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जीएसटी से बेरोजगारी की कगार पर खड़े एक पत्रकार की डायरी : जीएसटी का सच (पार्ट 1 से 12 तक)

जीएसटी का सच (पार्ट 1) : जीएसटी यानि छोटे और नए कारोबारों का दुश्मन

संजय कुमार सिंह
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जीएसटी के बारे में बातें तो बड़ी-बड़ी की गईं पर यह छोटे और नए कारोबारों का दुश्मन है। मेरे कुछ ग्राहकों ने कहा कि अंतरराज्यीय “कारोबार” करने वालों के लिए जीएसटी पंजीकरण आवश्यक है और कायदे से वे काम कराना तो दूर जो काम करा चुके उसका भुगतान भी नहीं कर सकते। शुरू में तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ पर अब लगता है कि वे सही ही कर रहे हैं। वैसे भी नौकरी करने वाले क्यों जोखिम उठाएं। वे काम नहीं कराएंगे, गलत हो तो क्यों करें। तनख्वाह तो मिलनी ही है। पर यह सब कितने दिन कैसे चलेगा भविष्य बताएगा।

जीएसटी का सच (2) : सहायक के बिना संभव नहीं, खर्च बढ़ जाएगा

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संजय कुमार सिंह
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जीएसटी का विरोध करने पर पहला सवाल उठता है, आप पंजीकरण करा क्यों नहीं लेते। आज की चर्चा इसी पर। इसके लिए थोड़ा पीछे चलता हूं। अपनी ही स्थिति बताता हूं क्योंकि देश में मेरे जैसे बहुत लोग होंगे और उन्हें अपनी इच्छा का कारोबार करने का हक है, आयकर अगर बने तो सरकार लेती ही है पर काम के अलावा हिसाब देने-बताने का काम इतना नहीं होना चाहिए कि मैं अपना मूल काम ही न कर सकूं। अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद की अपनी फ्रीलांसिंग के दम पर 2002 में मैंने जनसत्ता से वीआरएस ले लिया था और जीएसटी लागू होने से पहले तक, जब-तब कुछ अंशकालिक सहायकों के दम पर काम ठीक ही चल रहा था।

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मैं घर से ही काम करता हूं और कोई ऐसा पूर्णकालिक सहायक नहीं है, ना रख सकता हूं जो घर आकर काम करे। इसमें बिल बनाना, हिसाब रखना और पैसे मांगने का काम शामिल है जो मेरी पत्नी करती हैं। जीएसटी पंजीकरण कराने से हिसाब रखने और देने का काम बढ़ जाएगा (जबकि इसका कोई लाभ नहीं है)। मौजूदा व्यवस्था में इसके लिए मुझे सॉफ्टवेयर भी लेने होंगे और काम करने के लिए सहायक भी रखना होगा। इसे अंशकालिक तौर पर कराना तो महंगा है ही पूर्णकालिक सहायक रखकर काम कराने के लिए ऑफिस रखने संभालने का खर्च भी उठाना पड़ेगा।

कुछ लोग बड़े कारोबारियों के हवाले से कहते हैं कि फलाने ने कहा कि कोई दिक्कत नहीं है। इस मामले में सच यही है कि जीएसटी में कागजी लिखा-पढ़ी का काम तथा इसकी जिम्मेदारी बढ़ी है और अगर आपके पास इसके लिए लोग हैं तो आपको कुछ करना ही नहीं है, कर्मचारी या बाबू करेंगे। और इन बाबुओं को क्या फर्क पड़ता है कि कोई काम जो छोटा कारोबारी सस्ते में कर सकता है उसके बड़ा कारोबारी कितने लेगा। पर अगर आप खुद सब कुछ करते हैं तो इसका मतलब होता है। वैसे भी, 20 लाख तक के कारोबार पर जब छूट है तो अंतरराज्यीय या ई-मेल से कारोबार करने पर यह बोझ क्यों?

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इसके पीछे मानसिकता है। नोटबंदी से लेकर चार्टर्ट अकाउंटैंट तक की सभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषणों से लगता है कि वे छोटे कारोबारियों और व्यापारियों को टैक्स चोर समझते हैं। चार्टर्ड अकाउंटैंट के लिए भी वे अपमानजनक राय प्रदर्शित कर चुके हैं। उनसे सहमत-असहमत होना अलग बात है और टैक्स चोरी रोकने के लिए सख्ती का भी समर्थन किया जा सकता है। पर ऐसे नियम बना देने जिससे कारोबार करना ही संभव न रहे अनुचित है। अगर मैं अपना काम (अनुवाद) खुद कर सकता हूं और चूंकि कंप्यूटर या ई-मेल से उसे कहीं भी भेज सकता हूं तो मुझे क्लर्क का काम करने के लिए क्यों मजबूर करना। अगर मेरी आय ज्यादा हो तो मैं इस खर्च पर आयकर नहीं दूंगा पर जब आय ही न हो तो यह खर्च कहां से जुटाऊं और क्यों जुटाऊं?

मैं कमा सकता हूं, कमाता हूं उसपर सरकार टैक्स लेती है पर सरकार अब मजबूर कर रही है कि मैं किसी को सहायक रखूं, उसके बैठने के लिए किराए पर ऑफिस लूं और फिर उसकी न्यूनतम सुविधाओं का बंदोबस्त करूं – जो ना मेरा काम है ना मेरी जवाबदेही। मुझे ज्यादा कमाने का शौक नहीं है तो थोड़ा भी न कमाऊं? वकीलों और खबर बेचने वाले (संवाददाताओं) को इसपर छूट क्यों है? पंजीकरण से मुक्त एक और वर्ग है – प्रायोजकों का वर्ग वह जो प्रायोजित करने की सेवा मुहैया कराता है। जाहिर है, यह अपने उन्हीं कार्यों के लिए जीएसटी पंजीकरण से मुक्त है जिससे वह कमाता नहीं है। इस तरह, स्पष्ट है कि जीएसटी से मुक्ति सिर्फ वकीलों को है जो राजनेताओं में सबसे ज्यादा हैं।

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