बड़बोले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रिंट मीडियाकर्मियों के मजीठिया वेतनमान विवाद पर चुप क्यों हैं!

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मजीठिया वेतनमान को लेकर प्रेस मालिक संविधान और कानून की हत्या कर रहे है। बड़बोले प्रधानमंत्री मोदी, केन्द्र सरकार और राज्य सरकारें सब कुछ जानकर भी चुप है। ऐसा लगता है कि प्रेस मालिक देश के संविधान और कानून से बढ़कर है। इतना ही नहीं जो पत्रकार कोर्ट जा रहा है उन्हें संस्थान से बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है। कानून की ऐसी दुर्गती और कहां देखने को मिल सकती है। जिसका पालन समाज के सबसे जागरूक वर्ग के बीच ही नहीं हो रहा है। 

जर्नलिस्ट एक्ट की धारा 15 की तहत किसी को वेतनमान के कारण नहीं निकाला जा सकता। मामला जब सुको में था तो प्रेस मालिकों को मजीठिया वेतनमान का अंतरिम लाभ देना था क्योंकि कोर्ट ने स्टे नहीं दिया था, फिर सुप्रीम कोर्ट का आदेश, गुजरात हाईकोर्ट में दिव्य भास्कर ने लिखित समझौता किया फिर भी कर्मचारियों को मजीठिया वेतनमान नहीं दिए और कोर्ट जाने पर सेवामुक्त कर देना पूर्णतः दमनात्मक कार्यवाही है। इसके लिए यदि पीडि़त वेतन भुगतान अधिनियम 1936 की धारा 15/3 के तहत देयक राशि में 10 गुना जुर्माने की मांग करेंगा तो कोर्ट चाहकर भी प्रेस मालिक को नहीं बचा सकेंगा। वश वादी वकील इस पर अड़ा रहें। इसके साथ ही पत्रकार मानसिक और आर्थिक क्षतिपूर्ति की मांग कर सकते है। इसका कोई आधार नहीं होता हां इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि ऐसी राशि मांगे जो उचित लगे।

अब भी संशय
पत्रकार साथियों में अब भी संशय है कि हम तो ठेका पत्रकार है हमने अनुबंध किया है। यह सब भ्रमक बातें है आपकों माजीठिया वेतनमान ना मांगने के लिए मानसिक तौर पर हतोत्साहित किया जा रहा है। क्योंकि एम्प्लायमेंट स्टैंडर्स एक्ट 1946 की धारा 38 के तहत कर्मचारियों से कुछ भी अनलीगत शर्त लिखा लेना स्वतः ही निरस्त हो जाता है। और जर्नलिस्ट एक्ट की धारा 16 के तहत चाहे आप कैसे भी कर्मचारी रखें- संविदा, प्लेसमेंट एजेंसी का फिर भी यह अधिनियम मान्य होगा। मतलब साफ है यदि आप समाचार पत्र में काम कर रहे है तो आप मजीठिया वेतनमान के हकदार है।

कोर्ट में क्या होगा?
प्रेस मालिक यह सोचकर निश्चित है कि सुप्रीम कोर्ट में क्या होगा, कोर्ट यही कहेंगा कि आपने आदेश का पालन क्यों नहीं किया। हम कुछ भी बहाना बना देंगे और कोर्ट से फिर समय मिल जाएगा आदि-आदि। लेकिन कोर्ट की अवमानना मामले में काॅरपोरेट मालिकों व वरिष्ठ अधिकारियों को सीधे जेल होती है, जिसका उल्लेखन अवमानना अधिनियम में है। श्रम के मामले में कोर्ट के पास सबसे बड़ा हथियार होता है 10 गुने जुर्माने का। वेतन भुगतान अधिनियम की धारा 15/3 के तहत यह लगाया जाता है और यह तभी से प्रभावी हो जाता है जब कर्मचारी को महीने की सात तारीख तक वेतन ना मिले या कम वेतन मिले। चूंकि यहां आदेश के उल्लंघन पर उल्लंघन की बात है इसलिए कोर्ट उक्त अधिकार का प्रयोग करें तो मालिकों के लिए काफी परेशानी भरा सबब हो सकता है। मजीठिया वेतनमान के मामले में प्रेस मालिक कानून और संविधान की हत्या कर रहे है।

महेश्वरी प्रसाद मिश्र
पत्रकार
maheshwari_mishra@yahoo.com

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