एक रिपोर्ट के साथ छेड़छाड़ कैसे सामाजिक न्याय को प्रभावित करती है? संदर्भ मीडियाविजिल….
कल मैंने जब मीडियाविजिल पर बीते चार साल में अपनी लिखी रिपोर्टों (ध्यान दीजिएगा, लेख नहीं रिपोर्ट) और दूसरे साथियों की लिखी रिपोर्टों में से बाइलाइन गायब होने और कारवां पत्रिका में 21 जुलाई को छपी एक रिपोर्ट में दर्ज अपनी एक रिपोर्ट के मिसिंग लिंक की बात सार्वजनिक की, तो ज्यादातर मित्रों को यह मामला अनैतिक तो लगा, लेकिन साथ ही तकनीकी भी लगा।
खुद वेबसाइट के मालिक पंकज श्रीवास्तव को भी जब मामला समझ में आया, तो उनकी प्रतिक्रिया थी, “बस, इतनी सी बात है!“ आइए, आज बताता हूं कि बात इतनी भी तकनीकी नहीं है, उसके निहितार्थ बड़े हैं।
दरअसल, कारवां की रिपोर्ट में दर्ज मीडियाविजिल की मेरी वाली जिस स्टोरी का लिंक Error404 दिखा रहा था, उसी के आधार पर, उसी को साक्ष्य बनाते हुए, मानवाधिकार आयोग में शिकायत दर्ज करवायी गयी थी और डीजीपी सहित प्रशासन को नोटिस गया था।
साफ़ करना चाहूंगा कि अपनी बाइलाइन के प्रति कोई मोह न होते हुए भी सामाजिक न्याय के प्रति मेरी निष्ठा बिलकुल है, जिससे जुड़े मुद्दों पर मैं रिपोर्ट करता रहा हूं। अतीत में मेरी लिखी (मीडियाविजिल पर ही) और दूसरों से लिखवायी रिपोर्टों पर कम से कम नहीं तो दर्जन भर बार एनएचआरसी में शिकायत हुई है और हर बार आयोग ने संज्ञान लेकर प्रशासन को नोटिस भेजा है।
मेरे अलावा मुझे याद आता है कि पुष्य मित्र भाई की बिहार चुनाव के दौरान लिखी एक रिपोर्ट पर राजस्थान और बिहार के डीजीपी को आयोग का नोटिस गया था। शिवदास की लिखी रिपोर्ट भी आयोग में शिकायत के साथ नत्थी है। मेरे मामले में कासगंज दंगा, सहारनपुर दंगा, बनारस के मुसहरों का मामला, भुखमरी से खुदकुशी के दो मामले, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों पर हमले, आदि में एनएचआरसी सरकारों को नोटिस जारी कर चुका है। कुछ में जांच जारी है। इन सभी मामलों में रिपोर्टर की बाइलाइन वाली रिपोर्ट शिकायत के साथ नत्थी साक्ष्य होती है।
एक मामला इस संदर्भ में याद करना चाहूंगा। कोई दस बरस पहले, जब भाई रामजी यादव बंबई में थे, उन्होंने अदलहाट थाना, मिर्जापुर के अंतर्गत एक गांव में एक आदिवासी लड़की के रेप की सूचना दी थी। उस पर मैंने कोई रिपोर्ट नहीं लिखी, केवल फेसबुक पोस्ट लिखी थी विस्तार से। आवेश तिवारी ने इस मामले में अहम हस्तक्षेप किया थ। तब मीडियाविजिल का अस्तित्व नहीं था। मैं एक टीवी चैनल में काम करता था। मेरे पास अभी तीन साल पहले उस संदर्भ में पुलिस से फोन आया। सब कुछ पूछा गया। मैंने सब कुछ बताया क्योंकि मुझे सब कुछ याद था। उस लड़की को मुआवजा मिला, न्याय मिला।
हम नहीं जानते कि हमारे लिखे का कहां क्या परिणाम होगा, कैसे वो फॉलो होगा, लेकिन हम इतना जानते हैं कि केवल लिखने भर की पत्रकारिता से आगे बढ़कर हम लोग लिखे पर कार्रवाई वाली पत्रकारिता करते हैं। ज़ाहिर है, यह काम अकेले नहीं होता। रिपोर्टर रिपोर्ट करता है। संपादक उसकी जवाबदेही लेता है। सामाजिक कार्यकर्ता उसे साक्ष्य बनाकर शिकायत दर्ज करवाता है। एजेंसियां जांच करती हैं। बरसों बाद शायद दस में से एक मामले में इंसाफ़ हो पाता है।
इस समूची कड़ी में साक्ष्य के बतौर समाचार रिपोर्ट की भूमिका केंद्रीय होती है, यह बात समझाने वाली नहीं है। जो पत्रकार सामाजिक मोर्चे पर काम करते हैं, उन्हें यह पता होना चाहिए। किसी भी कारणवश अगर रिपोर्ट में तब्दीली आयी, रिपोर्ट गायब हुई, तो न केवल रिपोर्टर, बल्कि संपादक, संस्थान और इस प्रक्रिया से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता की विश्वसनीयता को भी चोट पहुंचती है। न्याय की प्रक्रिया कमजोर होती है।
अब सोचिए, कल को अगर बनारस में मुसहरों के घास खाने वाले मामले में एनएचआरसी जांच बैठाता है और शिकायत में नत्थी मेरी रिपोर्ट वेबसाइट से नदारद मिलती है, तो मेरी स्थिति कितनी अजीब हो जाएगी। वो सामाजिक संगठन जिसने मेरे लिखे पर भरोसा कर के उसे साक्ष्य बनाया, उसका क्या होगा? संपादक तो तकनीकी मसला कह कर पल्ला झाड़ लेगा, लेकिन पत्रकारिता तो चुल्लू भर पानी में सुसाइड कर लेगी।
जिन मित्रों को, और खासकर जिन संपादकों को यह बात समझ में नहीं आती, वो केवल इसलिए क्योंकि उन्होंने शायद हस्तक्षेप वाली पत्रकारिता नहीं की है। आपका लिखा सामाजिक दस्तावेज है जो सामाजिक न्याय की सी़ढ़ी पर ऊपर चढ़ने के काम आता है। उसके साथ किसी भी किस्म की छेड़छाड़ इसीलिए घोर आपराधिक मामला है। इसे जो हलके में ले रहे हैं, वे जाने कौन सी पत्रकारिता कर रहे हैं।
मेरी मीडियाविजिल से एक बार फिर गुज़ारिश है, सबके सामने, कि सामाजिक न्याय के सवाल को विश्वसनीय बनाये रखने के वास्ते वे अपनी तकनीकी खामी दूर करें और सभी रिपोर्टरों के बाइलाइन यथाशीघ्र बहाल करें। कुछ लोगों ने मुझसे कल पूछा था कि मैंने मीडियाविजिल क्यों छोड़ा इसका जवाब दूं। मेरा इन सब को एक ही जवाब है कि जिस गली से एक बार निकल लिए उस पर दोबारा नज़र क्यों डालें। बड़ी लकीर खींचें। आगे बढ़ें।
पत्रकार और सोशल एक्टिविस्ट अभिषेक श्रीवास्तव की एफबी वॉल से.
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