ के लोग अच्छे नाटकों पर खूब चर्चा करने और उसकी प्रस्तुति बार-बार देखने के लिए तत्पर रहते हैं इसलिए पुरे यकीन से यह कहा जा सकता है कि ले मशालें पर खूब चर्चा होगी। यह प्रस्तुति अगले साल भी इस नाट्य समारोह का हिस्सा बन जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। पूर्व में ऐसे कई नाटक हैं जिनकी प्रस्तुति यहां बार-बार की गई है और लोगों ने हर बार पहले से ज़्यादा उत्साह से उसे देखा है। राई नामक प्रस्तुति इस बात का साक्षात् प्रमाण है। वैसे भी अच्छे नाटकों को दर्शक हमेशा पसंद करते हैं। इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह नाटक किस रस का है।

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अर्थवान, सादगीपूर्ण और गंभीर रंगमंच एक चुनौती है इससे बचने के लिए लोग हल्केपन का सहारा लेते हैं। वैसे यह भी एक प्रकार का भ्रम ही है कि हास्य-व्यंग्य गंभीर काम नहीं है। ले मशालें की अभिनेत्री रेखा ठाकुर कहतीं हैं – “मैं जानती हूँ कि मेरा यह नाटक अपने बूते सामाजिक परिवर्तन नहीं ला सकता पर मैं इरोम शर्मिला के संघर्ष के प्रति लोगों की संवेदनाओं को तो छू ही सकती हूँ।” समारोह की अंतिम प्रस्तुति इप्टा भिलाई का नाटक सुन्दर था। 

डेविड ममेट कहते हैं – “जिन चीज़ों को लेकर हम ज़्यादा सावधान होते हैं उन्हें हम सजाते-संवारते नहीं। हम चीज़ों को किस प्रकार पेश करते हैं महत्व इसका नहीं है बल्कि महत्व इस बात का है कि हम प्रकट क्या करना चाह रहे हैं। जो बात दिल से निकलती है वह सीधी दिल में उतर जाती है।” यही बात हम डोंगरगढ़ नाट्य समारोह के बारे में कह सकतें है और जहां तक सवाल मंगौड़ी, कचौड़ी, पकौड़ी, चटनी और जलेबी का है तो इतना ही कहना उचित होगा कि आप जब भी यहां आएं इसका स्वाद ज़रूर लें। अच्छी कला के साथ इन चीज़ों का मज़ा दुगुना हो जाता है।

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(‘इप्टानामा’ ब्लॉग से साभार)

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