संजय सिन्हा-
कलेजे का दो टूक हो जाना (पत्तलकार बनाम गोदी)
किसी की गोदी में बैठ कर कुछ भी नहीं किया जा सकता है। पत्रकारिता भी नहीं। बाल काल में गोदी स्नेह है, युवा काल में नहीं। बच्चा मां की गोदी में तभी तक रहता है, जब तक उसके पांव नहीं उगे होते हैं। पांव उगते ही, वो गोदी छोड़ देता है। गोदी छोड़ देना सक्षम होने का प्रमाण है, नहीं छोड़ना स्वाभिमान खो देने की निशानी।
संजय सिन्हा नहीं जानते कि किस समझदार ने तुकबंदी मिलान करते हुए पत्रकारिता को मोदी काल में गोदी से जोड़ दिया और ये शब्द इतना प्रचलित हो गया कि विश्वविद्यालय की किसी परीक्षा में छात्रों से पूछ लिया गया कि आप गोदी मीडिया से क्या समझते हैं? संजय सिन्हा ने अपना पत्रकारीय करीयर प्रिंट माध्यम से शुरू किया था। तब ‘मीडिया’ शब्द प्रचलित नहीं था। लोग पत्रकार ही कहे और सुने जाते थे।
हालांकि ‘गोदी’ के पर्याय के रूप में पत्रकार के लिए किसी ने ‘पत्तलकार’ शब्द इजाद किया, वो भी कम कमाल का नहीं है। ‘पत्तलकार’ में गोदी की तरह लाचारगी या बेचारगी नहीं है। यह तो कलेजे का दो टूक हो जाना है। मुझे तो ‘पत्तलकार’ सुन कर ‘निराला’ के ‘भिक्षुक’ की याद आती है, जो किसी पत्रकार के लिए अघोषित रूप से लागू शब्द होना चाहिए।
संजय सिन्हा ने आपको बताया है कि उनकी दादी को जब पहली बार पता चला था कि पोता पत्रकार बन रहा है तो वो परेशान हो गई थीं। एक जमींदार की पत्नी ने घर को सिर पर उठा लिया था, ये कहते हुए कि संजू खाएगा क्या? पत्तल चाट कर जीवन चलेगा? मतलब वो जानती थीं कि पत्रकारिता करीयर नहीं है। मिशन है।
महाराणा प्रताप ने घास की रोटी खाई थी, एक असली पत्रकार को पत्तल चाटना पड़ता है (पड़ सकता है)।
जब आप सत्ता विरोध में होंगे तो घास की रोटी खाने पर मजबूर होना या किसी के फेंके पत्तल को चाट कर जीना अपमान नहीं, स्वाभिमान है। ये स्वाभिमान आपने चुना है। मजबूरी नहीं, शौक से।
मैंने जब पत्रकारिता को अपना पेशा चुना था तो मेरी सैलरी बहुत कम थी। मेरे कई साथी कहते भी थे कि सैलरी कम है। लेकिन मुझे कम सैलरी का संताप कभी सता नहीं पाया। मैंने हमेशा यही कहा कि अरे भाई, हम किसी दुर्घटना या मजबूरीवश इस धंधे में नहीं आए हैं, हमने ये चुना है। नहीं तो मेरे सभी सारे साथी, जिन्होंने मेरे बैच में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन से पत्रकारिता की पढ़ाई की थी, वो सीधे भारतीय सूचना सेवा के लिए चुन लिए गए थे। मैंने उसके लिए आवेदन नहीं किया था।
तब (1989 में) ये सुविधा थी (मुझे नहीं पता कि अब है या नहीं) कि IIMC की पढ़ाई पूरी करने के बाद सीधे UPCS से संचालित इंटरव्यू में बैठने की अनुमति थी। आप सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधीन नौकरी प्राप्त कर सकते थे। मेरे बैच के लगभग सभी साथियों ने उस सरकारी नौकरी को चुना था, जिनमें से अधिकतर अभी भी आकाशवाणी, दूरदर्शन, सूचना-प्रसारण मंत्रालय, सरकारी प्रकाशन विभाग, प्रेस इनफॉर्मेशन ब्यूरो में अधिकारी हैं। जिस नौकरी को पाने के लिए लोग पता नहीं क्या-क्या करते हैं, वो नौकरी इस पढ़ाई के बाद उस साल आसानी से मिल रही थी।
आईआईएमसी के डाइरेक्टर थे जसंवत सिंह यादव। मैं उन दिनों ‘जनसत्ता’ अखबार में नौकरी कर रहा था और उन्होंने न जाने कितनी बार कहा था कि संजय तुम भी इस इंटरव्यू में बैठो। मैंने यही कहा था कि सर, सरकारी नौकरी करनी होती तो फिर पत्रकारिता करने आता ही क्यों?
मेरे सामने भी ऑफर था। सभी ने कहा था कि भारतीय सूचना सेवा की इस नौकरी में अफसरी है, निश्चित समय पर प्रमोशन है, गाड़ी है, घोड़ा है, रुतबा है, सरकारी घर है। सब है। बस भौंकने की आजादी नहीं थी।
आपने रूसी और अमेरिकी कुत्ते की कहानी सुनी होगी जिसमें रूस का एक कुत्ता अमेरिका गया था तो अमेरिकी कुत्ते ने उससे रूस के बारे में पूछा था। उसने कहा था कि वहां सब है। खूब खाना, खूब मौज काटना, काम कम, फुल समाजवाद है। कौतुहल से अमेरिकी कुत्ते ने रूसी कुत्ते से पूछा था कि फिर अमेरिका क्या करने आए?
रुसी कुत्ते ने कहा था वहां भौंकने की आजादी नहीं। बस कुछ दिनों से भौंकने का मन कर रहा था इसलिए अमेरिका आया। तो मैंने भी यही कहा था कि सरकारी खामियों पर नज़र रखने के लिए संजय सिन्हा वाच डॉग बने हैं, आप उन्हें इतने ऑफर देकर म्याऊँ करने वाली बिल्ली क्यों बनाना चाहते हैं?
और मैं खुशी-खुशी पत्रकारिता करता रहा। पत्तल चाटने जैसी स्थिति में भी।
मैंने आपको ये कहानी भी सुनाई है कि जैसे मेरी दादी इस बात से परेशान थीं कि पोता पत्रकारिता में खाएगा क्या? वैसे ही मीडिया के उदय के बाद एक दादी ने अपनी पोती के होने वाले पति से पूछा था कि कौन-सी पार्टी के पत्रकार हो बेटा? कौन-सी पार्टी? यहीं से शुरुआत होती है गोदी मीडिया की।
अब आप समझ गए होंगे ‘पत्तलकारिता’ और ‘गोदी’ का फर्क।
झारखंड में किसी परीक्षा में पूछा गया कि आप गोदी मीडिया से क्या समझते हैं?
पूछने वाले को ये भी पूछना चाहिए था कि ‘पत्तलकारिता’ और ‘गोदी मीडिया’ में क्या अंतर है? मेरा कहना है कि अब अगर कोई पूछे तो मेरा आज का लेख उसे परीक्षा में उकेर देना चाहिए। पूछने वाला जानता था कि पत्तलकारिता ही पत्रकारिता है। गोदीपना पत्रकारिता नहीं।
‘पत्तल’ में दादी की चिंता है, ‘गोदी’ में जिज्ञासा।
ऐसा नहीं है कि सत्ता की गोदी में पत्रकारिता पहली बार बैठी दिखी है। पहले भी यही था। बस ‘मोदी’ से ‘गोदी’ का जुड़ जाना इसे अधिक प्रचलित कर गया।
कुछ दिन पहले जबलपुर में नगर सेठ कैलाश गुप्ता ने एक सभा में मुझसे पूछा था कि संजय जी, ये गोदी पत्रकारिता क्या है? मैंने सहज भाव से जवाब दिया था कि ‘जन सत्ता’ को छोड़ कर पत्रकार जब ‘राज सत्ता’ की बात करने लगे तो वो गोदी पत्रकारिता है। तमाम राजनीतिक पार्टियों ने अपने-अपने मुख पत्र निकाले, वहां भी उन्होंने संपादक रखे, उप संपादक और संवाददाता रखे पर वो पार्टी हित के लिए लिखते थे और कहते खुद को पत्रकार थे। वो असल में गोदी पत्रकारिता ही थी। पार्टी विशेष के लिए। चाहे वो कांग्रेस की गोद रही हो, बीजेपी, समाजवादी पार्टी या किसी पार्टी की। गोदी गोदी है। किसी पार्टी के हित में सोचने वाले लोग पत्रकारिता की आड़ में गोदी पत्रकारिता ही करते हैं। कहते खुद को जर्नलिस्ट हैं। जबकि असली जर्नलिस्ट का अर्थ ही होता है पत्तलकार।
यकीन मानिए, अगर मेरी पत्नी भी नौकरी में नहीं होती (बहुत पहले पत्रकारिता छोड़ कर मैनेजमेंट लाइन में चली गई), अगर मैं टीवी पत्रकारिता (मीडिया) में नहीं गया होता तो आज भी पत्तलचाट कर ही जी रहा होता।
गोदी पत्रकारिता की शुरुआत कब हुई, कैसे हुई इस पर मैंने पूरा शोध किया है। कभी पूरा शोध आपके सामने रखूंगा। फिलहाल तो मेरे परिजन इंतज़ार में होंगे कि संजय सिन्हा कल शादी की सालगिरह मनाने के बाद अब तक सोए हैं क्या? तो आज के लिए इतना ही। मैं सैल्युट करता हूं उस परीक्षा सिस्टम को, जहां ऐसे प्रश्न पूछे जाने लगे हैं कि गोदी मीडिया से आप क्या समझते हैं? शानदार प्रश्न। सही लोकतंत्र।
नोट-
- गोदी पत्रकारिता लाचार पत्रकारिता है। पत्तलचाट पत्रकारिता सही मायने में घर फूंक पत्रकारिता है।
चाहत आपकी। सोच आपकी। - मैं आपकी जूठन चाट कर पलने को तैयार हूं, आपगी गोद में बैठ कर ठकुरसुहाती करने को नहीं। मजबूरी को जी सकता हूं पर मैं गोदी में नहीं बैठेगा। चलेगा तो अपने ही पांव से।
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