अरुंधती रॉय और दिलीप मंडल से लोग इतना नफरत क्यों करते हैं?

Share the news

Abhishek Srivastava : अरुंधती रॉय तीन साल समाधि लगाकर एक उपन्‍यास लिखती रहती हैं, फिर भी लोग उन्‍हें रह-रह कर गरिया देते हैं। दिलीप मंडल फेसबुक स्‍टेटस से ही उत्‍पात मचाए रहते हैं। एक अंग्रेज़ी जगत का वासी और दूसरा हिंदी जगत का। दोनों से लोग बराबर नफ़रत करते हैं। आप नौकरीशुदा मीडियावालों के बीच जाइए और थोड़ा परिष्‍कृत हिंदी में बस दो वाक्‍य बोल दीजिए। फिर देखिए, कैसे ‘बुद्धिजीवियों’ के प्रति उनकी घृणा तुरंत जुबान पर आ जाएगी। मैं शाम से सोच रहा था कि क्‍या हमारे यहां ही बुद्धिजीवी इतना पोलराइजि़ंग यानी बांटने वाला जीव होता है या कहीं और भी? आखिर ‘बुद्धिजीवी’ शब्‍द समाज में इतना घृणित क्‍यों बना दिया गया है?

इसे आप राष्‍ट्रवादी दुष्‍प्रचार कह कर हवा में नहीं उड़ा सकते। दिमाग पर ज़ोर डालिए कि पिछले तीन वर्षों में ज़रूरी मसलों पर सबसे अच्‍छा लेखन किसने किया? दो नाम ज़रूर याद आएंगे- प्रताप भानु मेहता और ज्‍यां द्रेज़। तीन साल में सबसे अच्‍छे पब्लिक भाषण किसने दिए? शशि थरूर, आनंद स्‍वरूप वर्मा और उर्मिलेश ने। सबसे ज्‍यादा और सबसे तीखी गाली नरेंद्र मोदी को किसने दी? वेदप्रताप वैदिक ने। राष्‍ट्रवाद के लिए धृतराष्‍ट्रवाद का प्रयोग उन्‍हीं का गढ़ा हुआ है। आखिर ये ‘बुद्धिजीवी’ जनमत को पोलराइज़ क्‍यों नहीं करते हैं? इन्‍हें गालियां क्‍यों नहीं पड़ती हैं? क्‍योंकि असल मामला कहन का है।

सच लिखने-बोलने की पांच कठिनाइयां बर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट ने बताई हैं। उनमें सबसे ज़रूरी आखिरी के तीन बिंदु हैं- सच को कैसे औज़ार की तरह इस्‍तेमाल किया जाए, उन लोगों की पहचान करने का विवेक जिनके हाथ में यह औज़ार सबसे ज्‍यादा प्रभावी होगा और उन्‍हीं लोगों के बीच सच का प्रसार करने की चतुराई। आप अनुभव से देखिए कि हम सच तो बोले जा रहे हैं, लेकिन उसका इस्‍तेमाल कोई और कर ले जा रहा है। सच को लिखने-बोलने का साहस ही काफी नहीं है। उसे बरतने का सलीका, भाषा, शैली और सही लोगों तक उसे पहुंचाने का हुनर कहीं ज्‍यादा अहम है। ग़ालिब अगर ग़ालिब हैं तो केवल इसलिए कि उनका अंदाज़-ए-बयां और है।

मीडिया विश्लेषक अभिषेक श्रीवास्तव की एफबी वॉल से.



भड़ास का ऐसे करें भला- Donate

भड़ास वाट्सएप नंबर- 7678515849



Comments on “अरुंधती रॉय और दिलीप मंडल से लोग इतना नफरत क्यों करते हैं?

  • राजेंद्र सिंह नेगी says:

    …में हैरान होता हूँ कि बहुत से लोग लेखकों और खास्कार नामचीन लेखकों या समाजसेवियों को सच का पुरोधा मान लेते हैं, ज़बकि ऐसे तथाकथित सेलिब्रेटी चर्चित होने और चर्चित बने रहने की आड़ में सच लिखने की गारंटी परोसते हैं | दरअसल ये सब उनके विचार होते हैं, अब चूँकि इसे वो अपने चश्में से देखते हैं तो उन्हें और भेडचाल की तरह चलने वाले उनके प्रसंशक इन विचारों को सत्य मानते हैं | ये सही नहीं कि जो प्रसिद्ध लोग कहे या जो आम तौर पर जो पढ़ाया जाए वही सच हो | उस पर वो सच सही भी हो ???? क्यूंकि सच और सही में बहुत अंतर हो सकता है | ” सच हमेशा कड़वा होता है ” हमें लकीर का फ़कीर बनने की प्रकिर्या से बाहर निकलना होगा , क्यूंकि सच यदि हमारे पक्ष में नहीं है तो कड़वा और यदि पक्ष में है तो मीठा भी लगता है |

    Reply

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *