जस्टिस मजीठिया वेज बोर्ड मामले में मीडिया कर्मियों की तरफ अखबार मालिकों के खिलाफ सुप्रीमकोर्ट में लड़ाई लड़ रहे एडवोकेट परमानंद पांडे को मीडिया का भी काफी तजुर्बा है। वे इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट के सेक्रेटरी जनरल भी हैं। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र रह चुके परमानंद पांडे पर मीडियाकर्मियों को पूरा भरोसा है। वजह भी साफ़ है। परमानंद पांडे मीडियाकर्मियों का दर्द जानते हैं। यही वजह है कि वे माननीय सुप्रीमकोर्ट में सटीक मुद्दा रखते हैं। जो बात कहना रहता है पूरे दम से कहते हैं। मजीठिया वेज बोर्ड मामले पर एडवोकेट परमानंद पांडे से बात किया मुम्बई के निर्भीक पत्रकार और आरटीआई एक्सपर्ट शशिकान्त सिंह ने। पेश है बातचीत के मुख्य अंश…
-दिनांक 8.11.2016 को आये सुप्रीमकोर्ट के आर्डर को आप किस रूप में लेते हैं?
– सकारात्मक निर्णय है।
-लीगल इश्यू के बारे में आपका क्या कहना है?
-लीगल इश्यू फ्रेम होना चाहिए। दो-तीन मुद्दे हैं, जिसको लेकर मैनेजमेंट के लोग हीलाहवाली कर रहे हैं। हालांकि मजीठिया वेज बोर्ड इस मामले में बिल्कुल साफ है। मैंने पिछली बार भी कहा था कि 20-जे उन्हीं लोगों पर प्रभावी होगा जिनको वेजबोर्ड से ज्यादा वेतन मिल रहा है। जिनको वेज बोर्ड से कम मिल रहा है उनके लिए इस ढंग का समझौता नहीं कर सकते हैं। और तो और, ये जो कांट्रेक्ट एक्ट है आप हमसे एक बार लिखवा ले रहे हैं तो हमारी पूरी तरह से सहमति होनी चाहिए। हम आए और आपने कर्मचारियों से तुरंत हस्ताक्षर करा लिए हैं। इस बात को कोई नहीं मानेगा कि उसे जितना वेतन मिलना चाहिए वह उससे कम वेतन लेकर काम करने में खुश है। इस तरह हम देखें तो सूरज की रोशनी की तरह यह साफ-साफ दिखाई दे रहा है कि पत्रकारों से जोरजबरदस्ती करके 20जे पर हस्ताक्षर कराये गए हैं। इस मुद्दे को हम उठाएंगे। दूसरा लीगल मुद्दा यह है कि भास्कर, प्रभात खबर, हिन्दुस्तान टाइम्स जैसे अधिकांश अखबारों ने पत्रकारों की नियुक्ति तो की अपने मुख्य संस्थान के लिए और उसे दिखा रहे हैं अन्य विभाग या किसी अन्य कंपनी में और मजीठिया मांगने पर ट्रांसफर कर दे रहे हैं।
दूसरा लीगल मुद्दा है कांट्रैक्ट सिस्टम। अधिकांश समाचार पत्र कह रहे हैं कि हम कांट्रैक्ट पर रखे हैं। ये जो कांट्रैक्ट सिस्टम है वह पूरी तरह से अमान्य (इनवैलिड) है। उसका कारण यह है कि कांट्रैक्ट एक्ट के अनुसार आप हमसे कोई ऐसा कार्य नहीं करा सकते हैं, जिसके लिए हमारी सहमति नहीं हैं। और अगर है भी तो हमारा कांट्रैक्ट लेबर की तरह नहीं है। आपको हमें वहीं वेतन देना पड़ेगा जैसा कि वेज बोर्ड में बताया गया है क्योंकि पत्रकारों और संस्थानों के बीच सीधा कांट्रैक्ट है। इसमें आउटसोर्सिंग जैसी बात न तो है और न ही हो सकती है, जैसा कि अधिकांश कंपनियों ने अपने चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के लिये किया है। पत्रकार सीधे कंपनी के कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं न कि किसी ठेकेदार के कर्मचारी के रूप में। यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। तीसरा मुद्दा है क्लीसीफिकेशन का। किसी भी संस्थान के किसी संस्करण में काम करने वाला पत्रकार यदि कोई खबर करता है तो उसे उस संस्थान के अन्य संस्करण भी उपयोग करते हैं या कर सकते हैं, ऐसे में उनका क्लासीफिकेशन अलग-अलग कैसे कर सकते हैं।
-अधिकाँश अखबारों में स्टैंडिंग आर्डर सर्टिफाइड नहीं कराया गया है और बिना वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट को आधार बनाए कर्मचारियों का ट्रांसफर सस्पेंशन टर्मिनेशन हो रहा है। उसमें आपका क्या कहना है?
-ऐसी स्थिति में मॉडल स्टेंडिंग आर्डर अपने आप लागू हो जाता है जिसमें यह बिल्कुल साफ है कि कर्मचारी की सहमति और सुविधा का ध्यान रखे बिना उसका ट्रांसफर नहीं किया जा सकता और न ही उसे परेशान या प्रताड़ित करने के लिए ट्रांसफर किया जा सकता है। कर्मचारियों की परिवारिक जिम्मेदारियों को भी ध्यान देना पड़ता है। वहीं यह भी बताया गया है कि किन कर्मचारियों का ट्रांसफर हो सकता है और किनका नहीं। सर्टिफाइड स्टैंडिग आर्डर है तो भी मामला कोर्ट में जाता है तो वहां मॉडल स्टैंडिग आर्डर ही मान्य होगा।
-लेबर कमिश्नरों द्वारा जो रिपोर्ट सुप्रीमकोर्ट को भेजी गई उससे आप कितने सहमत हैं?
-कुछ कमिश्नरों की रिपोर्ट से तो सहमत हूँ। दिल्ली की रिपोर्ट ठीक है, जबकि पहले की रिपोर्ट में काफी गलतियां थी अथवा पक्षपाती थी। बाद में दिल्ली में गोपाल राय एवं लेबर कमिश्नर मीणा से हम लोग मिले। उसके बाद जो रिपोर्ट आई है वह रिपोर्ट काफी हद तक सही है। अब यदि यूपी की बात करें तो वे कह रहे हैं कि हिन्दुस्तान टाइम्स ने लागू कर दिया है, जबकि हिन्दुस्तान टाइम्स ने सभी लोगों को मैनेजर बना दिया है। सबके पोस्ट बदल दिये। काम उपसंपादक का ले रहे हैं और बना मैनेजर दिए हैं। टाइम्स आॅफ इंडिया ने कहा है कि हमारे यहां कोई असंतोष है ही नहीं। इस प्रकार की रिपोर्ट आई है, जबकि पीड़ित कर्मचारी है। ऐसे में श्रम विभाग को कर्मचारियों से पूछना चाहिए, न कि कंपनी से।
-जैसा कि हमने सुना है 17(1) के मामले 17(2) में नहीं जा सकते। इस बारे में आपका क्या कहना है?
-क्लेम सही है कि गलत है इसका फैसला करने का पावर लेबर कमिश्नर के पास नहीं है। ऐसे में निश्चित है कि कर्मचारियों एवं प्रबंधन में निश्चित राशि पर सहमति नहीं बन पाएगी। यदि लेबर कमिश्नर ऐसा कर भी देता है, तो उसे कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। ऐसे में हमारा प्रयास है कि कोर्ट लेबर कमिश्नर को ही यह पावर दे दे कि वह इस पर उचित फैसला लेकर रिकवरी आदेश जारी कर सके।
-जिन समाचार पत्रों का रिपोर्ट साफ हो गया है कि उन्होंने नहीं दिया है, जो लेबर कमिश्नर के रिपोर्ट में भी आ गया है और आरसी भी कट गई है, उन पर अवमानना का केस क्यों नहीं चलता है?
-उन पर अवमानना का केस दर्ज होना चाहिए। आप उनके नाम बताएं, उन पर अवमानना का केस चलाया जाएगा।
-लीगल इश्यू की नाव चलेगी तो डूब जाएगी, ऐसा कहा जा रहा है, इस बारे में क्या कहेंगे?
-कंटेम्प साबित करना हमारा काम है। मेरी सेलरी और वेज बोर्ड की सेलरी देख लीजिए। बाकि 20जे जैसे मुद्दे मैनेजमेंट अपने ढाल के रूप में उठा रहा है। इससे उसका कोई लेना देना नहीं है। मेरा कहना है सेलरी स्लीप और वेजबोर्ड की सेलरी देखिए, उसी पर निर्णय कीजिए, हम इसीलिए आए हैं।
-जो कंपनियां लेबर कमिश्नर के बार-बार मांगने के बावजूद भी 2007-2010 का बैलेंस शीट नहीं दे रही हैं, उनके बारे में आपका क्या कहना है?
-उनको देना ही पड़ेगा। बचने का कोई रास्ता उनके सामने नहीं है।
-आप, कॉलिन जी और उमेश जी सबकी मंजिल एक है, मीडियाकर्मियों को न्याय मिले, फिर एक साथ बैठकर आप लोग मुद्दे तय क्यों नहीं करते?
-हम लोग जल्द ही मिलने वाले है। कॉलिन जी और उमेश जी से भी मेरी बात चल रही है। हम चाहते हैं हम सब मिलकर मुद्दे तय कर लें। हम कोशिश करेंगे एक मुद्दे को एक आदमी उठाये और बाकी लोग उनका समर्थन करें तो ज्यादा अच्छा रहेगा। जज भी कंफ्यूज नहीं होंगे।
-सभी मीडियाकर्मियों की इच्छा है कि अखबार मालिक जेल जाएँ। उनका ये सपना कब पूरा होगा?
-देखिये कंटेम्प्ट का केस तीन चार तारीख पर हल हो जाता है। लेकिन ये दो साल से ऊपर होने जा रहा है। आपने देखा होगा पिछले ऑर्डर से अगला ऑर्डर कुछ भिन्न हो जाता है। अब जैसे पांच पांच राज्यों के लेबर कमिश्नर को बुलाने की बात थी। लेकिन इस बार ऑर्डर में ये नहीं आया। इस मुद्दे को हमें उठाना है। देखिये कई वकील इसमें ऐसे आये हैं जो बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं, जिन्हें लेबर लॉ की कोई जानकारी नहीं है। दो ऑप्शन होगा या तो लागू कीजिये या जेल जाइये। अगर लागू किया तो प्रूफ दिखाइये। लेकिन मालिक लोग अभी तक बचते आ रहे हैं।
-आप खुद पत्रकारिता से आये हैं। आप इन्डियन फेडरेशन ऑफ़ वर्किंग जर्नलिस्ट के सेक्रेटरी जनरल हैं। आपको मीडियाकर्मियों का दर्द अच्छी तरह पता है। मीडियाकर्मियों को जिन वकीलों पर सबसे ज्यादा भरोसा है उनमें एक आप भी हैं।
-धन्यवाद शशिकान्त जी। मैं मीडियाकर्मियों का दर्द अच्छी तरह जानता हूँ और जब भी मुझे मौक़ा मिलता है मैं उनके दर्द को उठाता भी हूँ। मैंने आज तक कोई ऐसा मुद्दा नहीं उठाया जो आपके सरोकार से जुड़ा ना हो या उसका कोई रिश्ता ना हो। मैंने चार पांच बार प्रभात खबर, दैनिक भास्कर और ईनाडु के मामले को उठाया। ईनाडु ने अपने 400 कर्मचारियों से पहले जबरी त्यागपत्र लिया फिर उन्हें कांट्रैक्ट पर ले लिया, कुछ दिन बाद, इस मामले को भी उठाया।
-आज लेबर कमिश्नर मालिकों के प्रति वफादार क्यों लग रहे है?
-ये आप भी जानते हैं और मैं भी जानता हूँ। हिंदुस्तान भर में लेबर कमिश्नर लेबर की जगह मालिकों के लिए काम कर रहे हैं। हैं तो ये लेबर की भलाई के लिए लेकिन काम ये मालिकों की भलाई के लिए कर रहे हैं।
-एक दिक्कत ये भी आ रही है कि महाराष्ट्र में तो आप ट्रांसफर पर स्टे ले सकते हैं जबकि बाकी 28 राज्यों में कर्मचारियों को राहत का कोई नियम नहीं है?
-हां, हम ये भी डिमॉन्ड जल्द उठाएंगे। अभी तो हालात ये है कि पत्रकारों में एकता भी नहीं है। जितने बड़े पत्रकार हैं वे छोटों से बात करना भी पसंद नहीं करते हैं। छोटों को वे बड़ी हिकारत की नजर से देखते हैं। आज आप संपादकों से बात कीजिये तो वे गुरुर में रहेंगे और आपसे ठीक से बात भी नहीं करेंगे लेकिन जैसे ही मालिक उनको निकालता है वे आपसे बात करके रास्ता पूछेंगे।
शशिकान्त सिंह
पत्रकार और आरटीआई एक्सपर्ट
मुंबई
9322411335
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