आलोक पराड़कर
प्रख्यात पत्रकार लक्ष्मण नारायण गर्दे के पौत्र विश्वास गर्दे ‘भाऊ’ की शल्य चिकित्सा और फिर निधन के दुख के बीच रविवार को बनारस से लखनऊ लौट रहा था तो रास्ते में फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या की खबर आई। मुझे नहीं मालूम कि टेलीविजन और फिल्म की चकाचौंध भरी दुनिया में वह किस तरह का अवसाद और अकेलापन था जिसके कारण सुशान्त ने आत्महत्या जैसे पलायन का मार्ग चुना लेकिन व्यक्तिगत तौर पर मैंने भाऊ को लगातार अकेला होते जाने को देखा है।
सम्पादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराड़कर और लक्ष्मण नारायण गर्दे- बनारस में दो प्रसिद्ध और समकालीन मराठीभाषी पत्रकार तो थे ही, आपस में रिश्तेदार भी थे। पराड़कर जी की भतीजी का विवाह गर्दे जी के पुत्र से हुआ। भाऊ के पिता गर्दे जी के पुत्र और माता पराड़कर जी की भतीजी थीं। इस तरह भाऊ मेरे भाई थे। करीब डेढ़-दो दशक पूर्व हम जब भी भाऊ के घर जाते, अक्सर वे घर पर नहीं होते। उनके यार-दोस्तों का एक बड़ा दायरा था। वे जब भी आते, कुछ लोगों के साथ ही आते। उनके बहुत सारे दोस्तों के नाम हमें भी याद थे।
भाऊ का अर्थ भाई होता है और वे पूरे मोहल्ले में घर के बड़े भाई की तरह ही लोकप्रिय थे। ज्यादातर लोग उन्हें भाऊ कहते और कुछ लोग भाऊ को किसी नाम-उपनाम की तरह समझते हुए उसमें आदर से भैया भी जोड़ देते। इस प्रकार वे बहुत सारे लोगों के भाऊ भैया हो जाते जबकि दोनो का अर्थ एक ही है। भाऊ सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़कर भागीदारी करते। किसी के घर विवाह हो या कोई अस्पताल में हो, भाऊ उसमें शामिल मिलते। वे पत्थरगली, रतनफाटक, जतनबर, दूधकटरा, बीबी हटिया, गायघाट, ब्रह्माघाट, दुर्गाघाट, दूध विनायक और आसपास के क्षेत्रों के अघोषित सभासद की तरह थे। हालांकि उनकी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं रही लेकिन उनकी सामाजिक सहभागिता से अक्सर ये भ्रम होता कि वे किसी ऐसे लाभ के लिए ही ऐसा कर रहे हैं।
भाऊ पक्के महाल के इन इलाकों में पत्रकारों के सबसे बड़े सूत्र थे। दिग्गज पत्रकार के परिवार से होने के कारण ज्यादातर समाचार पत्रों के संवाददाताओं के पास उनके नंबर होते और भाऊ उनके लिए हमेशा उपलब्ध रहते। इन मराठी बाहुल्य क्षेत्रों में मराठियों से जुड़े आयोजन की खबर तो भाऊ के बिना पूरी ही नहीं होती। गणेशोत्सव के दौरान तो उनकी खूब मांग रहती थी। भाऊ कभी स्वतः पत्रकार नहीं बन सके लेकिन वे बनारस की पत्रकारिता में लंबे समय तक अपरिहार्य रहे। यहां तक की कोई पराड़कर जी, गर्दे जी या रणभेरी आदि से जुड़े टीवी कार्यक्रमों का निर्माण कर रहा होता तो वह भाऊ की ही शरण में होता। हालांकि इन सब का कभी कोई क्रेडिट उन्हें नहीं मिला लेकिन भाऊ मदद करके ही खुश हो लेते।
ये जरूर हुआ कि इन सारी चीजों का असर उनके व्यक्तिगत जीवन पर भी पड़ता गया। सामाजिक कार्यों में ऐसा मन रमता रहा कि न कहीं नौकरी कर सके और न विवाह। चार बहनों के विवाह और उनके परिवारों की खुशी में अपनी खुशी देखी लेकिन बहनों के बाद माता-पिता के देखभाल की जिम्मेदारियां बढ़ती चली गईं। फिर यह भी हुआ कि माता-पिता की देखभाल के कारण उनका सामाजिक दायरा कम होता चला गया और परिवार में पूरा वक्त बीतने लगा। फिर मां भी चल बसी और पिता को स्मृतिलोप के बाद संभाल पाना कठिन से कठिनतर होता चला गया लेकिन यहीं भाऊ ने समाज का बदला हुआ रूप भी देखा। जो भाऊ हमेशा दूसरों के कामों में बढ़चढ़कर शामिल होते थे, जो हमेशा यार-दोस्तों से घिरे रहते थे, जिनका पता मोहल्ले में कोई भी बता सकता था, जिनका नाम ज्यादातर लोगों की जुबान पर होता था, उनका हालचाल लेने वाला भी कोई नहीं बचा। वे लगातार अकेले होते चले गए।
ऐसा समय भी आया कि मई के मध्य जब भाऊ बीमार पड़े और बेसुध रहने लगे तो उनका हालचाल लेने वाला तक कोई नहीं था। यह लाकडाउन का समय था और कोरोना के भय से लोग अपनों तक से दूर थे। भाऊ कई दिनों तक इलाज को तरसते रहे। अन्ततः योगेश सप्तर्षि, पूर्व सभासद घनश्याम और पत्रकार मनोज को खबर मिली तो उन्होंने जैसे-तैसे पास के एक अस्पताल में उन्हें दाखिल कराया। बाद में उन्हें एक निजी अस्पताल लाया गया लेकिन उनकी हालत बिगड़ चुकी थी। इस बीच सूचना पाकर उनकी बहनें और उनके पति भी वहां आ सके। लेकिन भाऊ को बचाया नहीं जा सका। 62 वर्ष की उम्र में भाऊ चल बसे लेकिन उनके निधन के बहुत पहले ही उनके उस विश्वास का अन्त भी हो गया था जो परपीड़ा और परहित को अपना समझने के दौरान उनके मन में कहीं न कहीं फल-फूल रहा था!
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