मोदी सरकार इतनी डरपोक है कि पत्रकारों के न्याय के लिए आगे नहीं आई

जैसे हैं कपिल सिब्बल और सलमान खुर्शीद, वैसे ही निकले नरेंद्र मोदी…. पत्रकार का दर्द कौन सुने…. उसे तो अंदर बाहर हर ओर से गाली और शोषण का शिकार होना है… पत्रकार बिकाऊ है या कपिल सिब्बल व सलमान ख़ुर्शीद… यह सोचने की बात है… भारत सरकार तो ऐसी है जो ना अपना भला बुरा जानती है, ना समाज का और ना ही देश का। मैं बात करना चाहूंगा पत्रकारिता की। पत्रकार वही है जो कम वेतन में काम करने को तैयार हो। बाकि ना उसकी शैक्षणिक योग्यता देखी जाती है ना अक्षर ज्ञान। नतीजन कोई भी पत्रकार बन सकता है।

रोजगार ना मिलने तक बेरोजगारी भत्ता पाना युवाओं का अधिकार है…

रोजगार या बेरोजगारी भत्ता की मांग कितनी गंभीर : देश में यदि कोई रोजगार या बेरोजगारी भत्ते की मांग करें तो उसे भिखारी से भी गिरी नजरों से देखा जाता है। खैर अब लोग थोड़े जागरूक हुए हैं और इसे सरकार की ही जिम्मेदारी मानते हैं लेकिन सरकार एक नया बहाना ढूढ़ रही है। संसद में कहती है कि हम बेरोजगारी भत्ता नहीं रोजगार देंगे। और सड़क पर कहती है कि हर व्यक्ति को रोजगार देना संभव नहीं। वे स्वरोजगार स्थापित करें बैंक लोन देगी। जब सत्ताधारी दल ये मान रहा है कि सबको रोजगार देना संभव नहीं तो सभी स्वरोजगार स्थापित कर लेंगे क्या ये संभव है? लेकिन जनता को 60 सालों से टोपी पहना रहे हैं तो आज भी सही।

क्या विस चुनावों के बाद मीडिया के लिए बुरे दिन आएंगे?

यूपी चुनाव खत्म होने के बाद मीडिया में छाई गंदगी का सफाया तेजी से हो सकता है। बताया जाता है कि यूपी चुनाव में भाजपा बहुमत की उम्मीद कर रही थी लेकिन लाख कोशिशों के बाद त्रिशंकु विधानसभा जैसी स्थिति बनने की आशंका व्यक्त की जा रही है। और इसका ठीकरा न्यूज़ चैनलों पर फोड़ा जा सकता है। कभी दो नंबर की पायदान बनाए रखने वाले न्यूज चैनल को बंद होने की भविष्यवाणी मोदी भक्त अभी से कर रहे हैं।

मजीठिया वेतनमान : जब उम्मीद खत्म हो जाए तब होता है न्याय

यह इंडिया है. यहां न्याय तब मिलता है जब आप न्याय की उम्मीद छोड़ दें। दूसरे शब्दों में कहें तो कानून पूंजीपतियों की रखैल है जो अपने सुविधा अनुसार कानून की परिभाषा बदलवा देते हैं या पैसे के दम पर सुनवाई १० साल से २० तक टलती रहती है। वहीं सरकार की बात करें तो वह आरोपी को विचाराधीन कैदी बनाकर ही फैसले से पहले ही सजा दे दे। कुल मिलाकर कहें तो कानून एक वर्ग के लिए ही हितकारी है। शेष को न्याय मिलते सालों लग जाते हैं। कुछ ऐसा ही हाल मजीठिया वेतनमान को लेकर है। पहले सुप्रीम कोर्ट में इस पर बहस चली कि मजीठिया वेतनमान वैध है या अवैध। ४ सालों की बहस के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने स्टे नहीं दिया फिर भी अधिकांश प्रेस मालिकों में कोर्ट में मामला बताकर इस संबंध में कोई विचार नहीं किया। जब कोर्ट का फैसला आ गया तो प्रेस मालिकों ने साफ कह दिया हम मजीठिया वेज नहीं देंगे, जो करना है कर लो। अब अधिकांश पत्रकार कोर्ट गए। वहीं भारत सरकार ने इन उद्योगपतियों के आगे घुटने टेक दिया और शिकायत के बाद भी इस संबंध में कोई पहल नहीं की।

मजीठिया वेतनमान : कौन देता है जानकारी?

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर श्रम विभाग हर समाचार पत्र संस्थान से मजीठिया वेतनमान लागू करने के संबंध में जानकारी मांग रहा है लेकिन जानकारी कौन देता है? जब सुप्रीम कोर्ट को जानकारी नहीं दी तो श्रम विभाग किस चिडिया का नाम है? नतीजन खिसियाए श्रम विभाग ने लेबर कोर्ट में प्रकरण डाल दिया. ये वाकया है मध्यप्रदेश का. झारखंड सरकार प्रपत्र सी भरने का एड निकाली; उतराखंड सरकार ने कमेटी बनाई. दिल्ली सरकार की जांच मंथर गति से चल रही है. मतलब साफ है कि श्रम विभाग के वश में नहीं कि वह मजीठिया वेतनमान लागू करा सके. अब पत्रकारों की एकता पर ही भरोसा है.

बड़बोले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रिंट मीडियाकर्मियों के मजीठिया वेतनमान विवाद पर चुप क्यों हैं!

मजीठिया वेतनमान को लेकर प्रेस मालिक संविधान और कानून की हत्या कर रहे है। बड़बोले प्रधानमंत्री मोदी, केन्द्र सरकार और राज्य सरकारें सब कुछ जानकर भी चुप है। ऐसा लगता है कि प्रेस मालिक देश के संविधान और कानून से बढ़कर है। इतना ही नहीं जो पत्रकार कोर्ट जा रहा है उन्हें संस्थान से बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है। कानून की ऐसी दुर्गती और कहां देखने को मिल सकती है। जिसका पालन समाज के सबसे जागरूक वर्ग के बीच ही नहीं हो रहा है।