Connect with us

Hi, what are you looking for?

सुख-दुख

पत्रकार वैभव पुरंदरे की नई किताब ‘सावरकर : दि ट्रू स्टोरी ऑफ दि फादर ऑफ दि हिंदुत्व’

धीरेंद्र के झा-

सावरकर को धोया पोंछा जा रहा है। संघी घराने की दिक्कत ये है कि उनका आजादी की लड़ाई के वक्त संदिग्ध इतिहास है, उनका अपना कोई नायक नहीं है , वे कांग्रेस के लौह पुरुष पटेल और हिंदू महासभा के सावरकर से अपनी रिश्तेदारी बताकर अपने योद्धाओं को दिमागी राशन देते रहते हैं।

सावरकर खुद नितांत संदिग्ध व्यक्तित्व के स्वामी रहे। महात्मा गांधी की हत्या के दोष में वे संदेह का भले ही लाभ पा गये पर निर्दोष साबित न हो पाए। अंग्रेजों से माफ़ी मांगने के उनके पत्र ऐतिहासिक दस्तावेज हैं, संघी बुद्धिविलास इसके बचाव में ज़माने से चकमक पत्थर रगड़ रहा है, ऐसी ही एक और कोशिश की समीक्षा करता कारवां का यह लेख …….

Advertisement. Scroll to continue reading.

क्या ब्राह्मणवादी संरचना के भीतर जाति का विनाश मुमकिन है? क्या यह मुमकिन है कि ब्राह्मणवाद भी बचा रहे और जाति न रहे? या ये दोनों इतने अंतरविरोधी हैं कि एक की उपस्थिति में दूसरे का अस्तित्व संभव ही नहीं है? ये ऐसे सवाल हैं जिन्हें हिंदुत्व के आईकॉन में समाज सुधार की गुंजाइश को तलाशने वाले शोधकर्ता हर बार नजरअंदाज करते हैं. हिंदुत्व, नस्लीय गौरव की राजनीति को ऊर्जा प्रदान करता है जो ब्राह्मणवादी वर्चस्व कायम रखना चाहती है. इस तरह की विद्वत्ता निराशाजनक होती है क्योंकि इन अध्ययनों में हिंदुत्ववादी वर्चस्व और जाति के विनाश के बीच के वास्तविक संबंध की पड़ताल नहीं की जाती बल्कि एक ऐसा गल्प रचा जाता है जो सच्चाई पर पर्दा डालने के काम आता है.

हाल में प्रकाशित पत्रकार वैभव पुरंदरे की किताब सावरकरः दि ट्रू स्टोरी ऑफ दि फादर ऑफ दि हिंदुत्व सावरकर के संबंध में एक अलग नजरिया पेश करने का दावा करती है. किताब के शीर्षक में “ट्रू स्टोरी” या सत्य कथा होने से यह भान होता है कि यह किताब सावरकर के मुरीदों द्वारा उसके इर्द-गिर्द रचे गए प्रभामंडल को भेद कर सावरकर के असली चरित्र को सामने लाएगी. लेकिन इस किताब के पहले कुछ पन्ने पढ़ते ही यह एहसास हो जाता है कि सावरकर के प्रति संवेदना रखने वाले उनके अन्य जीवनी लेखकों, जिसमें धनंजय कीर, चित्रा गुप्ता और डीएन गोखले शामिल हैं, की तरह ही पुरंदरे भी अपने विषय के प्रति श्रद्धाभाव रखते हैं और आधुनिक भारत के एक जटिल और विरोधाभासी व्यक्ति की जीवनी लिखने के लिए जिस तरह के ऐतिहासिक वस्तुवादी दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है उसका अभाव लेखक में है.

Advertisement. Scroll to continue reading.

किताब में सावरकर की क्षमा याचनाओं को उसकी रणनीति बताया गया है लेकिन इतिहास गवाह है कि जेल से बाहर आने के बाद सावरकर ब्रिटिश साम्राज्य को दिए अपने वचन पर कायम रहा.
मिसाल के तौर पर इस किताब का दसवां अध्याय सावरकर को एक समाज सुधारक की तरह बताता है जो जाति व्यवस्था को मिटा देने के पक्ष में था और जिसने हिंदू समाज में व्याप्त छुआछूत और अंधविश्वास को खत्म करने का बीड़ा उठाया था और जो इन कुप्रथाओं को समावेशी और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बदल देना चाहता था. लेखक बताते हैं, “1924 में रत्नागिरी में लोकप्रिय गणेश उत्सव में छुआछूत के संस्कार को तोड़कर उन्होंने इस कुप्रथा के खिलाफ पहला विद्रोह किया.” लेखक ने बताया है कि कैसे सावरकर ने अंतरजातीय भोज और दलितों के मंदिर में प्रवेश को अपने उपरोक्त उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए दोहरी रणनीति बनाई थी और कैसे 1931 में रत्नागिरी में निचली जातियों के लिए एक “पतित पावन” नाम का मंदिर बनाना कट्टरवादी हिंदुओं के खिलाफ उनके विद्रोह की चरम अभिव्यक्ति थी.

पुरंदरे इस बात की अनदेखी कर देते हैं कि सावरकर के सामाजिक सुधारों के प्रयत्न दोहरे मानदंडों पर खड़े थे क्योंकि उसके राजनीतिक दर्शन- हिंदुत्व- का लक्ष्य ब्राह्मणवादी वर्चस्व को मजबूत करना था. ब्राह्मणवादी प्रभुत्व का आधार सामाजिक वर्गीकरण है और ऐसा कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है जो यह बताता हो कि सावरकर ने प्रभुत्व के ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण को चुनौती देने का प्रयास किया हो.

Advertisement. Scroll to continue reading.

1948 में प्रकाशित किताब वर्ल्विन्ड प्रोपेगेंडा में सावरकर की डायरी एंट्री, भाषण, लेख और हिंदू महासभा के अध्यक्ष रहते हुए उनके 4 साल के नोट संकलित हैं. इन दस्तावेजों से पता चलता है कि हिंदू महासभा के अध्यक्ष के रूप में सावरकर ने अंतरजातीय भोज में भाग लेते हुए भी यह सुनिश्चित किया कि कट्टर सनातनियों की नाराजगी झेलनी न पड़े. सावरकर ने अपने संगठन को जो कट्टर महाराष्ट्रीयन ब्राह्मणों से भरा पड़ा था, कभी इस काम को आंदोलन में बदलने का आह्वान नहीं किया. इस किताब की प्रस्तावना में एएस भिंडे ने लिखा है, “हिंदू महासभा के संविधान में जिन सामाजिक और धार्मिक गतिविधियों का उल्लेख नहीं था, ऐसे कार्यक्रमों में वीर सावरकर जी अपनी निजी हैसियत से भाग लेते थे. उन्हें आयोजित करते थे और अपनी यात्राओं में आयोजित रात्रि भोजों में हजारो हिंदू जन- छूत और अछूत- जाति और संप्रदाय में भेद के बिना सामाजिक और धार्मिक बराबरी के सिद्धांतों पर जोर देते हुए शामिल होते थे.

सावरकर के नजदीकी सहायक भी रहे भिंडे ने आगे लिखा हैः

Advertisement. Scroll to continue reading.

यह याद रखा जाना चाहिए कि सामाजिक और धार्मिक सुधारक के रूप में भी उन्होंने कभी सनातनी सहधर्मावलंबियों से टकराव नहीं किया और उनका तथा उनकी मान्यताओं का हर संभव सम्मान किया. अपने सामाजिक और धार्मिक सुधारों के प्रयासों में उन्होंने हमेशा कानूनी बाध्यता के स्थान पर लोगों का विश्वास जीतने पर जोर दिया.

स्पष्ट है कि सावरकर के सामाजिक सुधारों की पहलकदमियों में दिखावा अधिक था. लेकिन पुरंदरे इन पहलकदमियों की जांच नहीं करते बल्कि उन्हें उसी रूप में स्वीकार कर लेते हैं. वह पाठकों को इन प्रयासों में समाहित ढकोसलों के बारे में कुछ नहीं बताते और सावरकर को महान सामाज सुधारक बी. आर. अंबेडकर के बराबर रख देते हैं. एक जगह तो वह इन दोनों में समानताएं भी दिखाने लगते हैं:

Advertisement. Scroll to continue reading.

ऐसी दो बातें जरूर थीं जिन पर अंबेडकर और सावरकर की समान सोच थी. दोनों गांधी के समाज सुधार के काम को दिखावा मानते थे और पश्चिमी शिक्षा के प्रशंसक थे. दोनों गांधी के विज्ञान, शल्यक्रिया, तकनीक और शहरी जीवन के प्रति नकारात्मक विचार से प्रभावित नहीं थे. दोनों के बीच अंतर होने के बावजूद वे एक दूसरे के प्रशंसक थे.

किताब से स्पष्ट है कि लेखक सावरकर के प्रशंसक हैं. उसमें एक घटना का उल्लेख है जिसमें काकोरी षड्यंत्र मामले में शहीद हुए लोगों को सावरकर ने याद किया है. अगस्त 1925 में राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खान, रोशन सिंह और राजेंद्र लाहिड़ी ने काकोरी और लखनऊ के बीच एक रेल लूटी थी. इस मामले में चारों को गिरफ्तार कर लिया गया और बाद में फांसी दे दी गई. पुरंदरे ने लिखाः “सावरकर ने इन देशभक्तों की प्रशंसा की और उनके बलिदान को याद किया लेकिन उन्होंने इन चारों में से सिर्फ तीन लोगों के नाम लिए- राम प्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह और राजेंद्र लाहिड़ी. अशफाकउल्ला खान का नाम “भूल से छूट” गया. गलती से हुए इस काम से उन पर पूर्वाग्रह रखने का आरोप लगा.

Advertisement. Scroll to continue reading.

यहां लेखक आलोचनात्मक अध्ययन नहीं करते बल्कि एक गलत तर्क घुसा कर सावरकर को उसके अपराध से बचाते हैं. प्रमाण के बिना ही लेखक सावरकर के अशफाकउल्ला खान का नाम न लेने को “भूल से छूट” जाना बता देते हैं. यहां लेखक शायद समझ नहीं पाए कि मुस्लिम के बलिदान को अनदेखा करना सावरकर की सांप्रदायिक सोच का प्रतिबिंब था.

और इससे बुरा क्या होगा कि लेखक ने काकोरी केस के दोषियों द्वारा प्रिवी काउंसिल और “सम्राट” को लिखी अपील को इस तरह से पेश किया है जिससे पाठक को गुमराह किया जा सके. लेखक ने काकोरी के दोषियों की अपील की तुलना सावरकर द्वारा अंडमान की सेल्यूलर जेल से ब्रिटिश सरकार को लिखी क्षमा याचना से की है. पुरंदरे लिखते हैं, “यह सौभाग्य की बात है कि इन क्रांतिकारियों को सावरकर की तरह ब्रिटिश समर्थक या गद्दार नहीं कहा गया”.

Advertisement. Scroll to continue reading.

अपनी अंतिम याचिकाओं में सावरकर ने ब्रिटिश शासन को आश्वासन देते हुए लिखा है कि भारत से प्रेम करने वाला हर बुद्धिमान व्यक्ति भारत के हित के लिए ब्रिटिश जनता का पूरी निष्ठा और हृदय से सहयोग करेगा”. किताब में सावरकर की क्षमा याचनाओं को उसकी रणनीति बताया गया है लेकिन इतिहास गवाह है कि जेल से बाहर आने के बाद सावरकर ब्रिटिश साम्राज्य को दिए अपने वचन पर कायम रहा. न सिर्फ सावरकर अपने वचन पर कायम रहा बल्कि उसने ब्रिटिश सरकार की फूट डालो और राज करो की नीति को लागू करने में भी मदद की. जेल से बाहर आने के बाद सावरकर ने हिंदुत्व के जिस सिद्धांत की रचना की वह मुस्लिम लीग की दो राष्ट्र के सिद्धांत का ही दूसरा रूप था.

हैरानी की बात नहीं कि किताब के आखिरी अध्याय में लेखक पाठकों को यह मनवाने का भरसक प्रयास करते हैं कि महात्मा गांधी की हत्या में सावरकर का हाथ नहीं था बल्कि वह जवाहरलाल नेहरू के रचे षडयंत्र का शिकार बना था क्योंकि नेहरू ने सावरकर या हिंदू महासभा पर कभी विश्वास नहीं किया. अपने इस दावे को स्थापित करने के लिए लेखक सावरकर के समर्थकों के उस काल्पनिक दावे का संदर्भ देते हैं जिसमें अंबेडकर और सावरकर के वकील और कानून विशेषज्ञ एलबी भोपटकर की एक गुप्त मुलाकात की बात है. इस दावे के अनुसार अंबेडकर ने गांधी हत्या की सुनवाई के दौरान भोपटकर से कहा था कि सावरकर निर्दोष है और इस बात की ओर इशारा किया था कि नेहरू उन्हें ठिकाने लगाना चाहते थे. पुरंदरे लिखते हैः

Advertisement. Scroll to continue reading.

जब भोपटकर मिलने के लिए निर्धारित स्थान पर पहुंचे तो अंबेडकर अपनी कार की ड्राइवर वाली सीट पर बैठे थे. अंबेडकर ने भोपटकर को आगे बैठने का इशारा किया और कहा, ‘आपके मुवक्किल के खिलाफ कोई वास्तविक आरोप नहीं है, बेकार के सबूत गढ़े गए हैं. कैबिनेट के कई मंत्री इसके खिलाफ हैं. यहां तक कि सरदार पटेल इन आदेशों के खिलाफ नहीं जा पाए. लेकिन मुझसे लिख कर ले लीजिए कोई मामला ही नहीं है और आप यह केस जीत जाएंगे.’

यह लिखने के बाद लेखक स्वीकार करते हैं कि अंबेडकर और भोपटकर दोनों ने इस गुप्त बैठक को कभी सार्वजनिक नहीं किया. इन दोनों के जीवित रहते हुए भी ऐसी कोई बात प्रकाश में नहीं आई. लेकिन इसके बावजूद लेखक ने इस काल्पनिक बात को अपनी किताब में एक साक्ष्य की तरह पेश किया है. अपने दावे को न्यायोचित ठहराने के लिए लेखक इस तथाकथित गुप्त बैठक को मनोहर मलगांवकर के हवाले से कहते हैं जिन्होंने 1983 में समाचार पत्र ‘काल’ में इस बारे में लिखा था. गांधी की हत्या के तीन दशक बाद यह बात लिखी गई थी और न भोपटकर और न ही अंबेडकर खंडन करने के लिए जिंदा थे. लेखक कहते हैं कि सावरकर के समर्थक घटना के “सही होने की कसमें खाते” हैं.

Advertisement. Scroll to continue reading.

पुरंदरे कई स्थानों पर गौण स्रोतों और सावरकर या उनके प्रति समर्थन का भाव रखने वाले लोगों के लेखन पर निर्भर होकर अपनी बात कहते हैं. समाचार पत्रों में प्रकाशित सामग्री उनके शोध स्रोत का आधार है. लेकिन पुरंदरे ने भारतीय राष्ट्रीय लेखागार में उपलब्ध गोपनीय फाइलों या नेहरू स्मृति म्यूजियम और पुस्तकालय में उपलब्ध दस्तावेजों का अध्ययन करने का बहुत कम प्रयास किया है. इसलिए यह किताब लेखक के पूर्वाग्रह भरे एजेंडा जैसी है न कि सावरकर के जीवन की सच्ची कथा.

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement