1989 में जब मैंने चंडीगढ़ जनसत्ता का कार्यभार संभाला, जूलियो रिबेरो आतंकवाद से जूझ रहे पंजाब में राज्यपाल के सलाहकार थे। राष्ट्रपति राज में राज्यपाल और उनके सलाहकार ही शासन चलाते थे। राजभवन के एक आयोजन में जब मैं रिबेरो से मिला, वे कहीं से ‘सुपरकॉप’ नहीं लगते थे; उनमें अत्यंत सहजता और विनम्रता थी, खीज या उत्तेजना उनसे कोसों दूर नजर आती थी। मेरी जिज्ञासा पर अपने पर हुए एक जानलेवा हमले का किस्सा उन्होंने हंसते हुए सुनाया था।
इंडियन एक्सप्रेस में छपा उनका लेख हर पाठक को हिला गया होगा। उनमें इस किस्म की खीज, उत्तेजना और हताशा का भाव देखना दुखी कर गया। मुसलमानों के बाद अब ईसाई समुदाय और उनके गिरजे जगह-जगह निशाने पर हैं। रिबेरो कहते हैं – “86वें वर्ष में हूँ, मगर आहत और अवांछित महसूस करता हूँ, मानो अपने ही देश में अजनबी की हैसियत में सिकुड़ गया होऊं। … जैसे मैं भारतीय ही नहीं रहा, कम से कम हिन्दू राष्ट्र के उन्नायकों की नजरों में। …
“… मदर टेरेजा के बारे में मोहन भागवत के बयान के बाद मैं अपने आपको भी निशाने पर समझने लगा हूँ। … मैं क्या करूँ? अपना आत्मविश्वास फिर से कैसे अर्जित करूँ। मैं इसी देश में जन्मा। मेरे पूर्वज भी। पांच हजार साल पहले या उससे भी पीछे। अगर मेरा डीएनए देखेंगे तो वह भागवत के डीएनए से अलग नहीं निकलेगा। मेरा डीएनए देश के रक्षामंत्री से भी मिलेगा … इतिहास का यह महज संयोग रहा कि मेरे पूर्वजों ने धर्म बदल लिया, भागवत के पूर्वजों ने नहीं। मुझे नहीं पता, और न मैं कभी जान पाउँगा, कि किन परिस्थितियों में मेरे पूर्वजों ने ऐसा किया होगा।”
प्रधानमंत्रीजी, आप देर से सही बोले तो हैं, पर अपनी आवाज में असर कब दिखाएंगे – रिबेरो का आर्तनाद आपसे यही पूछता है।
वरिष्ठ पत्रकार और जनसत्ता अखबार के संपादक ओम थानवी के फेसबुक वॉल से.