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सियासत

जिन्हें पाकर पुरस्कार मुस्कुराया

साल 2000 के फरवरी माह का कोई दिन था। श्वेत-धवल वस्त्रों में लिपटी गौरवर्ण की काया, वात्सल्यमयी मुस्कान लिए विद्वान संपादक के समक्ष जैसे ही पहुंचा, उन्होंने बैठने का इशारा किया और सीधे पूछ लिया : कलम रखे हो। ग्रेजुएशन के बाद पहली नौकरी पाने के उत्साह से लबरेज मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया और अपनी इंटरव्यू फाइल उनके सामने रख दी। जिसे सामने से हटाते हुए उन्होंने कहा : मार्कशीट से ज्यादा विश्वसनीय हमारा ज्ञान होता है। मुझे वही देखना है तुममें। ये लो कागज और जितने शब्द कह रहा हूँ, लिख डालो। विद्वान संपादक ने हिन्दी-अंग्रेजी के कुल 25 शब्द लिखवाये जिनमें से 20 सही थे। महज पन्द्रह मिनट के साक्षात्कार में ही मुहर लग गई कि मैं पत्रकार बनने के योगय हूं। राडियानुमा कार्पोरेटी पत्रकारिता के दौर में अब यह प्रयोग भले ही धूल चाट रहा हो लेकिन इसका खामियाजा पत्रकारिता को ही उठाना पड़ रहा है। 

बबन प्रसाद मिश्र

साल 2000 के फरवरी माह का कोई दिन था। श्वेत-धवल वस्त्रों में लिपटी गौरवर्ण की काया, वात्सल्यमयी मुस्कान लिए विद्वान संपादक के समक्ष जैसे ही पहुंचा, उन्होंने बैठने का इशारा किया और सीधे पूछ लिया : कलम रखे हो। ग्रेजुएशन के बाद पहली नौकरी पाने के उत्साह से लबरेज मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया और अपनी इंटरव्यू फाइल उनके सामने रख दी। जिसे सामने से हटाते हुए उन्होंने कहा : मार्कशीट से ज्यादा विश्वसनीय हमारा ज्ञान होता है। मुझे वही देखना है तुममें। ये लो कागज और जितने शब्द कह रहा हूँ, लिख डालो। विद्वान संपादक ने हिन्दी-अंग्रेजी के कुल 25 शब्द लिखवाये जिनमें से 20 सही थे। महज पन्द्रह मिनट के साक्षात्कार में ही मुहर लग गई कि मैं पत्रकार बनने के योगय हूं। राडियानुमा कार्पोरेटी पत्रकारिता के दौर में अब यह प्रयोग भले ही धूल चाट रहा हो लेकिन इसका खामियाजा पत्रकारिता को ही उठाना पड़ रहा है। 

बबन प्रसाद मिश्र

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आश्चर्य कि उस दिन नवभारत प्रेस ने मुझे पाया था और मैंने उस शख्स को जिसने यह सिखाया कि पत्रकार बनने के लिए डिग्री से ज्यादा ज्ञान की जरूरत होती है! वे थे हमारे आदरणीय श्री बबन प्रसाद मिश्र जी। कल ही मध्य प्रदेश सरकार ने जिन्हें राष्ट्रीय पत्रकारिता पुरस्कार से सम्मानित किया है। वैसे इस बात से कौन इंकार करेगा कि पुरस्कार का असली महत्व तो तब होता है जब वह सही हाथों में जाये इसलिए पत्रकारीय आकाश में धु्रवतारे की तरह चमकते बबनजी के हाथों में जाकर इस पुरस्कार का गौरव ही बढ़ा है। 

मिश्रजी अपने दौर के वजनदार, प्रतिष्ठित और प्रख्यात पत्रकार रहे। उनकी समझ, गहराई तार्किकता और बातों के वजन के लोग कायल थे या हैं तभी तो पूर्व मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्र से लेकर सुंदरलाल पटवा, अजीत जोगी या मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह तक उन्हें बखूबी आदर और सम्मान दिया। उनकी कार्यशैली को व्यक्ति से लेकर सैकड़ों संस्थाओं तक में गहराई तक महसूसा जा सकता है। पहली मुलाकात में अपरिचित को भी अपना बना लेने में मिश्रजी के निश्छल ठहाकों का खासा योगदान रहा है। संघी होने का ठप्पा लगने के बावजूद मिश्रजी ने प्रोफेशनलिज्म का पूरा सम्मान किया। उनका आदर्शवाक्य रहा कि खबर खिलाफ में हो या पक्ष में, अधिकृत बयान जरूर जाना चाहिए। 

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एक पत्रकार के तौर पर यही मेरा भी सूत्र-वाक्य है। अंग्रेजी में कहावत है कि बुद्धिमान अक्सर सहमत नही होते, सिर्फ गधे ही सहमत होते हैं। उनके गुणी-प्रशंसकों से लेकर अज्ञानता और क्षेत्रीयतावाद के दंश से जूझ रहे असंतोषियों ने मिश्रजी को चाहे जो उपमायें दी हों, अमिट सच यह है कि आप उनकी आलोचना तो कर सकते हैं लेकिन बुराई रंचमात्र भी नहीं ढूंढ़ पाते। मैँ उनके एक फोन पर पहुँचू या ना पहुँचू लेकिन अनुभव के साथ कह रहा हूं कि कम से कम उन लोगों में शुमार नही हूं जिन्होंने मिश्रजी के पॉवर में रहते भक्ति या दासवृत्ति दिखाते हुए उनके हमराह होने का दावा तो किया लेकिन आज वे उनके साये से भी दूर हैं।

बबनजी ने कई कीर्तिमान गढ़े और मूल्यवादी पत्रकारिता के उदाहरण पेश किए। उन्होंने किसी को अपना दुश्मन नहीं माना बल्कि जीवनपथ पर किसी को सखा तो किसी को सहयोगी मानकर चलते रहे। संपादक रहते हुए सहयोगियों के लिए जितना बन पड़ा, किया। नवभारत में बतौर संपादक श्री मिश्रजी हर छह महीने में जब मेरी डेस्क (संपादकीय दायित्व) बदलते थे तो संगी-साथी कहते थे कि उन्होंने तुम्हें फुटबाल समझ रखा है और मैं मुस्कुराकर टाल देता था हालांकि कभी शक भी होता था लेकिन आज जब महज 38 की उम्र में किसी अखबार का संपादक हूं तब समझ में आ रहा है कि मिश्रजी मेरी डेस्क क्यों बदलते थे? एक संपादक की अनिवार्य योगयता यह है कि उसे अंतरराष्ट्रीय से लेकर आस-पड़ोस की खबरों का बुनियादी ज्ञान होना चाहिए।

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फिलहाल यक्ष प्रश्न पत्रकारिता में घटती विश्वसनीयता और मूल्यों का है तब मिश्रजी द्वारा स्थापित आदर्श प्रतिमान जरूर याद किए जाने चाहिए। यह खुलासा नया नही है कि जिस नवभारत को अपने खून-पसीने से सींचकर उन्होंने फर्श से उठाकर अर्श तक पहुंचाया, उसे महज एक झटके में राम-राम कर दिया। और ऐसा इसलिए कि अखबार के मालिक ने प्रथम पृष्ठ पर एक व्यावसायिक विज्ञापन प्रकाशित कर दिया था। मिश्रजी के मुताबिक दर्द विज्ञापन को लेकर नहीं बल्कि इस बात का था कि समाचार के वास्तविक हक के साथ-साथ मेरी यानि संपादक नाम की संस्था को अनुकरणीय क्षति पहुँचाई गई थी।

संभवत: यह देश का पहला उदाहरण था जब किसी संपादक ने बाजारी चुनौतियों के आगे झुकने या अपमानित होने के बजाय शहीद हो जाने का फैसला किया था! आज के दौर में किसी संपादक से ऐसे हौसले या त्याज्य की उम्मीद आप नहीं कर सकते, खुद मुझसे भी नहीं क्योंकि हम जिन बवंडरों से जूझ रहे हैं, उसमें पत्रकारिता के मूल्य, खबरों की गुणवत्ता-विश्वसनीयता के साथ-साथ बाजार और प्रतिद्वंद्वियों के हमलों से खुद को बचाए रखना मजबूत चुनौती है। आज तो पहले प्रचार, फिर समाचार और बाद में विचार के दौर का संकट है मगर जब तक मिश्रजी की दिखाई हुए पगडंडी है, आदर्श प्रतिमान हैं तब तक हम जैसों के भटकने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता!

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लेखक एवं वरिष्ठ पत्रकार अनिल द्विवेदी का ईमेल संपर्क : www.dailysunstar.com

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