Connect with us

Hi, what are you looking for?

सियासत

कांग्रेस का भविष्य-पाठ! (पार्ट वन)

कनक तिवारी-

(1) कांग्रेस देश की राजनीति में घूमती हुई नहीं आई। इतिहास मंथन की प्रक्रिया से करोड़ों भारतीयों को आज़ादी के अणु से सम्पृक्त करने ऐतिहासिक ज़रूरत के रूप में वक़्त के बियाबान में कांग्रेस सेनानायक हुई। वह पार्टी इन दिनों संकटग्रस्त, संघर्षोन्मुख और असमंजस के दौर में है। हाल हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों ने पार्टी के सामने ज्यादा सवाल खड़े किए हैं। 3 दिसंबर को घोषित नतीजों में कांग्रेस को शर्मनाक पराजय मिली है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में वह सत्ता से बेदखल हुई। मध्यप्रदेश में भाजपा सरकार को बेदखल नहीं कर सकी। क्या यह अपेक्षित नहीं था? क्या मतदाताओं को कोई आश्चर्य नहीं हुआ?

Advertisement. Scroll to continue reading.

(2) ऐसा नहीं हैं कि कांग्रेस को इन चुनावों में पहले भी पराजय नहीं झेलनी पड़ी हो। 1962 के चुनावों में कई सूबों में कांग्रेस का राज्य दरक गया था। 1977 के राजनीतिक झंझावत ने पूरे देश में कांग्रेस की चूलें ढीली कर दी थीं। लेकिन इंदिरा गांधी का करिश्माई व्यक्तित्व था कि अपने दमखम पर 1979-80 1980 में कांग्रेस को जिता कर ले आई। 1989 के चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व में हारने के बावजूद भी कांग्रेस लोकसभा में 1991 के चुनावों में फिर किसी तरह उठकर खड़ी हो गईं।

(3) अब भी पार्टी में ज्ञान, अनुभव और चिन्तन समेटे कुछ हस्ताक्षर कहीं न कहीं पड़े होंगे। कांग्रेस चाहे तो असफलता के बावजूद ऐसे तत्वों को उनकी वांछित भूमिका से लैस कर सकती है। कांग्रेस खत्म नहीं हुई है। चोट लग जाने के कारण खेल से फिलहाल रिटायर दीख रही है। देश या पार्टी के जीवन में पांच बरसों का समय बहुत बड़ा नहीं होता। चुनाव तो फिर होंगे। कांग्रेस को विरोधियों की गलती की जूठन चाटने के बदले अपनी रसोई तैयार करनी होगी, जिससे कार्यकर्ताओं की पूरी टीम का पेट भरे।

Advertisement. Scroll to continue reading.

(4) ऐसा नहीं कि कांग्रेस में संस्कारशील पीढ़ी का पूरी तौर पर खात्मा हो गया। लेकिन जनता से जुड़े और बौद्धिक रूप से सजग लोग कांग्रेस के सियासी नक्कारखाने में तूती की आवाज बनाए गये। वाक्योद्धाओं के मुकाबले कांग्रेस ने केवल हुल्लड़ करते या ताली बजाते बौनों की फौज खड़ी की। लगातार चुनावों के परिणाम कांग्रेस के लिए एक और ऐलान है। क्या कांग्रेस इस सम्भावित चुनौती के प्रति बेखबर रह सकती है कि हालिया चुनाव परिणाम कांग्रेस की यात्रा का अर्द्ध विराम हैं, पूर्ण विराम नहीं?

(5) कांग्रेस ने पहले भी निराशा को कफन की तरह नहीं ओढ़ा है। कांग्रेस को विरोधियों से उतना खतरा नहीं रहा, जितना अपने कुछ बेटों से रहा है। क्या कांग्रेस के वफादार कार्यकर्ता अब भी गुटबाज नेताओं का कंधा बनने पर ही मजबूर हैं? कांग्रेस जैसी पार्टी के लिए यह कितना आत्मघाती है कि जिस उत्तरप्रदेश ने कांग्रेस के तेवर में संघर्ष के सबसे ज्यादा बीजाणु गूंथे, वहां उसकी हालत चौथे नंबर पर है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

(6) नेतृत्व को लेकर सोनिया गांधी निस्सन्देह वह ’फेवीकोल’ अब भी हैं जिससे पार्टी के टूटते हाथ पांव जुड़ जाते हैं। लेकिन कांग्रेस की आत्मा कहां है? स्वदेशी का विरोध, विचारों की सफाई, वंशवाद की अभिवृद्धि, समाजवाद का खात्मा, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का समर्थन और पश्चिमी अपसंस्कृति के सामने समर्पण करने के बाद कांग्रेस और अन्य पार्टियों में क्या फर्क रह गया है? सड़क पर कांग्रेस और भाजपा के दो कार्यकर्ता चलें, तो उन्हें देखकर कोई नहीं अलग अलग पहचान पाता, जबकि चार दशक पहले तक बात ऐसी नहीं थी। देहाती गंध की गमक लिए लाखों कांग्रेसी कार्यकर्ता दरी बिछाने वालों की जमात तक में शामिल नहीं हैं। उनके बदले शामियाना भंडार वाले कांग्रेस नगर रचने के शिल्पकार हो गये हैं।

(7) राहुल गांधी में भी सोनिया गांधी का गुण है कि उनकी भाषा असभ्य, अभद्र, असंयत और अनावश्यक नहीं होती। वे शरीफ आदमी की तरह चेहरे पर मुस्कराहट तिरती मुद्रा लिए फिरते हैं। कहा होगा राजीव गांधी ने ‘कि सत्ता के दलालों को दूर किया जाए,‘ लेकिन देश जानता है कि कांग्रेस में उनकी संख्या और शक्ति का कितना इजाफा हो गया है। इक्कीसवीं सदी की राजनीति में कड़ियल और खब्बू राजनेता ही सफल हो सकते हैं। पता नहीं राहुल को आर्थिक, सामाजिक और वैज्ञानिक मामलों की कितनी समझ आ गई होगी? कांग्रेस में ऐसा वर्ग भी है जो अंदर ही अंदर चाहता है कि नेहरू गांधी परिवार का वर्चस्व खत्म हो।

Advertisement. Scroll to continue reading.

(8) सवाल यह भी है कि राहुल गांधी का सोच क्या है? विदेशी बीमा कंपनियां, बैंक, वकील, पूंजी-निवेशक, मीडिया-मुगल, हथियारों के स्मगलर, जहरीली दवाइयां सब हिन्दुस्तान चले आ रहे हैं। देश में विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाए जा रहे हैं। किसानों और आदिवासियों की ज़मीनों पर डकैती की जा रही है। नदियों को प्रदूषित किया जा रहा है। खेती की धरती सिकुड़ रही है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। नक्सलवाद और आतंकवाद से पूरे देश में ज़हर फैल रहा है। अंबानी अदाणी की अट्टालिका के मुकाबले ज़मीदोज़ किसानों के शव हैं। राहुल गांधी राजनीति को किसी भूचाल या जन आंदोलन की तरह नहीं चला सकते। उनके पास कुछ सूत्रबद्ध शिक्षाएं हैं। उन्हें वे बतकहियों में अपने समर्थकों और सहयोगियों को परोसते चलते है। बीच-बीच में आदिवासियों को उड़ीसा में भरोसा दिला देते हैं कि उनकी जमीनें छीनकर उन पर बड़े उद्योग नहीं लगेंगे।

(जारी रहेगा)।

Advertisement. Scroll to continue reading.
1 Comment

1 Comment

  1. Sudhir Awasthi

    December 4, 2023 at 11:05 pm

    गजब लेख

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement