Ajay Sharma : अतुल को इन्साफ दिलाने के लिए के लिए संघर्ष करो… इतना बड़ा दुःख जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। लुधियाना के हमारे बहादुर साथी अतुल सक्सेना ने दैनिक जागरण के मालिकानों के अत्याचार से तंग आकर ख़ुदकुशी कर ली। हाँ हमारा भाई बहुत बहादुर था लेकिन अपना हक़ मांगने पर, मजीठिया वेज बोर्ड का लाभ देने की मांग करने पर उस इतना प्रताड़ित किया गया कि उसने निराश होकर मौत को गले लगा लिया।
दो दशक से अधिक समय तक दैनिक जागरण को अपनी सेवाएं देने के बदले में जागरण के मालिकानों ने उसके साथ यह सुलूक किया। गौरतलब है कि दैनिक जागरण के मालिकानों ने मजीठिया वेज बोर्ड लागू करने की मांग करने पर पांच यूनिटों नोएडा, लुधियाना, जालंधर, धर्मशाला और हिसार से 350 से अधिक कर्मचारियों को 6 महीने पहले संस्थान से बाहर कर दिया था। पीड़ित कर्मचारी दिल्ली-एनसीआर की सड़कों पर इन्साफ पाने के लिए आवाज़ बुलंद करते रहे लेकिन जागरण के मालिकानों के केंद्र सरकार से बहुत अच्छे संबंधों के कारण कर्मचारियों का दर्द किसी ने नहीं सुना। कर्मचारियों ने प्रधानमन्त्री श्री नरेंद्र मोदी जी को कई बार बताया कि उनके बच्चों के नाम स्कूल से कट चुके हैं, आर्थिक हालात बेहद खराब हैं लेकिन इन गरीब कर्मचारियों की आवाज़ नहीं सुनी गयी। आज हुआ वही जिसका अंदेशा था। हमारे एक बहादुर साथी ने मालिकानों के अत्याचार के आगे हार मान ली।
अतुल सक्सेना ने मजीठिया वेज बोर्ड का लाभ पाने के लिए अपने साथियों के साथ माननीय सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा किया हुआ था। बस इसी से जागरण प्रबंधन बौखलाया हुआ था। प्रबंधन ने उन पर इस बात का दबाव बनाया हुआ था कि वे अपना केस वापस ले लें अन्यथा उनका तबादला कहीं दूर कर दिया जायेगा। वर्षों तक बेहद ईमानदारी से संस्थान को सेवाएं देने वाले अतुल इस बात से बेहद अवसाद में थे। साथियों यक्ष प्रश्न यह है कि क्या दैनिक जागरण के मालिकान इतने बड़े हैं कि किसी की भी जान ले लें। हाँ वे इतने बड़े जरूर हैं कि माननीय उच्चतम न्यायालय की अवमानना करें और खुलकर कहें कि उनके लिए ऐसा कोई भी आदेश मायने नहीं रखता। लेकिन भाई अतुल को सच्ची श्रद्धाञ्जलि यही होगी कि हम उन्हें इन्साफ मिलने तक चैन से ना बैठें, वर्ना अखबार मालिकानों के अत्याचार के कारण फिर कोई भाई अतुल जैसा कदम उठाने को मजबूर हो जायेगा।
Kamta Prasad : एक मीडियाकर्मी की आत्महत्या के दुःखद, हृदय-विदारक सूचना के बीच मजीठिया वेजबोर्ड पाने की लड़ाई लड़ रहे पत्रकारों की पोस्ट का माकूल जवाबः आप जैसे महान पत्रकारों ने क्या कभी मजदूर आंदोलन से जुड़ी पिटिशन पर साइन किये हैं। नहीं न। दफ्तर के अंदर कभी अपने जनवादी अधिकारों के लिए आवाज उठाई है, नहीं न। सभी अपनी-अपनी तरक्की के लिए बस सेटिंग करने में लगे रहे। मैंने काफी पहले ही इस्तीफा दे दिया था आप जैसे भले लोगों के कुकर्मों के चलते वरना मैं भी सद्गति को प्राप्त होता। हर चीज को मजीठिया से जोड़ने की सड़ांध मारती मानसिकता की मज्जमत करते हुए मैं उस पर लानत भेजता हूँ।
मेरी आलोचना सिर्फ एक मुद्दे को लेकर है कि कोई भी जब जीवन-लीला समाप्त करने जैसा इंतिहाई कदम उठाता है तो उसके पीछे के कारणों की सम्यक पड़ताल किये बिना उसे सिर्फ पैसों तक केंद्रित कर देना ठीक नहीं है। दूसरी बात एक-एक सबएडिटर को पगला देने वाला दबाव झेलना पड़ता है, इस बात को क्यों नहीं रेखांकित किया जा रहा। सूअर की औलादों की हरमजदगी को अगर कोई न सह पाये तो इसमें ताज्जुब की कोई बात नहीं। चीजों को इस तरह पेश करो कि पैसे के साथ-साथ मानसिक उत्पीड़न भी नजर आए।
अखबारों के पहली कतार नौकरशाहों को बेनकाब करो-नंगा करो और लोगों को बताओ कि किस तरह से तुम्हारे जनवादी अधिकारों पर डाका डाला जाता रहा है। विशिष्ट-अद्वितीय होने की जकड़बंदी से मुक्ति पाते हुए शेष मजदूर आंदोलन पर भी तो तनिक नजर डालो। छह-छह हजार रुपये पर 12-12 घंटे लोग खट रहे हैं। अपने आस-पास की चीजें आप लोगों को क्यों नहीं नजर आतीं। पब्लिक फोरम पर सिर्फ अपने लिए ही रोते रहे तो कोई भी नहीं तवज्जो देगा। सरोकार के दायरे को को व्यापक बनाओ यारो। किसी साथी ने यहीं लिखा थाः फौजी निस्पृह भाव से सीमा पर गोली मार देते हैं। जब नागरिक जीवन में लौटते हैं तो शेष समाज की परेशानियों से वैसे ही निस्पृह बने रहते हैं और जब अपनी आर्थिक मांगों के पक्ष में नारा बुलंद करते हैं तो शेष जनता निस्पृह भाव से उन्हें देखने लगती है। आप लोगों के साथ ऐसा न हो बस यही दुआ कर सकता हूँ।
अजय शर्मा और कामता प्रसाद के फेसबुक वॉल से.
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