अशोक कुमार पांडेय-
एक सवाल लम्बे समय से मुझे मथ रहा है। हिटलर के हाथों पूरे योरप में यहूदियों ने जो अत्याचार झेला, वैसा इतिहास में कहीं और सुनने को नहीं मिलता। गैस चेम्बर मनुष्य की सबसे हिंसक सबसे क्रूर निर्मितियाँ थीं। द्वितीय विश्वयुद्ध का कोई इतिहास उनकी कराहों के बिना नहीं लिखा जा सकता।
लेकिन उन यहूदियों ने उससे सीखा क्या? वही क्रूरता! फ़लस्तीन में सीधे-साढ़े ग्रामीण मुसलमानों के साथ वही व्यवहार किया, कई बार उससे भी भयानक! अपनी पीड़ा से वह दूसरों की पीड़ा समझने की शक्ति न हासिल कर पाए? ज़मीन पर क़ब्ज़े की वही भूख, ख़ुद से अलग लोगों के साथ वही क्रूरता!
क्या इंसान मूलतः ऐसा ही है? बर्बर और नफ़रत से भरा? अल्पसंख्यक होने पर, कमज़ोर होने पर उसे सारे मानवीय लोकतांत्रिक मूल्य याद आते हैं, बहुसंख्यक होने पर भूल जाता है?
क्या जर्मनी में यहूदियों की मदद करने वालों और इज़रायल में फ़लस्तीनियों पर हुए अत्याचार के ख़िलाफ़ बोलने वाले यहूदियों जैसे लोग हर देश-काल-परिस्थिति में अल्पसंख्यक होते हैं?
शीतल पी सिंह-
इंडोनेशिया में अहमदिया समुदाय की मस्जिद पर सुन्नी समुदाय के मुसलमानों की भीड़ का हमला, मस्जिद तहस नहस!
यह सूचना उस तर्क की धज्जियां उड़ाती है जो कहता है कि इस्लाम के मानने वालों का अतिवाद दक्षिण एशियाई और मध्य पूर्व के देशों तक सीमित है।
प्रकाश के रे-
अभी France 24 पर एक रिपोर्ट में देखा कि लीबिया के शहरी बिजली की बड़ी कमी से जूझ रहे हैं. इस देश में एक दशक से राजनीतिक अस्थिरता और गृहयुद्ध है, जिसमें अलग अलग देशों, मुख्य रूप से नाटो, के संरक्षित समूह लड़ रहे हैं. दस साल पहले तक तेल, बिजली आदि बेहद सस्ते, कुछ हद तक मुफ़्त, में मुहैया होते थे.
फिर अमेरिका (ओबामा-क्लिंटन) ने सोचा कि कुछ तूफ़ानी करते हैं और अफ़ग़ानिस्तान की तरह वहाँ भी पश्चिमी देश डेमोक्रेसी लाने लगे.
उसी दौर में इराक़ में अमेरिका-नाटो को शिया प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा था और सरकार में बैठी कठपुतलियाँ लूट मचा रही थीं. फिर खिलाड़ियों को इस्लामिक स्टेट का आइडिया आया. यह अल क़ायदा का रिमेक था.
ये तमाम गिरोह पहले इराक़, फिर सीरिया व लीबिया में सक्रिय किए गए. कुछ साल से उन्हें अफ़ग़ानिस्तान पार्सल किया जा रहा है.
बहरहाल, मज़े की बात यह है कि इराक़, सीरिया और लीबिया में लड़ाई के बावजूद वैध और अवैध तरीक़े से तेल निकाला जाता रहा. सप्लाई को अरब तेल उत्पादकों के फ़ायदे के हिसाब से मैनिपुलेट भी किया जाता रहा है. अगर रूस ने सीरिया को नहीं बचाया होता, तो वहाँ भी हाल बेहाल रहता.
इस ब्रांड की डेमोक्रेसी जहाँ जाती है, वहाँ कोहराम क्यों मच जाता है! और, अगर पश्चिम को डेमोक्रेसी इतनी ही प्यारी है, तो उसके सबसे क़रीबी देश राजशाही या तानाशाही क्यों हैं?