राजीव ध्यानी-
सोशल मीडिया की पोस्ट को बहाना बनाकर गुजरात पुलिस ने जाने-माने फिल्म निर्देशक अविनाश दास पर मुकदमा दायर कर दिया है और उनकी तलाश कर रही है। हम सभी को अविनाश भाई के साथ आना चाहिए। Firoj Khan भाई की ओर से जारी इस अपील को हमारी भी अपील समझा जाए.
अविनाश दास की लड़ाई आपकी लड़ाई है, आगे आइये
जब हिटलर की हुकूमत थी, नाज़ी सेना यहूदी प्रफेसरों, फिल्मकारों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों की हत्या कर रही थी। हिंदुस्तान में भी इन दिनों मौजूदा हुकूमत के खिलाफ बोलने वाले प्रफेसरों, फिल्मकारों के खिलाफ मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं। हुकूमत सोचती है कि लोग डर रहे हैं। वह डरा रही है। लेकिन बीती रात प्रफेसर रतनलाल की गिरफ्तारी के बाद अगले रोज जिस तरह वकीलों की फौज ने हुकूमत की आंख से सुरमा चुरा लिया है। कम से कम अब तक तो भारत के संविधान की यह ताकत है कि जुल्म से लड़ा जा सकता है और जीता जा सकता है।
लेकिन यह लड़ाई तभी मजबूती से लड़ी जा सकती है, जब न्याय दिलाने के लिए एक लीगल टीम हो। ऐसे वकील हों, जो इस लड़ाई को अपनी लड़ाई की तरह लड़ें। जो आदमी एक बेहतर समाज के लिए लड़ रहा हो। नफरत के खिलाफ लिख-बोल रहा हो। उस पर केस दर्ज किया जाए और उसको न्याय की लड़ाई लड़ने के लिए एक लाख, दो लाख या तीन लाख रुपये का वकील करना पड़े तो यह उस हुकूमत की जीत है, जो यही चाहती है।
फिल्मकार अविनाश दास की लड़ाई भी आप सबकी लड़ाई है। जिस वक्त में तमाम लोगों ने चुप्पी साध ली है, अविनाश लगातार बोलते रहे हैं। उनके खिलाफ गुजरात पुलिस ने एफआईआर दर्ज की है। उनके साथ आइये, उनके लिए लड़िये। यह हम सब की लड़ाई है। आपकी चुप्पी हुकूमत की ताकत बढ़ाएगी, आपकी तनी मुट्ठी हुकूमत की दीवार हिलायेगी।
धीरेश सैनी-
लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रफेसर रविकांत चंदन पर हमले की वारदातों के बाद उन पर ही केस करा देना और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रफेसर रतनलाल को रात में गिरफ़्तार कर लिया जाना भयानक होने के बावजूद हैरानी पैदा करने वाली घटनाएं नहीं हैं। संवैधानिक संस्थाओं को ही संवैधानिक अधिकारों के विरुद्ध इस्तेमाल करने का सिलसिला सड़कों पर लिंचिंग जैसी कार्रवाइयों के साथ जारी है।
फ़िल्मकार अविनाश दास पर भी मुकदमे दर्ज किए गए हैं। जिन जगहों पर असहमति, विरोध, बौद्धिक हस्तक्षेप सामान्य बात हुआ करती थी, उन जगहों पर भी नापसंद आवाज़ों को चुप कराने के प्रबंध किए जा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय ख्याति वाले बहुत से बुद्धिजीवी तक जेलों में पड़े हुए हैं। सुदूर इलाक़ों और साधारण प्रोफाइल वाले मुखर नागरिकों के दमन का तो जिक्र तक नहीं आ पाता।
बहुसंख्यकवाद का नशा शायद यही होता है कि तरह-तरह से लुट-पिट रहा नागरिक अपने ही प्रवक्ताओं को शत्रु समझकर उनके दमन को ज़रूरी मानता है या उदासीन रहता है।
इस समय की विडंबना इससे बढ़कर इस तरह है कि बौद्धिक कहलाने वाले और जनवादी-प्रगतिशील-सामाजिक न्याय-वादी तबकों के बीच प्रतिष्ठित शख़्स भी दमनकारी ताक़तों के मनोनुकूल भाषा बोलने लगते हैं।
विश्व दीपक-
भारतीय पुलिस का सत्ताधारी दलों की प्राइवेट मिलिशिया में बदल जाना और हमारी आपराधिक खामोशियां.
पिछले दिनों अविनाश के खिलाफ़ अहमदाबाद क्राइम ब्रांच ने राष्ट्रध्वज का अपमान करने का मामला दर्ज़ किया. राष्ट्रीय ध्वज का अपमान हुआ है इसका फैसला गुजरात पुलिस ने खुद ही कर लिया. कथित अपमान करने वाली पोस्ट की गई थी 17 मार्च को लेकिन गुजरात पुलिस को अपमान का पता लगाने में तकरीबन दो महीने लगे.
गुजरात पुलिस को तिरंगे के अपमान का अहसास भी नहीं होता अगर अविनाश ने अमित शाह और आईएएस अधिकारी सिंघला की फोटो नहीं ट्विटर पर पोस्ट नहीं की होती. सिंघला को हाल फिलहाल बड़ी घूसघोरी के मामले में गिरफ्तार किया गया है.
इसी बीच महाराष्ट्र में एक मराठी अभिनेत्री को गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि उसने शरद पवार को लेकर अमानवीय बातें कहीं. वह अभिनेत्री आरएसएस की विचारधारा फॉलो करती है. अमानवीयता का फैसला महाराष्ट्र पुलिस ने तुरंत कर दिया. किसी न्यायालय ने नहीं. पुलिस के इस अहसास को मराठी नेताओं ने भी साझा किया. है न चमत्कार की बात कि महाराष्ट्र की नेता और पुलिस दोनों के अनुभव एकदम समान हैं.
इन दो घटनाओं का जिक्र इसलिए कर रहा हूं ताकि :
1.आप जान सकें कि भारत में कैसे पुलिस को सत्ताधारी दल प्राइवेड मिलिशिया के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं. यह failed state की बड़ी निशानी है. ऐसा नहीं कि पहले पुलिस बहुत स्वतंत्र तरीके के काम कर रही थी लेकिन एक संस्था के रूप ऐसा पतन नहीं हुआ था जैसे पिछले कुछ सालों में हुआ है.
खासतौर से तब से जबसे श्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी ने भारतीय गणराज्य की सत्ता संभाली है. सीबीआई जैसी जांच एजेंसियों को पहले तोता कहा जाता था लेकिन ये सब एजेंसियां अब बाज, गिद्ध की तरह काम करने लगी हैं.
2.आप यह मान सकें कि मोटे तौर पर दुनिया में सिर्फ दो ही तरह के लोग होते हैं. एक वो जो पुलिस, मिलिट्री की मदद से डंडा भांजते हुए सत्ता चलाते हैं. दूसरे वो जिन पर सत्ता चलाई जाती है. जिनके पीठ पर डंडे बरसाए जाते हैं. पैसा, पहुंच, जाति, धर्म आदि के आधार पर थोड़ा फर्क हो सकता है लेकिन मूल फर्क यही है.
अब आते हैं इन की घटनाओं के लेकर एक समाज के रूप में हमारी प्रतिक्रिया पर.
बीजेपी, मोदी विरोधी वो तमाम बड़े चेहरे जिन्हें आप सोशल मीडिया, यू ट्यूब, टीवी पर मानवाधिकार, सेक्युलरिज्म, फासीवाद का विरोध देखते हैं उन सबने खमोशी की चादर ओढ़ रखी है. कोई लीगल एक्सपर्ट बन गया तो कोई कहीं व्यस्त रह गया. किसी ने कहा कि वह सृजन में डूबा हुआ है लिहाजा उसे पता ही नहीं चला जबकि सब एक दूसरे को, इस बीच फोन कर जानकारियां ले रहे हैं. गॉसिप कर रहे हैं. यह failed society की बड़ी निशानी है.
आपकी पसंद, नापसंद, विचारधारा, रिश्तों का इतिहास बहुत कुछ तय करता है लेकिन मुद्दा यहां निजी संबंध नहीं बल्कि सामाजिक है. एक नागरिक के तौर पर हमारी प्रतिक्रिया का है.
मेरा वश चले तो आरएसएस (विचारधारा, संस्था) को पांच सौ फुट गड्ढा खोदकर दफन करवा दूं लेकिन किसी को सिर्फ इस कारण जेल भेज दिया जाए कि वह मेरे लुक, अपियरेंस पर भद्दी टिप्पणी करता है – कभी मंज़ूर नहीं कर सकता.
याद रखिए जब शरीर का एक हिस्सा मरता है तो दूसरा मरने में ज्यादा वक्त नहीं लेता.