अजय कुमार, लखनऊ
उत्तर प्रदेश में सियासी पारा चढ़ा हुआ है। तमाम सीटों पर विभिन्न दलों ने प्रत्याशियों की घोषणा कर दी है। उम्मीदवारों का नाम सामने आने के साथ ही यह भी साफ हो गया है कि भले ही सभी पार्टिंयां के आका विकास के दावे का ढिंढोरा पीट रहे हों, लेकिन कोई भी दल ऐसा नहीं है जो चुनाव जीतने के लिए जातीय गणित का सहारा न ले रहा हो। जिस लोकसभा सीट पर जिस बिरादरी के वोट ज्यादा हैं वहां उसी बिरादरी का प्रत्याशी मैदान में उतारा जा रहा है। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी तो खुलकर जातीय राजनीति कर रही है,वहीं सबका साथ-सबका विकास की बात करने वाली भाजपा भी नहीं चाहती है कि कोई भी बिरादरी उससे दूर रहे। इसी लिए भाजपा ने उत्तर प्रदेश में जिन 28 सीटांे पर अपने प्रत्याशियों की घोषणा की है,वहां जातीय गणित का पूरा ध्यान रखते हुए पिछड़ों और दलितों पर खूब मेहरबानी की गई है। भाजपा ने अब तक घोषित 28 में से 08 सीटों पर अति पिछड़ा वर्ग के, चार सीटों पर दलित और 05 सीटों पर ब्राहमण तथा चार-चार सीटों पर क्षत्रिय एवं जाट नेताओं को टिकट दिया है। एक-एक सीट गुजर और पारसी नेता के खाते में गई है। यहां वाराणसी की भी चर्चा जरूरी है। भले ही यहां अंतिम चरणों में मतदान होना है, लेकिन भाजपा आलाकमान ने उम्मीदवारों की पहली लिस्ट में ही पीएम मोदी के वाराणसी से चुनाव लड़ने की घोषणा करके उन तमाम अटकलों पर से पर्दा हटा दिया,जिसमें कहा जा रहा था कि मोदी वाराणसी छोड़ सकते हैं।
वाराणसी से मोदी के प्रत्याशी घोषित होने के साथ ही धीरे-धीरे यह भी तय होता जा रहा है कि मोदी के खिलाफ वाराणसी से चुनाव लड़ने की हिम्मत कोई भी विरोधी दल का बड़ा और सियासत में स्थापित नेता नहीं जुटा पा रहा है। मायावती और प्रियंका चुनाव नहीं लड़ने की बात कह चुके हैं। अखिलेश ने भी अपनी सीट घोषित कर दी है। वह आजमगढ़ से चुनाव लड़ेंगे। यहां से 2014 में मुलायम चुनाव जीते थे। अबकी बार मुलायम को मैनपुरी से टिकट मिला है। राहुल गांधी अमेठी और सोनिया गांधी रायबरेली से ही लड़ेगे। वैसे, पूर्व में सिने स्टार शत्रुघ्न सिन्हा, हार्दिक पटेल का नाम वाराणसी से चुनाव लड़ने को लेकर चर्चा में आ चुका है। भीम सेना के चन्द्रशेखर आजाद भी मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने की इच्छा जता चुके हैं,लेकिन अभी तस्वीर धुधली ही नजर आ रही हैं
उधर, सपा और बसपा की नजर मुस्लिम-यादव और दलित वोटरों पर लगी है। प्रदेश की 80 में से 48 सीटों पर यादव-मुस्लिम व दलित (वाईएमडी) मतदाता प्रत्याशियों का समीकरण बिगाड़ने की क्षमता रखता है। 2014 में इन सीटों में से अधिकांश पर भाजपा प्रत्याशी विजयी हुआ था जिसके चलते केन्द्र में भाजपा सत्तारूढ़ हुई थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में सबसे खास बात यह थी कि अधिकांश सीटों पर लड़ाई त्रिकोणीय हुई थी। इसी का परिणाम था कि कई सीटों पर अपेक्षाकृत कुछ मतों की बढ़त से ही भाजपा को जीत मिल पायी थी। इस बार 2014 के परिदृश्य से माहौल थोड़ा अलग है। प्रदेश के दो मजबूत क्षेत्रीय दल बसपा-सपा एक होकर भाजपा और मोदी को चुनौती दे रहे हैं। वहीं कांग्रेस प्रियंका के सहारे अपना जनाधार वापस लाने की फिराक कें हैं। इस बार के चुनाव में मोदी लहर जैसी कोई बात नहीं है। फिर भी भाजपा की स्थिति ठीकठाक बनी हुई है, भले ही वह 2014 के आकड़ें तक नहीं पहुंच पाए, लेकिन उसके पास कई सकारात्मक मुद्दे है। मसलन, मोदी के रूप में सशक्त प्रधानमंत्री तो अमित शाह के रूप में कुशल संगठनकर्ता मौजूद है। तीसरी बड़ी ताकत है मोदी सरकार की पांच वर्ष की उपलब्धियां। 2019 के आम चुनाव से एक और बदलाव भाजपा को ताकत दे रहा है वह है यूपी में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली सरकार।
भाजपा के लिए 2019 में चुनौतियों की बात करें तो सपा-बसपा अपने सारे मतभेद भुलाकर एक मंच पर आ चुकी है। कांग्रेस ने 2009 में यूपी में 21 सीटें जीती थी, 2019 में अपने पुराने गौरव को हासिल करने के लिए कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को मैदान में उतार दिया है। प्रियंका को मैदान में उतारने से पूर्व कांगे्रस चाहती थी यूपी में मोदी और भाजपा के खिलाफ कांगे्रस,सपा और बसपा मिलकर ताल ठोंके,लेकिन बसपा सुप्रीमों मायावती इसके लिए तैयार नहीं हुईं। इसी वजह से सपा प्रमुख अखिलेश यादव को भी अपने कदम पीछे खींचना पड़ गए। कांगे्रस,सपा-बसपा के साथ गठबंधन का हिस्सा भले नहीं बन पाई हो,लेकिन उसकी कोशिश यही है कि कांग्रेस का सपा-बसपा गठबंधन से कहीं भी सीधा टकराव भी नहीं हो।
बात पिछले लोकसभा चुनाव की कि जाए तो 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में लड़कर यूपी में 73 सीटों पर जीत के साथ ही 42 फीसदी से ज्यादा वोट भी बटोरे थे। तब सपा को 22 व बसपा को 19 फीसद से ज्यादा वोट मिले थे। कांग्रेस ने भी सभी सीटों पर लड़ने के बाद सिर्फ 7 फीसद वोट हासिल किया था। 2014 में मोदी लहर में उत्तर प्रदेश के चुनाव जातीय समीकरणों से ऊपर हिन्दुत्व के मुद्दे पर लड़े गए थे। मुसलमानों को छोड़कर अगड़ों-पिछड़ो और दलितों ने खुलकर मोदी के नाम पर भाजपा को वोट किया था। इसी का नतीजा था कि मुस्लिम दबदबे वाली सीटों पर भी भाजपा दस में से आठ पर जीतने में सफल रही थी। सिर्फ दो सीटें सपा के खाते में आ आई थीं, इनमें आजमगढ़ व फिरोजाबाद शामिल थी।
इस बार हालात बदले हुए हैं। बदले हालात में सपा-बसपा को यूपी की 37 लोकसभा सीटों परं उम्मीद की किरण दिखाई दे रही है। जहां मुस्लिम, यादव और दलित का वोट 50 प्रतिशत से अधिक है। पिछली बार मुस्लिम, यादव और दलित गठजोड़ वाली स्वार,रामपुर व संभल लोकसभा सीटों पर भी भगवा परचम फहरा था, भले ही वोटों का अंतर ज्यादा न रहा हो। संभल में तो महज पांच हजार के वोट के अंतर से भाजपा को कामयाबी मिली थी। 2019 के बदले हालात में राजनीतिक समीकरण सपा-बसपा के पक्ष में जाता है तो यहां से भाजपा को झटका लग सकता है।
खैर, तमाम किन्तु-परंतुओं के बीच एक परिदृश्य यह भी बनता दिख रहा है कि 2019 की चुनावी चैसर पर किसान निर्णायक न साबित हो जाए। इसी लिए किसानों के सहारे ही सभी पार्टियां अपनी-अपनी बिसात बिछाकर मैदान में कूदने को बेताब हैं। किसानों के वोट बैंक पर नजर लगाए नेताओं को उम्मीद है कि इस बार अन्नदाता ही भाग्य विधाता साबित होगा।
भाजपा ने बदले हालात में सामाजिक समीकरणों को तरजीह देते हुए एक बार फिर 2019 के लिए अपना दल(एस) को दो और योगी सरकार में सहयोगी ओम प्रकाश राजभर की सुभासपा को एक सीट दी है। पार्टी सुभासपा के बगैर ही 2014 में अपना दल को लेकर 73 सीटें जीत चुकी है, तब कांग्रेस सिर्फ अपने गढ़ रायबरेली व अमेठी को ही बचा पायी थी और सपा यूपी सरकार में रहते हुए भी पांच सीटों तक सिमट गयी थी, बसपा व आरएलडी का खाता भी नहीं खुल पाया था। भाजपा ने जीत के इस जोश को सूबे के विधान सभा चुनाव में 2017 में भी बनाये रखा। 2014 के लोकसभा परिणामों को विधानसभा वार देखे तो भाजपा को 338 सीटों पर लीड मिली थी।
वहीं भाजपा यूपी में छोटे दलों को लेकर 2017 में 325 सीटें ला चुकी है। अब देखना है कि 2019 में भाजपा रिकार्ड प्रदर्शन में कामयाब होती है या फिर गठबंधन में आयी सपा-बसपा। चुनावी ऊंट यूपी में किस करवट होगा, इस पर तब तक कुछ नहीं कहा जा सकता है जब तक कि सभी दलों के नेता अपने-अपने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा न कर दें। वैसे भाजपा के लिए राहत वाली बात यह है कि उसने अपने छहः मौजूदा सांसदों के टिकट काट दिए हैं,लेकिन अभी तक उसे कहीं से कोई विरोध की चिंगारी देखने को नहीं मिली है। साक्षी महाराज ने जरूर बागी तेवर दिखाए थे,लेकिन उनका टिकट कटा नहीं, जिस कारण वह शांत हो गए हैं।
लेखक अजय कुमार यूपी के वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं.