ये कृषि विश्वविद्यालय पालमपुर है… असलियत जान जाएंगे तो पूछेंगे कि क्या यह भारत में ही है!
शिमला। पालमपुर विश्वविद्यालय के अफसरों ने गरीब (बीपीएल) परिवार से संबंधित एक मेधावी युवक का करियर चौपट करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। शिमला जिला के एक छोटे से गांव के विनोद कुमार ने जवाहलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर संचालित कंबाइंड एंट्रेंस एग्जामिनेशन ऑफ बॉयोटेक्नोलॉजी (CEEB) टेस्ट उत्तीर्ण किया था। वहां से एमएससी (एग्री) बॉयोटेक्नोलॉजी करने के लिए उसे पालमपुर विश्वविद्यालय में सीट अलॉट की गई थी, लेकिन यहां विश्वविद्यालय ने उसे दाखिला देने से साफ इनकार कर दिया। कोई ठोस कारण भी नहीं बताया। मामला शिमला में राज्यपाल के दरबार में पहुंचा तो वहां मौजूद सभी एक स्वर में विश्वविद्यालय प्रशासन को कोसने लगे। सब का कहना था कि इस विश्वविद्यालय में अब विश्वविद्यालय जैसी कोई बात नहीं रह गई है, बल्कि यह राजनीतिक गुटबाजों का अड्डा बन रह गया है।
राजभवन से विवि को सख्त हिदायत दी गई कि विनोद कुमार को दाखिला दिया जाए या फिर उसे लिख कर दिया जाए कि दाखिला क्यों नहीं दे रहे। लेकिन विवि के अफसर अपनी बात पर अड़े रहे और उसे लिखित में देने से भी इनकार कर दिया। युवक ने हाईकोर्ट का दरवाजा खड़खड़ाया तो अदालत ने भी विश्वविद्यालय प्रशासन को फटकार लगाई और तुरंत दाखिला देने के निर्देश दिए। लेकिन इसी बीच सौभाग्य से बैंगलोर के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय ने विनोद को दाखिले के लिए आमंत्रित कर दिया और वह बैंगलोर चला गया। राज्यपाल के दरबार में जब लोग पालमपुर विश्वविद्यालय की लानत मलानत कर रहे थे तो मैं स्वयं बढ़चढ़ कर उनकी हां में हां मिला रहा था। इसकी वजह यह थी कि इस विश्वविद्यालय को लेकर मेरे अपने भी कुछ कटु अनुभव हैं, जिन्हें मैं पाठकों से साथ साझा करना चाहूंगा।
धर्मशाला में पत्रकारिता के दौरान एक मित्र ने कृषि विश्वविद्यालय पालमपुर के बारे में दिलचस्प कहानी सुनाई- विवि में एक काबिल डाक्टर (वैज्ञानिक) की पदोन्नति हुई और उन्हें कार्यालय के लिए नया कमरा मिल गया। यह डाक्टर साहब किसी भी गुटबाजी से दूर रहते थे और अपना काम ईमानदारी से करने के लिए जाने जाते थे। इसलिए विरोधियों ने उन्हें सबक सिखाने की ठान ली। परिणामस्वरूप डाक्टर साहब को ऑफिस तो मिल गया, लेकिन वहां न कोई कुर्सी थी और न ही मेज। ऐसे में काम कैसे करते? डाक्टर साहब ने कुर्सी, मेज के लिए प्रशासन में अर्जी लगा दी, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। फिर-फिर अर्जी दी, लेकिन परिणाम शून्य। डाक्टर साहब यूं ही कभी कंटीन में या अन्य विभागों में बैठ कर समय काटने लगे।
इसी तरह जब काफी समय बीत गया तो एक दिन डाक्टर साहब ने सोचा- ‘मात्र कुर्सी और मेज की ही तो बात है, क्यों ना खुद ही बाजार से खरीद लिए जाएं।’ उन्होंने वैसा ही किया। कार्यालय में डाक्टर साहब के कुर्सी पर बैठने की खबर गुटबाजों में आग की तरह फैल गई। उन्होंने तुरंत आपात बैठक बुलाकर उच्च प्रशासन के पास एक शिकायत लिखकर भेज दी, जिसमें कहा गया कि विवि में कोई बड़ा फर्नीचर घोटाला होने की आशंका है। कुछ जगह ऐसा फर्नीचर देखने में आया है, जो विवि के रिकार्ड से मेल नहीं खा रहा और उनमें कोई नंबर भी अंकित नहीं है। इस शिकायत पर एकाएक पूरा प्रशासन उबल पड़ा और डाक्टर साहब को अनुशासनात्म कार्रवाई के लिए नोटिस पर नोटिस मिलने लगे। वे अपनी सफाई देते रहे, लेकिन प्रशासन तो जैसे उन्हें सूली पर चढ़ाने को ही उतारू हो गया। पीड़ित डाक्टर साहब एक दिन मित्रों से यह आपबीती सुनाते हुए फूट- फूट कर रो पड़े।
कहानी वास्तव में ही हैरान कर देने वाली थी और इसने मेरी दिलचस्पी विश्वविद्यालय के प्रति बढ़ा दी। संपादक जी से आग्रह कर मैंने कुछ दिनों के लिए कृषि विश्वविद्यालय की असाइनमेंट प्राप्त की और पालमपुर चला गया। वहां एक बहुत ही काबिल वैज्ञानिक, जिनके नाम कृषि क्षेत्र के अनेक शोध दर्ज थे, से मुलाकात हुई। उन्होंने प्रदेश में मध्य पर्वतीय क्षेत्रों के लिए मटर की एक उन्नत किस्म ईजाद की थी। प्याज, रंगीन मूली और शलजम पर भी उनके कुछ उल्लेखनीय शोध थे। मैंने कुछ रिपोर्ट्स तैयार कर अखबार में छपवाईं।
कुछ दिन बाद खबरों की टोह में यूं ही विवि परिसर में टहल रहा था कि सामने से कोई वरिष्ठ वैज्ञानिक टकरा गए। देखते ही बोले, “भाई शर्मा जी वाह.. कमाल कर दिया आपने..क्या खबरें छापी हैं रंगीन पेज पर। जादू है आपकी कलम में। डाक्टर…. को तो आपने हीरो ही बना दिया…।”
मैंने कहा, “डाक्टर साहब, हम तो केवल रिपोर्ट्स लिखते हैं… कमाल तो आप लोग करते हैं, बड़े- बड़े शोध करके।”
वरिष्ठ वैज्ञानिक बोले, “शर्मा जी, आपने बहुत अच्छा लिखा है। बस एक कमी रह गई..। शोधकर्ता डाक्टर… से यह भी पूछ लेते कि आपके मटर के बीज के लिए फील्ड से डिमांड कितनी आई है और किसानों ने कितना बीज अपने खेतों में बोया है तो आपको कुछ और जानकारी मिल जाती। शर्मा जी! यकीन मानिए, डिमांड क्विंटलों में नहीं होगी, मनों में भी नहीं, मात्र कुछ किलो में ही होगी। शायद दस- बारह किलो…।”
मैंने स्वीकार करते हुए कहा, “हां जी, ये तो शायद कमी रह गई है मुझसे…।” इसके साथ ही मैं तुरंत समझ भी गया कि ये महाशय शोधकर्ता वैज्ञानिक के विरोधी गुट से होंगे। शोधकर्ता ने शोध किया और उसे भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने भी प्रमाणित कर दिया, लेकिन विरोधियों ने संशोधित मटर बीज के प्रसार में ही अड़चन डाल दी होगी। शोधकर्ता वैज्ञानिक अब हाथ में शोधपत्र को पकड़े- पकड़े पछता रहे होंगे।
मैं जैसे तैसे उनसे निपट कर आगे बढ़ा। किसी विभाग में कोई वरिष्ठ वैज्ञानिक अपनी सीट पर बैठे हैं, यह पता चलते ही मैं उनसे मिलने चला गया। उन्हें नमस्कार करने के साथ ही अपना परिचय दिया कि मैं अमुक अखबार से हूं और बातचीत के लिए आपका कुछ समय चाहता हूं। मेरा परिचय पाते ही उनका चेहरा कुछ गंभीर हो गया। उन्होंने मुझे बैठने के लिए कहा और चपरासी को चाय लाने का आदेश देकर फाइलों में खो गए।
चाय आ गई तो वरिष्ठ वैज्ञानिक चपरासी को डपटते हुए बोले, “क्यों भई, सुना है आजकल डाक्टर … की खूब सेवा कर रहे हो। खूब पानी पिला रहे हो, चाय पिला रहे हो.. ?”
चपरासी, “नहीं सर, भग्वान कसम… मैं तो उनके कमरे में कभी जाता ही नहीं..। सर, कल की ही बात बताऊं, डाक्टर … बार- बार घंटी बजाते रहे, लेकिन में अंदर नहीं गया, जबकि मैं कमरे के बाहर ही खड़ा था।”
वरिष्ठ वैज्ञानिक, “अच्छा! फिर तो ठीक है। हां, आगे से ध्यान रखना..जैसा हमने कहा है….।” चपरासी स्वीकृति में सिर हिलाता हुआ लौट गया। और इसके साथ ही उन्होंने मुझसे कहा, “आज तो मैं बहुत व्यस्त हूं, बिल्कुल भी टाइम नहीं है, फिर कभी आना।”
मैं उठकर चला आया। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसे माहौल में यहां कोई कैसे नए शोध कर सकता है? यहां तो केवल राजनीति हो सकती है, गुटबाजी हो सकती है, टांग खिंचाई हो सकती है…। वहां यही कुछ हो रहा है।
लेखक एच. आनंद शर्मा himnewspost.com के संपादक हैं। उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.