फेसबुक पर ‘कलमवाला कबीर’ नाम से एक एकाउंट है जहां पर आजकल टीवी मीडिया के भीतर की कहानियां को इशारों-इशारों में लिखा जा रहा है. पेश हैं कुछ कड़ियां-
पार्ट एक-
एडिटर : अरे तुम एंकरिंग क्यों नहीं करती ?
ट्रेनी : सर! मुझे लिखना पसंद है.
एडिटर : गुड! और क्या-क्या पसंद हैं तुम्हें?
ट्रेनी : सर! ट्रैवलिंग, सिंगिंग, थियेटर
एडिटर : थियेटर ? अरे फिर तुम एंकरिंग क्यों नहीं करती?
ट्रेनी : सर! मैंने सोचा पहले लिखना सीख लूं.
एडिटर : अरे वाह! सही सोचती हो तुम ?
ट्रेनी : एंड सर आई जस्ट लव शॉपिंग.
एडिटर : शॉपिंग तो मुझे भी करनी है, चलो साथ चलेंगे.
ट्रेनी : अभी मेरी सैलरी कम है न, ज्यादा शॉपिंग कर नहीं पाती.
एडिटर : फिर तुम एंकरिंग क्यों नहीं करती ?
पार्ट दो-
न्यूज़ रूम में खबरों की उड़ती आंधी से अलग एक जोड़ा गुटर गू में तल्लीन था.
कुछ देर तक कनखियों से उन्हें निहारने के बाद न्यूज़ एडिटर सामने प्रकट हुए.
“तुम दोनों की इंटर्नशिप तो पूरी हो गई है न? हम्म्म…मोहित कल से आने की जरूरत नहीं. एंड देविका यू कम इन टू माई केबिन इन फाइव मिनट.”
पार्ट तीन-
पहला प्रयोगवादी…दूसरी यथार्थवादी, ये साम्यवादी…वो राष्ट्रवादी, लड़का डिजिटलवाला…लड़की टीवीवाली.
विपरीत ध्रुवों में आकर्षण के नियमानुसार दोनों प्रेम में पड़े.
नवंबर की एक शाम को गुप्ता चौक के ठीहे पर ऑमलेट का एक टुकड़ा अपनी परेशान प्रेमिका को खिलाते हुए प्रेमी ने समझाया था – “टीवी में एंकर वही बनता है, जो एडिटर को खुश करता है. तुम ऐसी नहीं हो. डिजिटल जर्नलिज्म में बहुत स्कोप है. तुम कहो तो अपने एडिटर से बात करूं.”
दिसंबर में प्रेमिका का “बुलडोजर वाली एंकर” का प्रोमो लॉन्च हुआ, प्रेमी ने इस्तीफा देकर यू-ट्यूब चैनल खोल लिया.
पार्ट चार-
नेशनल का प्रोड्यूसर, रिजनल की एंकर. दोनों एक ही दफ्तर के अलग- अलग चैनल में काम करते और देर रात की वाली शिफ्ट से अक्सर एक ही कैब से घर लौटते.
प्रोड्यूसर पूरे रास्ते लड़की के स्टाइल सेंस, कैम लुक और खूबसूरती की तारीफ करते हुए उसे नेशनल चैनल लायक ‘आइटम’ बताता और आउटपुट हेड से उसकी पैरवी करने की बातें करता. जवाब में वो एंकर धीरे से मुस्कुरा देती.
“हंसी तो समझो फंसी” वाली पीढ़ी के उस प्रोड्यूसर ने उसे मौन सहमति माना.
अब वो बात-बात में उस एंकर को इधर-उधर छूने भी लगा. जवाब में वो अब भी उसकी तरफ देखकर हंस देती.
प्रोड्यूसर की हिम्मत तब तक छलांगा मार रही थी.
एक दिन असीमित साहस से लबालब भरे प्रोड्यूसर ने बगल वाली सीट पर बैठी उस एंकर का हाथ अधिकार भाव से पकड़ ही लिया.
एंकर एक पल के लिए असहज हुई और फिर प्रोड्यूसर की तरफ देखकर अपनी उसी पुरानी मुस्कुराहट के साथ कहा:
“जानते हैं आप. आपके आउटपुट हेड भी बिना पूछे मेरा हाथ नहीं पकड़ते.”
अचानक प्रोड्यूसर को याद आया कि उसे तो आज बहुत जरूरी काम से बीच रास्ते ही उतरना है.
पार्ट पांच-
टीवी के डेस्क वाले पत्रकार बनने के करीब तीन साल बाद जाकर मिश्राजी असिस्टेंट प्रोड्यूसर हुए, तब तक उनके साथ करने वाली उनकी दोस्त…एसोसिएट प्रोड्यूसर बन चुकी थी. अगले पांच साल तक वो असिस्टेंट प्रोड्यूसर ही रहे और मैडम के प्रोड्यूसर वाले डेजिगनेशन के आगे सीनियर लग गया…जब वो सीनियर एसोसिएट हुए तब तक साथ वाली मैम आउटपुट हेड हो गईं.
पद के साथ रुतबा बदला, रूतबे के साथ रिश्ते बदले और रिश्ते के साथ व्यवहार भी बदल गया.
मिश्राजी हर दो घंटे बाद बुलेट न्यूज़ बनाते और मैडम उनके हर बुलेटिन में कोई न कोई गलती ढूंढकर उन्हें जलील कर डालती.
मैडम भले दोस्ती भूल चुकी थी, मगर मजाल है मिश्राजी ने कभी पलटकर उन्हें जवाब दिया हो.
बांध कितना भी मजबूत हो मगर टूटता जरुर है. सो एक दिन मिश्राजी के सब्र का बांध भी टूट गया.
“आप कभी नहीं सुधर सकते. दस सालों से आपको बर्दाश्त कर रही हूं. अभी तक आपको बुलेटिन बनाना नहीं आया. अब क्या मैं बैठकर आपका बुलेटिन बनाऊं” मैडम ने न्यूज़ रूम में लगभग चीखते हुए कहा.
मिश्राजी कुछ देर खामोश रहे फिर बचे हुए रजनीगंधा को जबरदस्ती निगलकर कहा: –
“बुलेटिन बनाने वाले बुलेटिन प्रोड्यूसर ही रह गए मैडम, जिन्होंने कुछ और बनाया वो आजकल आउटपुट हेड हुए पड़े हैं. आप वही बनाइए.”
पार्ट छह-
न्यूज़ चैनल के प्रोड्यूसर मुख्य तौर पर दो तरह के होते हैं:-
पहले, जो पूरी तिकड़म के बाद भी एंकर/रिपोर्टर नहीं बन पाते और,
दूसरे, जिनका यूपीएससी का मेन्स सिर्फ ‘चार नंबर’ से रह जाता है.
पाठकजी दूसरे वाले हैं.
वैसे तो उस बात को कई साल गुजर चुके, मगर आज भी जब तक दिन भर में वो पांच लोगों को पांच अलग-अलग तरीकों से वो किस्सा सुना ना लें, उनकी शिफ्ट पूरी नहीं होती. दुनिया की हर बात को अपने साथ हुए यूपीएससी के उस “चार नंबरी” हादसे की तरफ मोड़ने में उन्हें गजब की महारत हासिल थी.
आज कैंटीन में चाय की पहली घूंट निगलने से पहले पाठकजी ने कहा: –
“भाई बुरा मत मानना, लेकिन तुम्हारी चाय देखकर ही मूड खराब हो जाता है. अरे चाय क्या है…दूध, पानी, चायपत्ती का समानुपाती मिश्रण. इनमें से किसी का भी अनुपात थोड़ा कम ज्यादा हुआ तो समझो हुआ स्वाद का स्वाहा. और, स्वाद क्या है छोटे? 40 फीसदी गणित और 60 फीसदी मनोविज्ञान. यूपीएससी में मैथ्स और साइकोलॉजी काम्बिनेशन था मेरा. अगर उस बार साइकोलॉजी के एक चार नंबर का सवाल हम अटेम्ट कर लिए होते ना तो गृह मंत्रालय…नहीं तो कम से कम जहाजरानी मंत्रालय की कैंटीन की चाय तो पी ही रहे होते आज. जानते हो कि नहीं पूरा किस्सा? अच्छा सुनो…”
“हां सर, पिछले हफ्ते जब आलू-गोभी की सब्जी में जब मैंने गलती से गरम मसाला डाल दिया था तब पूरा सुना दिया था आपने.”
इतना कहकर कैंटीन वाला पहले से फटे हुए दूध के पैकेट को दोबारा फाड़ने लगा.
पार्ट सात-
रिपोर्टर और एंकर की तरह न्यूज़ चैनल के प्रोड्यूसर की अपनी कोई पहचान नहीं होती. वो पत्रकार नहीं बल्कि एक चलता-फिरता बुलेटिन है. एक कार्यक्रम में उनका परिचय कुछ इस तरह कराया गया :-
गुप्ता जी पांच बजे ‘ताल ठोक के’ करते हैं.
दूबे जी का साढ़े पांच ‘भौकाल टाइट हैं.
सात बजे देवगन जी का ‘आर-पार’ शर्मा जी ही करते हैं.
मैडम एक साल से ‘महाभारत’ कर रही हैं.
चुतर्वेदी जी के जिम्मे है साढ़े नौ बजे ‘घंटी बजाओ’
नागर साहब तो हफ्ते में पांच दिन ‘वारदात’ करते ही हैं.
Gunjan
January 12, 2021 at 9:19 pm
did you ask for the permission of the account holder before posting this? or bhadas is all about copy-paste?