(यशवंत सिंह)
: सवाल उठाने वालों को ‘आप’ से बर्खास्त कर केजरीवाल ने अपनी सच्ची शकल दिखा ही दी : अरविंद केजरीवाल की सच्ची शकल सामने आने से कम से कम मुझे बड़ा फायदा हुआ. अच्छी राजनीति को लेकर मन में जो थोड़े बहुत पाजिटिव विचार आए थे, वो खत्म हो गए. राजनीति में डेमोक्रेटिक नहीं हुआ जा सकता, ये समझ में आ गया. भारत जैसे देश में कहने को भले ही शासन की प्रणाली डेमोक्रेसी हो लेकिन यहां डेमोक्रेटिक व्यक्ति नहीं हुआ जा सकता और डेमोक्रेटिक व्यक्ति हुए बिना अच्छी सच्ची राजनीति हो ही नहीं सकती. केजरीवाल डेमोक्रेटिक था ही नहीं, यह साबित हो गया. इसलिए इससे अब किसी अच्छी सच्ची राजनीति की अपेक्षा नहीं की जा सकती.
केजरीवाल भी मोदी की तरह लफ्फाज नेता साबित होगा. और, हो भी रहा है. मोदी कारपोरेट परस्त होकर सरकार चला रहा है तो केजरीवाल नौकरशाह परस्त होकर दिल्ली सरकार हांक रहा है. दोनों ने गिनाने को ढेर सारे काम कर दिए हैं लेकिन इन दोनों ने जो काम किए हैं, वो ऐसे काम कतई नहीं हैं जिससे आम आदमी उत्पीड़क यह सिस्टम सही पटरी पर आ जाए. सिस्टम वही का वही है, नीतियां वही की वही हैं, अफसर वही के वही हैं. बस केवल राज करने वाले बदल गए हैं. जैसे गोरे अंग्रेज गए तो काले अंग्रेज शासन करने लगे. उसी तरह केंद्र में कांग्रेस गई तो भाजपा शासन करने लगी और दिल्ली राज्य में कांग्रेस गई तो ‘आप’ शासन करने लगी. गिनाने को तो इस देश में कांग्रेस ने भी बहुत अच्छे काम किए हैं. पर इससे कांग्रेस के पाप माफ नहीं किए जा सकते. इसी तरह बिजली के बिल कम कर देने और अन्य कुछ काम कर देने से केजरीवाल के पाप कम नहीं हो जाते. केजरीवाल असल में अच्छी सच्ची राजनीति की उम्मीद दिखाकर सामने आया था. उसने सत्ता पाते ही जिस तेजी से पाला बदला और तेवर दिखाए, वह दंग करने वाला था.
भारतीय परंपरा में कहा गया है कि जब वृक्ष फलदार हो जाता है तो झुक जाता है. यहां तो केजरीवाल पूर्ण बहुमत में क्या आया कि पागल हो गया. उसने भ्रष्टाचार के खिलाफ लंबी चौड़ी बातें करके सरकार बना तो ली लेकिन अरविंद केजरीवाल ने अब तक कितने भ्रष्टाचारियों को जेल भेजा, यह कोई ‘आपी’ नहीं बता रहा. केजरीवाल का पूरा जोर अपनी पार्टी से सेकेंड थॉट को नेस्तनाबूत कर देने में लगा, न कि सत्ता-शासन के चोरों को पकड़ने और जेल भेजने में. यही कारण है कि दिल्ली के सारे के सारे भ्रष्टाचारी अफसर व्यापारी नेता चुप्पी साधे कंबल ओढे़ घी पी रहे हैं और जनता परेशान है.
केजरीवाल अगर बड़प्पन दिखाता तो ज्यादा बड़ा आदमी माना जाता. हम लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरता. योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, आनंद कुमार, अजित झा ने लाख गलत किया हो, अगर चुनाव जीतने से पहले तक साथ रखा तो चुनाव जीतने के बाद भी साथ रखते. कोई भी गलती इतनी बड़ी नहीं होती जिसे माफ नहीं किया जा सकता. चोरी छिपे साजिश करने वालों की आंख में आंख डालकर बात कर लेने से बड़े से बड़े साजिशकर्ता अपनी हरकतों पर शर्मिंदा हो जाते हैं. इसके लिए आत्मबल चाहिए. पर चोर किस्म का केजरीवाल लगातार आंखें बचाता रहा, चुप्पी साधे रहा, इधर-उधर टहलता बचता रहा, अपने चेलों से सारा आपरेशन कराता रहा. तमाचा खाकर यह शख्स तमाचा मारने वाले को तो माफ कर सकता है लेकिन पार्टी के भीतर सेकेंड ओपनियन रखने वालों को माफ नहीं कर सकता. क्या हिप्पोक्रेशी है भाई.
हिप्पोक्रेट केजरीवाल की असलियत बहुत जल्दी सामने आ गई. उसने पार्टी के भीतर लगातार सवाल उठाने वालों और पार्टी को असली एजेंडे पर कायम रखने की कोशिश करने वालों को लात मार कर पहले किनारे किया फिर निकाल बाहर किया. अरविंद केजरीवाल की गाली गलौज सबने सुनी थी. इस भाषा से उसके अंदर के कुंठित और घटिया इंसान के बारे में अंदाजा लगाया जा सकता है. यह आदमी चुनाव जीतने से पहले तक खुद को रणनीतिक तौर पर आम आदमी का प्रतिरूप बनाकर पेश करता रहा और लोग इसके झांसे में आते गए. दिल्ली का सीएम दुबारा बनते ही यह अपना असली रूप लेकर सामने आ गया. चेले-चापड़ों को प्रमोशन और सवाल उठाने वालों को निष्कासन. यह इसकी नीति है. आम आदमी पार्टी अब अरविंद केजरीवाल की वनमैन पार्टी होकर रह गई है. बाकी बच गए हैं चेले-चापड़ और यस मैन. अब ये वैचारिक रूप से लूले-लंगड़ों की पार्टी बनकर रह गई है. किसी आंतरिक बहस की गुंजाइश खत्म हो चुकी है. यह कांग्रेस भाजपा टाइप पार्टी बन गई है.
भारी बहुमत से दिल्ली चुनाव जीतने के बाद केजरीवाल का एलीट रूप सामने आया. उसने सवाल करने वालों का मुंह सदा के लिए बंद कर देने की पालिसी अपना ली. इसी के तहत उसने ‘आप’ के भीतर के दूसरे धड़े को सदा के लिए मौन कर दिया, पार्टी से बाहर निकाल कर. केजरीवाल ने अपनी इस हरकत से हम जैसे समर्थकों का दिल सदा के लिए तोड़ दिया है. कांग्रेस भाजपा तो खुले चोर थे. लेकिन केजरी तो शातिर चोर निकला. सच कहते थे कुछ लोग. एनजीओ वाले ज्यादातर शातिर चोर ही होते हैं जो लंबी लंबी वैचारिक सैद्धांतिक सरोकारी बातें हांककर अपना निजी स्वार्थ सिद्ध करते हैं, अपना निजी एजेंडा चलाते हैं. अब तो जोर से कहना पड़ेगा, केजरी बहुत बड़ा झुट्ठा है, केजरिया बहुत बड़ा मक्कार है, केजरिया बहुत बड़ा हिप्पोक्रेट है.
देश की राजनीति में सकारात्मक बदलाव की उम्मीद लेकर कुछ वर्षों पहले मैंने अपने गृह जनपद गाजीपुर में आम आदमी पार्टी की सदस्यता ली थी. आज मैं इस पार्टी से इस्तीफा देता हूं. साथ ही अरविंद केजरीवाल की हरकतों को निंदा करता हूं जिसके कारण आम आदमी पार्टी अब बेहद बेजान और सरकारी पार्टी बनकर रह गई है. यह रीयल सेकेंड थॉट, असली सेकेंड ओपीनियन की बलि दी जा चुकी है. ऐसी बेजान पार्टी में रहने से अच्छा है आजाद पत्रकार बने रहना ताकि गलत सही पर गरियाने सराहने का हक कायम रहे.
योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, आनंद कुमार, अजित झा… समेत कइयों ने गलत काम किया होगा. इनकी हरकतों के बारे में एक अलग से लेख मैं लिख भी चुका हूं. लेकिन इस सबके बावजूद हम सभी लोग अरविंद केजरीवाल से उम्मीद कर रहे थे कि वह बड़प्पन दिखाएंगे, गल्ती करने वालों को आइना दिखाने के बाद उन्हें समुचित सम्मान देकर साथ लेकर चलेंगे, पार्टी में एका बनाने जैसा महान कार्य करेंगे. पर केजरीवाल ने वही किया जो कोई नीच नेता करता है. खुद को सुरक्षित रखो और चुनौती देने वालों को सदा के लिए बाहर कर दो.
ऐसी नीच हरकतों से अरविंद केजरीवाल बेहद चालू और शातिर किस्म के शख्स के रूप में सामने आया है. ऐसे शख्स से बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती. हां, ड्रामा झूठ नौटंकी नीचता शातिरपना के जरिए सत्ता में जरूर आया जा सकता है. लेकिन हम जैसे लोग सत्ता के पूजक नहीं रहे हैं. संघर्ष करने वालों को सपोर्ट करते हैं. आज जब अरविंद केजरीवाल सत्ता पर सवार होकर ओछी हरकतें कर रहे हैं तो उन्हें हम जैसों लोगों द्वारा भी लात मारकर जवाब देना जरूरी है ताकि उन्हें पता चले कि अगते सूरज को सलाम करने वाले बहुत हो सकते हैं लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो हमेशा सहजता, सरलता, सच्चाई, डेमोक्रेटिक वैल्यूज, संघर्ष को तवज्जो देते हैं. इसलिए भी मेरा आम आदमी पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा देना जरूरी है. सो, मेरी इस पोस्ट को मेरा इस्तीफा समझा जाए.
लेखक यशवंत सिंह भड़ास के संस्थापक और संपादक हैं. उनसे संपर्क yashwant@bhadas4media.com के जरिए किया जा सकता है.
मूल खबर…
‘आप’ से बाहर किए गए योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, आनंद कुमार और अजित झा
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Comments on “भड़ास के एडिटर यशवंत ने ‘आप’ से दिया इस्तीफा… केजरी को हिप्पोक्रेट, कुंठित और सामंती मानसिकता वाला शातिर शख्स करार दिया”
to kya ye bhi sach hai ki satta ke lobh me kejriwal annaa ke jaan lena chata tha anshan ka din ur badha ker jab anna ki tabiyat ur kharab ho gai thi…ur sahanubhooti ki janta samrthan le lena chahte the kejriwal?
इतनी जल्दी जल्दी राय कायम करना ठीक नहीं , कौन क्या क्यों कैसे कर रहा है। इस सब का फैसला करना इतना अासान भी नहीं । बाकी अगर आपकी बात, आपका नज़रिया सही भी हो तब भी, मैदान तो आपने भी त्याग ही दिया इस्तिफा देकर, यूं लिख लिख कर खिलाफत करना कोई बड़ी बात नहीं, आप अपनी पत्रकारिता के बहतरीन अनुभव को इस्तमाल कर वहाँ रहते, कुछ ऐसा करते कि पूरी जनता देख समझ पाती।
Yashwantji. aap ne theek likha hai ki kejariwal ne prashn uthane wale sathiyon ko party se nikalkar apni shakl dikha dee hai.arvind ka rukh adhinayakwadi jaisa hi hai yehi sabit hota hai ab tak ke ghatanakram se.
यशवंत जी , निर्भय होकर बहुत आक्रामक और तीखा लिखने के लिए आप प्रसिद्ध है लेकिन किसी भी विषय पर मंथन करके लिखना और बात है. किसी भी पार्टी में जब सत्ता का नशा चढ़ता है तो ये सब घटनाये आम होती हैं. हर नेता को यह लगता है की उसी की वजह से पार्टी सत्ता में आई है और वो एवार्ड के रूप में पार्टी पर खुद को थोपना चाहता है . वो चाहता है कि पार्टी उसके कहे अनुसार ही चले. बस यही से अहम् की लड़ाई शुरू होती है. भाजपा में मोदी हों या कोंग्रेस में सोनिया, सपा में मुलायम हों या राजद में लालू , डीएमके में करूणानिधि हों या तृणमूल में ममता , सभी का अपनी पार्टी पर वर्चस्व है और उनकी बात ही सर्वोपरि होती है , तभी पार्टी चल पाती है . केजरीवाल यदि किसी नीति या योजना को लागू करना चाहता है तो उसका विरोध शुरू हो जाता है और उसे तानाशाह करार दे दिया जाता है. ये न्यायसंगत नहीं है .
aap bhi bahu jaldi mein dikh rahe hain sir-chaahe kejriwal ke baare me ho ya Modi-Bhajpa ke baare mein. 5 saal ke liye chuna hai aapne-BJP ho Ya AAP.. ko. 5 saal karne dijiye. AAP ke Andar kya ho raha hai publick ka usase jyadamatlab oh Public kr servic kitni kar rahe hain Usase hai, Rahi BJP ya Modi Sarkar ki.. Baat yahan bhi yahi hai ki Oh Public ko kyaa de rahe hain. Government koi Motercycle nahi hai ki Ek Utara to doosra baithte Daudne laga. Result Aane mein saamne lagega.
यशवंत जी गुस्सा जायज है. लेकिन लेखन शैली तीखे शब्द लिखना उचित नहीं. मन की गति एक समान नहीं रहती. माना तल आप cm aur pm और के पछ में लिखना या publish करना चाहे तो कलम खुद पूछती है कि कल तो आप बड़े गुस्से में थे.
चलिये देर से ही सही आपकी समझ में आया तो ।
इतना कडुवा, सच और सटीक लिखने के लिये साधुवाद।
पुराने वाले खालिस यशवंत की वापसी हुयी है और राजनैतिक, चाटुकार टाइप यशवंत का अन्त।
जय हो
Good piece of writing. Do keep it up.
यशवन्त जी,
‘खरी-खरी कहना’ आपके मिज़ाज़ और ख़ून दोनों में है। लेकिन केजरी को लेकर आपकी धारणा बनने से लेकर टूटने तक का सफ़र एक बहुत बड़ी नसीहत देता है कि किसी पर यक़ीन करने से पहले उसे ठीक से परख कर देखो! इसमें भारी चूक हुई! Your short lived marriage is really very regrettable! लेकिन भाई, रिश्ता बनाने से पहले घर-परिवार, कुटुम्ब-समाज को जाँचने की सदियों पुरानी भारतीय परम्परा को Social Media की आँधी के मौज़ूदा दौर में आपने कैसे नज़रअंदाज़ कर दिया! आप अपनी मिट्टी और जड़ से कैसे विलग गो गये? बड़ा सवाल इन बातों में छिपा है! ज़रा उन्हें टटोलते हुए भी मनोभावों को उकेरिए!
साँप की प्रकृति है डँसना! वो वही करेगा! जैसा केजरिया का व्यक्तित्व है। क़सूर तो आपका था कि उसके बायोडाटा को परखे बग़ैर आपके जैसे लोगों ने उसे मसीहा मान लिया! वो खाल ओढ़े, मुख़ौटा लगाये एक बहेलिया था! उसे परख नहीं पाना एक पाप साबित हुआ है जिसका प्रायश्चित ही समाधान है। ये अपराध, दण्डातीत है। आप जैसे Public Opinion बनाने वालों से देश और ख़ासकर दिल्ली के जनमानस के साथ नाइन्साफ़ी की है! काल इसका भी प्रतिफल सुनिश्चित करेगा!
सब चोर हैं! ये जाँचा-परखा सत्य है। लेकिन नया वाला चोर-डकैत नहीं है, इसे परखे बग़ैर सर्टिफ़िकेट दे देना बचकानी हरक़त है। इसके लिए हम गुनाहगार हैं। अब पाँच साल दिल्ली को कम से कम शर्मिन्दी की सज़ा तो झेलनी ही होगी!
ठीक ही कहा है कि ‘लम्हों ने ख़ता की, सदियों ने सज़ा पायी’ और ‘इब्दता-ए-इश्क़ है, आगे-आगे देखिए होता है क्या’, ये केजरिया 5 साल तक दिल्ली की जनता को अफ़ीम चटाता रहेगा और आप हस्तिनापुर के दरबार में भीष्म की तरह दिल्लीवासियों का चीरहरण होते हुए देखते रहने के लिए अभिशप्त बने रहेंगे! ये पाँच साल जनता को युग से भी लम्बे महसूस होंगे! उस मदारी ने ज़ंजीरों के रूप में ढकिया भर के पत्रकारों को ही क्यों चुना, कभी इसकी भी मीमांसा कीजिएगा!