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साहित्य

राही मासूम रज़ा का ठीक से मूल्यांकन नहीं हुआ!

प्रभात रंजन-

‘रेख्ता’ देखा तो पता चला आज राही मासूम रज़ा का जन्मदिन है. हिंदी में इस लिक्खाड़ लेखक का ठीक से मूल्यांकन नहीं हुआ. ‘जासूसी दुनिया’ के लिए इन्होने बड़ी संख्या में जासूसी उपन्यास लिखे जो आज तक किताब की शक्ल में सामने नहीं आये. पहले ही साहित्यिक उपन्यास ‘आधा गाँव’ पर इनको साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिलते मिलते रह गया क्योंकि उस साल ‘राग दरबारी’ भी उस लिस्ट में थी और ज्यूरी के सदस्यों हजारी प्रसाद द्विवेदी, भगवती चरण वर्मा जैसे कद्दावर लेखकों के सामने नौजवान लेखक और ज्यूरी के तीसरे सदस्य मनोहर श्याम जोशी कुछ बोल नहीं पाए.

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बाद में फिल्मों में गए और अपने दौर के सबसे सफल संवाद लेखक थे. हर तरह की फिल्मों के संवाद लिखे, ‘गोलमाल’ से लेकर ‘तवायफ’ तक फ़िल्मी लेखन में भी उनका व्यापक रेंज दिखाई देता है. उनके बारे में कमलेश्वर जी और असगर वजाहत साहब खूब किस्से सुनाते थे. सब लिखने का मौका नहीं है लेकिन फ़िल्मी लेखक के रूप में उनकी क्या ठसक थी।

इससे जुड़ा एक प्रसंग यह है कि 1980 के दशक में जब मद्रास इंडस्ट्री से बड़ी तादाद में हिंदी फ़िल्में बन रही थीं तो उस इंडस्ट्री के भी स्टार राइटर राही साहब थे. कहते हैं कि वे मद्रास में रह नहीं पाते थे क्योंकि वहां की आबोहवा उनको रास नहीं आती थी इसलिए वे सुबह की फ्लाईट से मद्रास जाते और शूटिंग ख़त्म होने के बाद रात की फ्लाईट से मुम्बई लौट आते थे.

एक समय ऐसा था कि उन्होंने 44 फ़िल्में एक साथ साइन कर रखी थी. बाद में टीवी का दौर शुरू हुआ तो उसके आरंभिक महा-धारावाहिकों में एक ‘महाभारत’ के लेखक राही साहब ही थे. और हाँ, यह भूल ही गया कि राही साहब अगर कुछ न होते तो एक बेहतरीन शायर के रूप में उनका अपना मुकाम होता. उनके कई शेर मुझे बहुत पसंद हैं. फिलहाल एक शेर के साथ उनकी स्मृति को प्रणाम करता हूँ-

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रातें परदेस की डरता था कटेंगी कैसे
मगर आँगन में सितारे थे वही घर वाले


डॉ शारिक अहमद खान-

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आज डॉ.राही मासूम रज़ा की जयंती है।आज राही पर लंबी चर्चा करते हैं।एक बार फ़िल्म स्टार राजकुमार ने लेखक और शायर डॉ.राही मासूम रज़ा से कहा कि कश्मीर चलो जानी,लिखो कहानी।राजकुमार डा.राही मासूम रज़ा से अपनी नई फ़िल्म की कहानी और डॉयलॉग लिखवाना चाहते थे।राही साहब कश्मीर गए लेकिन लिखा कुछ नहीं।

वजह कि राही बॉम्बे के अपने कमरे में ज़मीन पर बैठकर ही लिखते थे।राही ज़मींदार थे,ज़मींदारों वाला शौक़ था।घर में बिरियानी की देगें चढ़ी रहतीं या गोश्त बनता रहता और राही से मिलने जुलने वाले नोश फ़रमाते रहते।राही लोगों से बात भी करते,टेलीफ़ोन पर भी बात करते,लिखते भी रहते,मतलब सारे काम एक साथ करते।उन्होंने अपने दिमाग़ को ऐसा ट्रेंड कर रखा था।

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ख़ैर,राही ने राजकुमार के लिए लिख दी कहानी।राजकुमार ने मेहनताना नहीं दिया।कई बार तकादा किया राही ने लेकिन राजकुमार टाल जाएं।आज-कल,आज-कल करें।एक दिन राही ने राजकुमार को फ़ोन किया और कहा कि जानी राजकुमार,मैं आपके ऊपर ग़ाज़ीपुर कोर्ट में मुक़दमा करूँगा।जब आप आएंगे तो मैं जज से कहूँगा कि ये आदमी कोर्ट की बेइज़्ज़ती कर रहा है,वजह कि इसने कोर्ट में टोपी पहन रखी है।

जज साहब आपसे टोपी उतारने के लिए कहेंगे,आप जैसे ही उतारेंगे मैं फ़ोटोग्राफ़र खड़े किए रहूँगा जो आपकी तस्वीर खींच लेंगे।ये तस्वीर दूसरे दिन देश के हर अख़बार में छपवा दूँगा।आपका स्टारडम ख़त्म हो जाएगा।राजकुमार यह सुन घबराए और कहा कि जानी मैं तुम्हारे पैसे लेकर अभी तुम्हारे घर आ रहा हूँ।

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राजकुमार आए और बिरियानी खाई,पैसे दिए और चले गए।राजकुमार इसलिए डरे क्योंकि राजकुमार गंजे थे और विग पहनते थे।जनता को मालूम होता कि राजकुमार गंजे हैं तो उनका स्टारडम ख़त्म हो जाता।राही गंगा को अपनी माँ मानते थे।राही मासूम रज़ा तवायफ़ों के कोठे में बहुत दिनों तक रहे,इसका ये मतलब नहीं कि वो दलाल थे या वहाँ तबला बजाते थे,बल्कि वो इसलिए रहे क्योंकि उनका कहना था कि जब तक मैं रंडीख़ाने में नहीं रहूँगा,तब तक रंडियों का सही चित्रण नहीं कर पाऊँगा।देशज भाषा लिखने के शौक़ीन राही ने रंडी-मुंडी भी लिखा और धराऊं गालियों और कोसों को उन्होंने आधा गाँव नाम के अपने उपन्यास में शामिल किया।

जब आधा गाँव को एक यूनिवर्सिटी ने अपने कोर्स में लिया तो हल्ला मचा कि ये लेखक गालियाँ लिखता है।राही पर दबाव पड़ा कि गालियाँ हटाइये,राही ने कहा कि जब मेरे पात्र गालियाँ बकते हैं तो मैं गाली कैसे हटा दूँ।राही की कहानी का पात्र अगर जौनपुर का होता तो जौनपुरिया बोलता,सुल्तानपुर का होता तो वहाँ की टोन में रहता।जब नीम का पेड़ पर धारावाहिक बना तो बनाने वालों ने गड़बड़ी कर दी,अवधी और भोजपुरी का मिलवाँ पंच कई जगह ऐसा मारा कि गुड़-गोबर कर दिया।वो कृत्रिम भाषा हो गई,राही की लीक से हट गई।

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राही के बारे में मेरा मानना है कि राही लेखक बड़े थे,लेकिन एैबी भी थे,एैबी होने की वजह से धुन के पक्के थे।एैबी यूँ कि उनका एक पैर दूसरे पैर से छोटा था,लंगड़ाकर चलते।जहाँ अलीगढ़ में पान उधार खाते वहाँ उनको आते देखकर कई छात्र कहते कि आ रहा है लंगड़ा,उधार खाएगा और केमेंट्री सुनेगा।राही एक बार फ़िराक़ साहब से मिलने कई लोगों के साथ पहुंचे,फ़िराक़ के यहाँ बने कबाब की तारीफ़ की,पूछा किसने बनाया है,किसी ने बताया फ़िराक़ साहब की पत्नी ने,राही ने फ़िराक़ की पत्नी की पाककला की तारीफ़ कर दी।बस फ़िराक़ का मूड ख़राब हो गया,अनमने से हो गए।

राही ने सोचा था कि फ़िराक़ साहब गालियाँ बकें तो हम उन्हें नोट करें,इस तरह से गालियों का ज्ञान बढ़ेगा।लेकिन फ़िराक़ ने गालियाँ नहीं दीं,बस तरह-तरह के चेहरे बनाते रहे।अब मौके की नज़ाकत भांप राही समेत सभी लोग खिसक लिए।फ़िराक़ ने उन लोगों के जाने के बाद गालियाँ बकना शुरू कीं,कोई गाली रिपीट नहीं की,राही समेत सबको गरिया के अघा गए।डॉ.राही मासूम रज़ा ने नब्बे के दशक के क़रीब कुछ यूँ लिखा था और कहा था कि रामचरित मानस भक्तिकाल नहीं वीरगाथा काल का अंग है।

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तुलसीदास मुग़लिया दौर में रहे।मेरे ख़्याल से रावण मुसलमान बादशाह है,सीता हमारी आज़ादी,हमारी सभ्यता,हमारी आत्मा है,जिसे रावण हर ले गया है।परशुराम की कमान राम के हाथ में है,यानी ब्राह्मणों से धर्म की रक्षा नहीं हो सकती।मगर क्षत्रिय,सारे राजा-महाराजा तो मुग़ल दरबार में हैं।तुलसीदास ऊंची जाति के हिंदुओं से मायूस हैं,क्योंकि ऊंची जाति के हिंदू तो मुग़ल से मिल बैठे हैं।मगर वो किसी अछूत को नायक नहीं बना सकते थे,इसलिए उन्होंने एक देवता नायक बनाया।राम की सेना में लक्ष्मण के सिवा ऊंची जाति का एक भी आदमी नहीं है।

इन दोनों भाईयों के सिवा राम की सेना में केवल बंदर हैं,नीची जाति के लोग।यानि कि ऊंची जाति के लोगों से मायूस होकर तुलसीदास ने अछूतों या नीची जाति के हिंदुओं को धर्म की रक्षा के लिए आवाज़ दी है।डॉ.राही मासूम रज़ा ने कहा है कि तुलसी के मानस में मुग़लिया दरबार की झलकियाँ हैं।शायर-लेखक राही ने लिखा कि वो तय नहीं कर पाए कि उनका घर ज़िला ग़ाज़ीपुर का गंगौली है या ज़िला आज़मगढ़ का ठेकमा बिजौली।वजह कि राही का जन्म तो गंगा किनारे के गंगौली में हुआ लेकिन उनके पूर्वज बिजौली से गंगौली में जाकर बसे थे।राही इस मामले में कन्फ़्यूज़ रहे।

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शायर मजरूह सुल्तानपुरी सवाल उठाते कि राही मेरा जन्म तो आज़मगढ़ के निज़ामाबाद में हुआ जबकि हमारे पूर्वज ज़िला सुल्तानपुर के थे और इसीलिए मेरे नाम के आगे सुल्तानपुरी लगा है।जबकि आप उस जगह का नाम अपने नाम के साथ लगाते हैं जहाँ आप जन्मे।तब कैफ़ी आज़मी दोनों के बीच सुलह करवाते और कहते कि आप दोनों आज़मी हैं,मतलब आज़मगढ़ के लोग।ख़ैर,राही का अंदाज़ ज़रा जुदा था।एक बार उनके पिता जो ग़ाज़ीपुर के बहुत जाने-माने वकील थे वो कांग्रेस के टिकट से ग़ाज़ीपुर से नगरपालिका का चुनाव लड़ गए।राही अपने पिता के ख़िलाफ़ हो गए और उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी से अपने ख़ास पब्बर राम को खड़ा किया।

राही ने पब्बर के पक्ष में वो माहौल बनाया कि पब्बर राम चुनाव जीत गए और राही के पिता चुनाव हार गए।राही के लिखे की फ़ेहरिस्त लंबी है।जैसे कटरा बी आर्ज़ू,टोपी शुक्ला,आधा गाँव और तमाम।राही शायर भी थे।हम यहाँ सबका ज़िक्र ना कर उनकी कृति ‘नीम का पेड़’ पर आते हैं।बुधईया चमार एक नीम का पेड़ लगा रहा है।ज़मींदार ज़ामिन मियाँ का लठैत बजरंगी अहीर आकर लाठी अड़ा देता है।कहता है मियाँ से पूछे रहे हो।बुधईया जवाब देता है कि ई तो नीम का पेड़ है।

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बजरंगी कहता है कि नीम होय या पाकड़।कल ई जमीन मियाँ केऊ का दै देहैं तो का करिहो।बुधईया ज़ामिन मियाँ के यहाँ भागता है।मियाँ अपने दुआरे बैठे हुक्का पी रहे हैं।बुधईया पूछता है कि मियाँ अपने दुआरे हम एक ठो नीम का पेड़ लगाय लेई।ज़ामिन मियाँ ठहाका मारकर हंसते हैं।कहते हैं कि साला लगाए भी चला तो नीम का पेड़,नीम के पेड़ का होईहै बे,निमकौली की दुकान खोलेगा।फिर कहते हैं कि अच्छा जा लगा ले।तभी चमरौटी से एक बच्चा आकर बताता है कि बुधई काका के घर लड़का भवा है।मियाँ बुधईया चमार को एक बोरा गेहूँ और कपड़े देते हैं।बुधईया चमार सिर पर गेहूँ का बोरा रखकर और कपड़े की गठरी लटकाए घर भागता है।

नीम का पेड़ अपने इसी पैदा होने वाले लड़के के लिए बुधईया लगाता है।बाद में जब बुधईया का घर हक़-ए-दुख़्तरी में मियाँ मुस्लिम के इलाके में चला जाता है तो मियाँ मुस्लिम बुधईया से कहते हैं कि जहाँ-जहाँ तक नीम के पेड़ का साया जाए वो ज़मीन तेरी हुई।तू तो ज़मींदार हो गया बे बुधईया।ख़ुश हो बुधईया लोगों से कहता फिरता है कि हम्मैं बुधईया चमार का मियाँ मुस्लिम जमींदार बनाए दिहेन,भले पेड़ के साया के बराबर जमीन होए मुदा बुधई चमार भी अब जमींदार हो गए।बहुत शानदार धारावाहिक था नीम का पेड़।

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नब्बे के दशक की शुरूआत में दूरदर्शन पर आता था।हमारे पास वीडियो कैसेट में रिकार्ड था जो बाद में हमने ध्यान से देखा।धारावाहिक डा. राही मासूम रज़ा की कृति नीम का पेड़ पर आधारित था।राही ने धारावाहिक में मुसलमान ज़मींदारों और तत्कालीन समाज के हालात का पूरा ख़ाका खींचकर रख दिया था।क्योंकि राही ख़ुद मुसलमान ज़मींदार थे इसलिए बहुत डीपली हालात और कल्चर से वाकिफ़ थे।

एक सीन में सरकारी अफ़सर तिवारी जी तीन बार ज़मींदार मो.ज़ामिन ख़ान को ख़ान साहब कहकर संबोधित करते हैं।ज़ामिन मियाँ को अपनी इंसल्ट लगती है,कई बार टोकते हैं और कहते हैं कि हम मियाँ कहे जात हैं।तिवारी जी चौथी बार जैसे ही ख़ान साहब कहते हैं तो ज़ामिन मियाँ कहते है कि बुधईया चमार तनी तिवारी को चाय बनाके पिला तो।ये सुनते ही तिवारी जी फ़ौरन मियाँ कहने लगते हैं।दरअसल मियाँ का मतलब होता है मालिक।किसी मुसलमान ज़मींदार को मियाँ कहने का रिवाज था।प्रजा हमेशा मुसलमान ज़मींदार को मियाँ कहती थी।

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इस धारावाहिक में बुधईया चमार का रोल किया है पंकज कपूर ने और ज़ामिन मियाँ बने हैं अरूण बाली।दोनों ने किरदार में जान डाल दी।जबकि दोनों पंजाबी थे और यूपी के पूरब की रवायतों से वाकिफ़ नहीं थे।ये राही साहब की कलम का कमाल था कि किरदार बोल उठे।राही का कहना था अयोध्या में विवादित स्थल पर राम-बाबरी पार्क बना दिया जाए।महाभारत की पटकथा भी राही ने लिखी।पिताश्री-मामाश्री समेत कई मज़ेदार शब्द राही के ही गढ़े हुए हैं जो महाभारत में इस्तेमाल हुए।राही एएमयू से नौकरी से निकाले गए और एक दिन उसी एएमयू में बतौर चीफ़ गेस्ट बुलाए गए।

राही आजीवन सांप्रदायिकता के विरूद्ध रहे।हैरत ये आज सांप्रदायिक लोग भी राही को उतना ही याद करते हैं जितना गंगा-जमुनी तहज़ीब के पैरोकार याद करते हैं।कम्युनल बेवकूफ़ों को लगता है कि राही हमारा आदमी है,मुसलमानों के चौखट के भीतर की बात को चौराहे पर ला रहा है।इस तरह से राही हर घान पढ़ा गए।ये राही का कमाल था।

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राही ने एक नज़्म लिखा है कि ‘मेरा नाम मुसलमानों जैसा है,मेरा क़त्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो,लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है,मेरे लहू से चुल्लू भर महादेव के मुँह पर फेंको,और उस योगी से कह दो,महादेव इस गंगा को वापस ले लो,ये ज़लील तुर्कों के बदन में गाढ़ा गरम ख़ून बनकर दौड़ रही है’।राही ने ये भी कहा था कि हिंदू मुझे अपना नहीं मानते,मुसलमान भी नहीं मानते,अगर मैं हिंदू-मुस्लिम दंगों में फँस जाऊँ तो दोनों तरफ़ से मारा जाऊँ।

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